भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 48 - अद्भुत, आश्चर्यजनक परिणाम देने वाली गुणों की माला)
भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श
श्लोक 48. अद्भुत, आश्चर्यजनक परिणाम देने वाली गुणों की माला
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मीः ।।48।।
स्तोत्र-स्रजम् - स्तोत्र रूपी माला को
तव - आपकी
जिनेन्द्र - हे जिनेन्द्र देव
गुणैः - प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि गुणों रूपी धागे से
र्निबद्धाम् - रची गई या गूंथी गई
भक्त्या - भक्तिपूर्वक
मया - मेरे द्वारा
रुचिर - रुचिकर अर्थात् सुन्दर
वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् - अनेक प्रकार के वर्ण के पुष्पों से
धत्ते - धारण करता है
जनो यः - जो मनुष्य
इह - इस संसार में
कण्ठ-गताम् - कण्ठ में
अजस्रम् - हमेशा
तम् - उस
मानतुङ्गम् - सम्मान से उन्नत
अवशा - स्वतन्त्र रूप से
समुपैति - प्राप्त होती है
लक्ष्मीः - स्वर्ग, मोक्ष आदि की विभूति
आचार्य मानतुंग भगवान् ऋषभदेव की इस स्तुति को सम्पन्न करते हुए कहते हैं -
जो इस गुणों की माला को अपने कण्ठ में धारण करता है, लक्ष्मी उस मानतुंग का वरण करती है। यहाँ मानतुंग के दो अर्थ हैं। रचना करने वाले आचार्य का नाम भी मानतुंग है और जो सम्मान के तुंग शिखर हैं, उसे भी मानतुंग कहा जाता है। जो सम्मान से, पूजा से उच्च स्थान को प्राप्त हो गया है, उसे मानतुंग कहते हैं। तुंग का अर्थ है - शिखर। इतना मान मिला कि व्यक्ति शिखर पर चला गया और सम्मान-लक्ष्मी स्वेच्छा से उसके पास चली गई, बिना किसी निमंत्रण के। लक्ष्मी भी सोचती है - मैं उस व्यक्ति का वरण करूँ, उसके पास रहूँ जो मानतुंग है। जो गले में फूलों की नहीं, वीतराग के गुणों की माला पहनता है; उस के पास लक्ष्मी स्वयं ही चली आती है।
ऐसी माला कैसे बनाई गई है? आचार्य कहते हैं - हे भगवन्! मैंने आपकी स्तुति की यह माला बनाई है। मैंने 48 श्लोकों के माध्यम से आपका स्तवन किया और यह आपके गुणों की माला बन गई। इस माला को पिरोने के लिए एक धागे की भी आवश्यकता होती है। वह धागा है - वीतराग भगवान् के गुण! गुण का एक अर्थ है - विशेषता और दूसरा अर्थ है - धागा या डोरा। यहाँ गुण के दोनों अर्थ प्रयोग में लाए गए हैं।
दुनिया में सबसे ऊँचा पद है - वीतराग और सबसे बड़ा गुण है - वीतरागता। लेकिन हृदय में जब वीतरागता आती है तो ऊँचा-नीचा, बड़ा-छोटा; ये शब्द समाप्त हो जाते हैं। न कोई ऊँचा रहता है न नीचा, न कोई बड़ा रहता है न कोई छोटा। सब एक समान भूमिका में आ जाते हैं। फिर भी व्यवहार की भाषा में यह कह दिया जाता है कि इस दुनिया में वीतराग से बड़ा कोई नहीं है। वीतराग से अधिक न कोई सुखी है, न कोई अभय है, न कोई तनाव-मुक्त है। न उसे कभी अनिद्रा की बीमारी सताती है, न काल्पनिक भय दुःखी कर सकता है। न भय, न शोक, न घृणा, न राग और न द्वेष; वह इन सब झंझटों से मुक्त होकर चेतना की सर्वोच्च भूमिका पर चला जाता है।
आचार्य मानतुंग कहते हैं - उन वीतरागता के गुणों का मैंने धागा बनाया है। उन गुणों की स्तुति के मोती उसमें पिरोए हैं। एक मालाकर का उद्देश्य होता है - व्यवसाय के रूप में माला बनाने का। मेरे द्वारा बनाई गई यह माला सांसारिक लाभ प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु मेरी भक्ति के परिणामस्वरूप निर्मित हुई है। जहाँ भक्ति और श्रद्धा नहीं होती, वह स्तुति रुचिकर नहीं बन सकती। उसमें रस का समावेश तभी होता है जब वह हृदय की गहराइयों से बनती है।
