अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (11)

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (11) (आचार्य माघनन्दीकृत) हे तीर्थपा! निज-यशो-धवली-कृताशाः, सिद्धौष-धाश्च भव-दुःख-महा-गदानाम्। सद्भव्य-हृज्जनित-पंक-कबन्ध-कल्पा, यूयं जिनाः सतत-शान्तिकरा भवन्तु।।14।। हे तीर्थ पा! - हे तीनों लोकों के धर्मतीर्थों के रक्षक! निज-यशः - अपने यश से धवली - शुद्ध/पवित्र कृत- कर दिया है आशाः - दिशाओं को सिद्ध - सिद्ध औषधाः - औषधि रूप हैं च - और भव-दुःख - संसार रूपी दुःखों के महा-गदानाम् - महान रोगों को सत् - समीचीन भव्य - भव्यों के लिए हृज् जनित - मन में उत्पन्न पंक - पाप रूपी कीचड़ के लिए कबन्ध - जल के कल्पा - समान हैं यूयं - आप जिनाः - जिनेन्द्र भगवान सतत - हमेशा शान्तिकरा - शान्ति करने वाले भवन्तु - हो अर्थ - हे तीनों लोकों के धर्मतीर्थों के रक्षक! आपने अपने यश से सभी दिशाओं को शुद्ध/पवित्र कर दिया है। आप संसार रूपी दुःखों के महान रोगों के लिए सिद्ध औषधि रूप हैं और समीचीन भव्यों के लिए उनके मन में उत्पन्न पाप रूपी कीचड़ के लिए जल के समान हैं। हे जिनेन्द्र भगवान! आप हमेशा शान्ति करने वाले हो। (इति शान्त्यर्थं पुष्पाँजलिं क्षिपामि...