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Showing posts from August, 2021

धर्मसिंह मुनि की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर धर्मसिंह मुनि की कथा इस प्रकार के देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किये जाते हैं और ज्ञान के समुद्र हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्मसिंह मुनि की कथा लिखी जाती है। दक्षिण देश के कौशलगिर नगर के राजा वीर सेन की रानी वीरमती के दो सन्तान थी। एक पुत्र था और एक कन्या थी। पुत्र का नाम चन्द्रभूति और कन्या का चन्द्रश्री था। चन्द्रश्री बड़ी सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता देखते ही बनती थी। कौशल देश और कौशल ही शहर के राजा धर्मसिंह के साथ चन्द्रश्री की शादी हुई थी। दोनों दम्पत्ति सुख से रहते थे। नाना प्रकार की भोगोपभोग वस्तुएँ सदा उनके लिये मौजूद रहती थी। इतना होने पर भी राजा का धर्म पर पूर्ण विश्वास था, अगाध श्रद्धा थी। वे सदा दान, पूजा, व्रतादि धर्म कार्य करते थे। एक दिन धर्मसिंह तपस्वी दमधर मुनि के दर्शनार्थ गये। उनकी भक्ति से पूजा-स्तुति कर उन्होंने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना, जो धर्म देवों द्वारा भी बड़ी भक्ति के साथ पूजित माना जाता है। धर्मोपदेश का धर्मसिंह के चित पर बड़ा गहरा असर पड़ा। उससे वे संसार और विषय भोगों से विरक्त हो गये। उनकी रानी चन्द्रश्री को उनके जवा...

वृषभसेन की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर वृषभसेन की कथा जिनेन्द्र भगवान् जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है। दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे। रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इन से बिलकुल उल्टा अर्थात् मिथ्यात्वी और जैन धर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आस-पास सर्प रहा ही करते हैं। एक दिन श्री वृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिये कुण्डल नगर की ओर आये। वैश्रवण उनके आने का समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिये उनकी वन्दना को गया। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैन धर्म का उपदेश सुना। उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच है, इस सर्वोच्च और सब सुखों के देने वाले जैन धर्म का उपदेश सुनकर कौन सद्गति का पात्र सुखी न होगा। राजमंत्री भी मुनि संघ के पास आया। पर इसलिए नहीं कि वह इनकी पूजा-स्तुति करे; अपितु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर, उनका मान भंग करने, लोगों की श्रद्धा उन पर से उठा देने के लिए। पर यह उसकी भूल थी। कारण जो दूसरो...

रक्षा - बंधन

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रक्षा - बंधन रक्षा बंधन का अर्थ है - बंधन से रक्षा क्या हमें किसी ने बांध रखा है ? हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सोचा। हमें कर्मों ने बांध रखा है। इसीलिए हम संसार में घूमते रहते हैं। जन्म-मरण का चक्कर है कि समाप्त होने में ही नहीं आ रहा। हर रोज़ पूजा में कहते हैं कि अष्ट कर्म को दहन करने के लिए हम धूप समर्पित करते हैं। जैसे धूप जल कर नष्ट हो जाती है और उसका धुआँ अपनी सुगन्धित सुवास फैलाता हुआ ऊपर की ओर उठता चला जाता है और अनन्त आकाश में विलीन हो जाता है। उसी प्रकार हमारी आत्मा से भी कर्म-मल नष्ट हो जाएं और हमारी आत्मा मोक्ष को प्राप्त करे तथा जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाए। तभी रक्षा बंधन पर्व सार्थक हो सकेगा। पर वे आठ कर्म हैं कौन-कौन से ? हाँ, वे हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय (ये चारों घातिया कर्म कहलाते हैं जो आत्मा का घात करते हैं) और आयु, नाम, गोत्र व अंतराय (ये अघातिया कर्म हैं जो समय पाकर स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं)। इनमें से मोहनीय कर्म सभी कर्मों का राजा है। क्या आप इसके विषय में जानना चाहते हैं ? जो कर्म जीव को मदिरापान किए हुए व्यक्ति की तरह मदोन्मत्त करता है उसे मोहन...

शालिसिक्थ मच्छ के भावों की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर शालिसिक्थ मच्छ के भावों की कथा केवलज्ञान रूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने से ही कितना दोष या कर्मबंध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है। सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ा भारी दीर्घकाय मच्छ है। वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के आस-पास रहता है। पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल-जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खर्राटे में मस्त हो जाता, उस समय कोई एक-एक, दो-दो योजन के लम्बे-लम्बे कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल दाढ़ों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज़-रोज़ सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आये हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है। यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्रा...

सुभौम चक्रवर्ती की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर सुभौम चक्रवर्ती की कथा चारों प्रकार के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौम की कथा लिखी जाती है। सुभौम ईर्ष्यावान् शहर के राजा कार्तवीर्य की रानी रेवती के पुत्र थे। चक्रवर्ती का एक जयसेन नाम का रसोइया था। एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करने को बैठे तब रसोइए ने उन्हें गर्म-गर्म खीर परोस दी। उसके खाने से चक्रवर्ती का मुँह जल गया। इससे उन्हें रसोइये पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से से उन्होंने खीर रखे गर्म बर्तन को ही उसके सिर पर दे मारा। उससे उसका सारा सिर जल गया। इसकी घोर वेदना से मरकर वह लवण समुद्र में व्यंतर देव हुआ। कु-अविधज्ञान से अपने पूर्वभव की बात जानकर चक्रवर्ती पर उसके गुस्से का पार न रहा। प्रतिहिंसा से उसका जी बेचैन हो उठा। तब वह एक तपस्वी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलों को अपने हाथ में लिये चक्रवर्ती के पास पहुँचा। फलों को उसने चक्रवर्ती को भेंट किया। चक्रवर्ती उन फलों को खाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस तापस से कहा - महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं। आप इन्हें कहाँ से लाये और ये मिले तो कहाँ मिलेंगे ? तब उस ...