एक रसोइया भी भोजन बनाता है और एक पत्नी भी अपने पति के लिए भोजन बनाती है। पर दोनों के बनाए गए भोजन की मिठास में अन्तर होता है। रसोइया व्यावसायिक दृष्टि से भोजन बनाता है जबकि पत्नी के मन में प्रीति का भाव होता है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो अन्तर साफ दिखाई देगा।
जो दृष्टि, जो भक्ति व श्रद्धा एक भक्त की भगवान् के प्रति होती है, वह एक वेतनभोगी पुजारी की नहीं हो सकती।
आचार्य कहते हैं - इस माला में अनेक सुन्दर वर्ण वाले नाना प्रकार के फूल हैं। रुचिर वर्ण के दो अर्थ हैं - सुन्दर रंग और सुन्दर अक्षर। इस माला में ऐसे अक्षरों का विन्यास व संयोजन किया गया है जो स्तोत्रमाला की सुन्दरता में अनन्त गुणा वृद्धि कर रहे हैं। इसका एक भी अक्षर ऐसा नहीं है जो अपने आप में मंत्र न हो। इस स्तुति का प्रत्येक अक्षर मंत्र है। इसीलिए यह भक्तामर स्तोत्र इतना शक्तिशाली व कल्याणकारी बन गया है।
विचित्र प्रकार के वर्ण-पुष्प और गुणों के धागे से जो स्तुति रूपी माला मैंने बनाई है, यह माला जो व्यक्ति निरन्तर अपने कण्ठ में पहनता है अर्थात् उसे कण्ठस्थ कर लेता है, उसके पास मोक्ष रूपी लक्ष्मी अपने आप चली आती है।
इस प्रकार आचार्य मानतुंग सबके लिए मंगल भावना कर रहे हैं। इस माला को पहनने के लिए केवल भक्ति व श्रद्धा की आवश्यकता है। जो पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से इसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसकी अभय-चेतना हमेशा जागृत रहती है और वह संसार में असंभव से असंभव कार्य करने में सक्षम हो सकता है। इसमें कोई संशय नहीं है।
हे जिनेन्द्र! मैंने तुम्हारे गुणों से भक्ति पूर्वक यह स्तोत्र रूपी माला बनाई है, जो रुचिकर लगने वाले वर्ण रूपी विचित्र पुष्पों वाली है। जो मनुष्य अनवरत इस माला को गले में धारण करता है, वह उच्च मान को प्राप्त करता है और सांसारिक लक्ष्मी ही नहीं, मोक्ष रूपी लक्ष्मी भी विवश हो कर स्वयं उसके पास आ जाती है।
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
भक्तामर-महिमा
श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रातः, भक्ति मन लाई। सब संकट जाएं नशाई।।
जो ज्ञान-मान मतवारे थे, मुनि मानतुंग से हारे थे।
उन चतुराई से, नृपति लिया बहकाई। सब संकट..........
मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था।
मुनि वीतराग को, आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट..........
उपसर्ग घेर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था।
हथकड़ी-बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट..........
मुनि कारागृह भिजवाए थे, अड़तालिस ताले लगाए थे।
क्रोधित नृप बाहर, पहरा दिया बिठाई। सब संकट..........
मुनि शान्त भाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था।
हो ध्यान मग्न, भक्तामर दिया बनाई। सब संकट..........
सब बन्धन टूट गए मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके।
कारागृह से आ, बाहर दिए दिखाई। सब संकट..........
राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था।
मुनि के चरणों में, अनुपम भक्ति दिखाई। सब संकट..........
जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋषभ चरण चित धरता है।
जो ऋद्धि-मंत्र का, विधिवत् जाप कराई। सब संकट..........
भय विघ्न उपद्रव टलते हैं, विपदा के दिवस बदलते हैं।
सब मन वांछित हो पूर्ण, शांति छा जाई। सब संकट..........
जो वीतराग आराधन है, आतम उन्नति का साधन है।
उससे प्राणी का, भव बन्धन कट जाई। सब संकट..........
कौशल सुभक्ति को पहचानो, संसार-दृष्टि बन्धन जानो।
लो भक्तामर से, आत्म ज्योति प्रगटाई। सब संकट जाएं नशाई।
।।इति भक्मातर स्तोत्र।।
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