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Showing posts from February, 2021

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

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मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली मंगतराय जी कृत बारह भावना (पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर) 1 . अथिर भावना सूरज चाँद छिपे निकलै, ऋतु फिर फिर कर आवै। प्यारी आयू ऐसी बीतै, पता नहीं पावै। पंडित मंगत राय जी ने दिन-प्रतिदिन हमारे सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं के उदाहरण देकर हमें समझाने का प्रयास किया है कि हमारा जीवन कितना क्षण-भंगुर है! हम देखते हैं कि प्रातःकाल सूरज निकलता है तो चाँद आँखों से ओझल हो जाता है और रात्रि में जब सूरज छिप जाता है तो चन्द्रमा का उदय हो जाता है। सूरज और चाँद छिपते रहते हैं और निकलते रहते हैं। यही क्रम सदा चलता रहता है। गर्मी की ऋतु समाप्त होती है तो वर्षा ऋतु आती है, वर्षा-ऋतु के बाद शीत-ऋतु आ जाती है। इसी प्रकार पल दिनों में, दिन महीनों में और महीने वर्षों में बदलते रहते हैं तथा हमारी प्यारी आयु कैसे समाप्त हो जाती है, इसका हमें पता ही नहीं चलता। हाँ..... यह अलग बात है कि संकट की घड़ियाँ बहुत धीरे-धीरे बीतती हैं और सुख का समय पंख लगा कर उड़ने लगता है। सांसों की पूंजी तो गिनकर ही मिलती हैं न! इसलिए हमें यह तो पता होना चाहिए कि हमें...

बारह भावना

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मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली मंगतराय जी कृत बारह भावना (पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर) “इस भव तरु का मूल इक, जानहुं मिथ्या भाव, ताको करि निरमूल अब, करिहों मोक्ष उपाव।” हे भव्य जीवों! इस संसार रूपी वृक्ष की जड़, मिथ्या भाव अर्थात् झूठी मान्यताओं को ही जानो। उन्हीं के कारण हमारा यह संसार फल-फूल रहा है। यदि हम जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना चाहते हैं तो हमें मोक्ष का उपाय करना चाहिए। अपनी मान्यताओं को सही मार्ग पर लाना सम्यक्त्व कहलाता है। संसार रूपी वृक्ष को जड़ सहित नष्ट करने का एकमात्र यही उपाय है और वह है जिनागम में वर्णित बारह भावनाओं का चिंतन और मनन। बारह भावनाओं का चिंतन आरम्भ करने से पहले हमें स्वयं से कुछ प्रश्न पूछने होंगे। 1 . क्या हमें यह संसार दुःखों का घर दिखाई देता है जिसमें वास्तव में सुख नहीं, सुख का आभास होता है ? हाँ, हाँ, उत्तर दो न! हाँ!.. जिन्हें हम सुख मानते हैं, वे केवल सुखाभास ही हैं। तभी तो नानक जी ने कहा था - ‘नानक दुखिया सब संसार’। 2 . क्या हम इन दुःखों से मुक्ति पाना चाहते हैं ? हाँ!.. क्यों नहीं ? भला दुःखों से छुटकारा...

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 48 - अद्भुत, आश्चर्यजनक परिणाम देने वाली गुणों की माला)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 48 . अद्भुत, आश्चर्यजनक परिणाम देने वाली गुणों की माला स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्, भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं, तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मीः ।। 48 ।। स्तोत्र-स्रजम् -  स्तोत्र रूपी माला को तव - आपकी  जिनेन्द्र - हे जिनेन्द्र देव गुणैः - प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि गुणों रूपी धागे से र्निबद्धाम् - रची गई या गूंथी गई भक्त्या - भक्तिपूर्वक मया - मेरे द्वारा रुचिर - रुचिकर अर्थात् सुन्दर वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् - अनेक प्रकार के वर्ण के पुष्पों से धत्ते - धारण करता है जनो यः - जो मनुष्य इह - इस संसार में कण्ठ-गताम् - कण्ठ में अजस्रम् - हमेशा तम् - उस मानतुङ्गम् - सम्मान से उन्नत अवशा - स्वतन्त्र रूप से समुपैति - प्राप्त होती है लक्ष्मीः - स्वर्ग, मोक्ष आदि की विभूति आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभदेव की इस स्तुति को सम्पन्न करते हुए कहते हैं - जो इस गुणों की माला को अपने कण्ठ में धारण करता है, लक्ष्मी उस मानतुंग का वरण करती है। यहाँ मानतुंग के दो अर्थ हैं। रचना करने वाले आचार्...