चाणक्य की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर चाणक्य की कथा देवों द्वारा पूजा किये जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर चाणक्य कथा लिखी जाती है। पाटिलपुत्र या पटना के राजा नन्द के तीन मंत्री थे। कावी, सुबन्धु और शकटाल, ये उनके नाम थे। यहीं एक कपिल नाम का पुरोहित रहता था। कपिल की स्त्री का नाम देविला था। चाणक्य इन्हीं का पुत्र था। यह बड़ा बुद्धिमान और वेदों का ज्ञाता था। एक बार आस-पास के छोटे-मोटे राजाओं ने मिलकर पटना पर चढाई कर दी। कावी मंत्री ने इस चढ़ाई का हाल नन्द से कहा। नन्द ने घबराकर मंत्री से कह दिया कि जाओ जैसे बने, उन अभिमानियों को समझा-बुझाकर वापिस लौटा दो। धन देना पड़े तो वह भी दो। राजाज्ञा पा मंत्री ने उन्हें धन वगैरह देकर लौटा दिया। सच है, बिना मंत्री के राज्य स्थिर हो ही नहीं सकता। एक दिन नन्द को स्वयं कुछ धन की ज़रूरत पड़ी। उसने खजांची से, खजाने में कितना धन मौजूद है, इसके लिए पूछा। खजांची ने कहा - महाराज, धन तो सब मंत्री महाशय ने दुश्मनों को दे डाला। खजाने में तो अब नाममात्र के लिए थोड़ा बहुत धन बचा होगा। यद्यपि दुश्मनों को धन स्वयं राजा ने दिलवाया था और इसलिए ग़लती उसी की थी, पर उस समय अपनी ...

धन्य मुनि की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर धन्य मुनि की कथा सर्वोच्च धर्म का उपदेश करने वाले श्री जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन्य नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो पढ़ने या सुनने से सुख प्रदान करने वाली है। जम्बूद्वीप के पूर्व की ओर बसे हुए विदेहक्षेत्र की प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक बड़ा ही लोभी राजा हो चुका है। जब फसल काट कर खेतों पर खले किए जाते थे तब वह बेचारे बैलों का मुँह बँधवा दिया करता और रसोई घर में रसोई बनाने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवाकर उनके बच्चे को दूध नहीं पीने देता था। सच है, लोभी मनुष्य कौन सा पाप नहीं करते हैं। एक दिन अशोक के मुँह में कोई बीमारी हो गई। जिससे उसका सारा मुँह आ गया। सिर में भी हजारों फोड़े-फुंसी हो गए। उससे उसे बड़ा कष्ट होने लगा। उसने उस रोग की औषधि बनवाई। वह उसे पीने को ही था कि इतने में अपने चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए एक मुनि आहार के लिए इसी ओर आ निकले। भाग्य से ये मुनि भी राजा की तरह इसी महारोग से पीड़ित हो रहे थे। इन तपस्वी मुनि की यह कष्टमय दशा देखकर राजा ने सोचा कि जिस रोग से मैं कष्ट पा रहा हूँ, जान पड़ता है उसी रोग से ये तपोनिधि भी दुःखी हैं...

पाँच सौ मुनियों की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर पाँच सौ मुनियों की कथा जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर पाँच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कि कल्याण का कारण है। भारत के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकार कटनाम के पुराने शहर के राजा का नाम दण्डक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था। सुव्रता रूपवती और विदुषी थी। राजमंत्री का नाम ‘बालक’ था। यह पापी जैन धर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पण्डिताई पर बड़ा अभिमान था। सो वह शास्त्रार्थ करने को मुनिसंघ के आचार्य के पास जा रहा था। रास्ते में इसे एक खण्डक नाम के मुनि मिल गये। सो उन्हीं से वह झगड़ा करने को बैठ गया और लगा अण्ट-सण्ट बकने। तब मुनि ने इसकी युक्तियों का अच्छी तरह खण्डन कर स्याद्वाद्-सिद्धान्त का ऐसी शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुँह बन्द हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। झख मार कर तब उसे लज्जित हो घर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी। उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति अपनाई कि एक भांड को छल से मुनि बनाकर सुव...

चिलात-पुत्र की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर चिलात-पुत्र की कथा केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र है, उन जिन-भगवान को नमस्कार कर चिलात-पुत्र की कथा लिखी जाती है। राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार हवाखोरी के लिए शहर से बाहर गए। वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदंड नाम का भील था। इसके एक लड़की थी। उसका नाम तिलकवती था। वह बड़ी सुन्दर थी। उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये। उनकी यह दशा देखकर यमदंड ने उससे कहा - राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसका आपके साथ विवाह कर सकता हूँ। उपश्रेणिक ने यमदंड की शर्त मंजूर कर ली। यमदंड ने तब तिलकवती का विवाह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये। बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया। उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुए और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना र...