बारह भावना

मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली

मंगतराय जी कृत बारह भावना

(पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर)

“इस भव तरु का मूल इक, जानहुं मिथ्या भाव,

ताको करि निरमूल अब, करिहों मोक्ष उपाव।”

हे भव्य जीवों! इस संसार रूपी वृक्ष की जड़, मिथ्या भाव अर्थात् झूठी मान्यताओं को ही जानो। उन्हीं के कारण हमारा यह संसार फल-फूल रहा है। यदि हम जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना चाहते हैं तो हमें मोक्ष का उपाय करना चाहिए।

अपनी मान्यताओं को सही मार्ग पर लाना सम्यक्त्व कहलाता है। संसार रूपी वृक्ष को जड़ सहित नष्ट करने का एकमात्र यही उपाय है और वह है जिनागम में वर्णित बारह भावनाओं का चिंतन और मनन।

बारह भावनाओं का चिंतन आरम्भ करने से पहले हमें स्वयं से कुछ प्रश्न पूछने होंगे।

1. क्या हमें यह संसार दुःखों का घर दिखाई देता है जिसमें वास्तव में सुख नहीं, सुख का आभास होता है?

हाँ, हाँ, उत्तर दो न!

हाँ!.. जिन्हें हम सुख मानते हैं, वे केवल सुखाभास ही हैं। तभी तो नानक जी ने कहा था - ‘नानक दुखिया सब संसार’।

2. क्या हम इन दुःखों से मुक्ति पाना चाहते हैं?

हाँ!.. क्यों नहीं? भला दुःखों से छुटकारा पाना किसे अच्छा नहीं लगेगा!

3. क्या हमने अब तक इसके लिए कोई उपाय किया है?

देखो! .......सोच कर उत्तर देना।

यदि हमारा उत्तर ‘हाँ’ है, तो उस कार्य में और अधिक समय लगाने की आवश्यकता है और यदि हमारा उत्तर ‘न’ में है तो देर किस बात की?

जीवन में सांसों की डोर कब हाथ से छूट जाए, कोई नहीं बता सकता।

4. क्या हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है?

विडम्बना तो यही है कि हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान ही नहीं है। हम अपने शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं। सुबह से शाम तक इसी की सेवा में लगे रहते हैं। इसे खिलाना, पिलाना, अच्छे-अच्छे वस्त्रों व आभूषणों से सजाना और उसी में आनंद मनाते रहना, इसी में अपने जीवन का अमूल्य समय नष्ट कर देते हैं।

अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने से पहले हमें द्रव्य, गुण और पर्याय के विषय में ज्ञात होना चाहिए।

गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। द्रव्य की पर्याय बदलती रहती है लेकिन उसके गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता।

जैसे स्वर्ण (सोना) एक मूल्यवान द्रव्य है। इसमें चमकीलापन होता है जो पीले रंग की आभा लिए हुए होता है। जब हम इससे आभूषण बनाते हैं तो इसकी पर्याय कंगन, गले का हार, अंगूठी आदि में बदल जाती है लेकिन इसमें स्वर्ण (सोने) के शाश्वत गुण ज्यों-के-त्यों विद्यमान रहते हैं। हम कंगन को तोड़ कर चूड़ी में बदल दें तो भी इसमें वही स्वर्ण के गुण रहेंगे।

ऐसे ही हमारा शरीर अपनी पर्याय बदलता रहता है जिसमें जीवत्व के सभी गुण विद्यमान रहते है। फिर चाहे वह हाथी का शरीर मिले या चींटी का, मनुष्य का शरीर मिले या जानवर का।

हमें यह भी ज्ञात होना चाहिए कि जो पर्याय उत्पन्न होती है, उसका व्यय अर्थात् नष्ट होना या परिवर्तित होना भी निश्चित है। संसार में किसी भी शक्ति में इतना सामर्थ्य नहीं है जो उसके व्यय को रोक सके।

इसी प्रकार हमारा मनुष्य जीवन भी एक पर्याय है जिसका उत्पाद हुआ है। उत्पाद और व्यय के सिद्धांत के अनुसार इसका व्यय भी अवश्य होगा। आज नहीं तो कल होगा और कल नहीं तो परसों होगा। इसमें बरसों लगने वाले नहीं हैं।

लेकिन इसका जीवत्व गुण तो कभी नष्ट होने वाला है नहीं। हाँ!.... पर्याय बदलने से कोई रोक नहीं सकता।

जब हम उत्पाद और व्यय के सिद्धांत को भली प्रकार समझ चुके हैं तो हमें मृत्यु का भय कैसा?

यह हमारा सौभाग्य है कि हम जिस कुल में पैदा हुए हैं, उस में आचार्यों द्वारा लिखे गए ग्रंथों में 12 भावनाएं और उनके द्वारा प्रदान किया गया मोक्ष का मार्ग हमें उपलब्ध है। यही नहीं, हमें उनको समझने और अपने जीवन में उतारने की बुद्धि भी प्रदान की गई है।

आज के संकट के समय में कोई यह समझे कि मैं बिना अध्यात्म के अपने अस्थिर मन को स्थिर कर लूँगा तो यह उसकी भूल है। संसार में कौन-सा ऐसा प्राणी है जिसे मृत्यु से भय न लगता हो? किन्तु जिनागम में अपने मन को स्थिर रखने के लिए 12 भावनाओें का चिंतन करने का श्रेष्ठ उपाय बताया गया है।

हमें अपनी पर्याय के नष्ट होने की चिंता करने के स्थान पर यह चिंतन करना चाहिए कि हम हर परिस्थिति में समता भाव कैसे रख सकते हैं।

भूधरदास जी ने 12 भावना में कहा है -

“राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार,

मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार।”

चाहे राजा हो या रंक, महाराणा हो या छत्रपति, अपनी बारी आने पर सभी को एक-न-एक दिन मरना ही है।

हम अपने आप को क्या मानते हैं? हमारी सत्ता किससे है?

हमारा अस्तित्व इस पुद्गल (नाशवान) शरीर से है या आत्मा के जीवत्व गुण से?

यदि नाशवान शरीर से मानते हैं तो उस पर्याय को तो एक दिन नष्ट होना ही है। जो उत्पन्न हुआ है, उसका मरण निश्चित है।

यदि हम स्वयं को एक अनन्त गुणों के धारी, अनादि काल से अनन्त काल तक रहने वाले जीव तत्त्व मानते हैं तो हमारा न उत्पाद होता है और न व्यय। इसलिए हमारा तो मरण हो ही नहीं सकता।

इस प्रकार समस्त भयों को त्याग कर हमें अपना उपयोग मात्र दो स्थानों पर लगाना चाहिए। एक तो अपने स्वरूप को समझने में और दूसरे मोक्ष मार्ग पर चल कर मुक्ति को प्राप्त कर चुके जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करने में।

‘जुगल जी’ ने कहा है -

“भव वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर-भर देखा,

मृग-सम मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा।”

इस संसार में किसी प्राणी को आज तक सुख की रेखा दिखाई नहीं पड़ी। हर सुख मृग-तृष्णा की भांति एक छलावा मात्र ही है।

पंडित मंगतराय जी द्वारा लिखित 12 भावना में वैराग्य की भावना के साथ-साथ अध्यात्म का भी मिश्रण है।

इसमें आरम्भ में श्री अरिहंत भगवान को नमन किया गया है -

बंदूं श्री अरहंत पद, वीतराग विज्ञान,

वरणूं बारह भावना, जग जीवन हित जान। (1)

मैं श्री अरिहंत भगवान को वंदन करता हूँ। वीतराग विज्ञान को नमस्कार करता हूँ।

मैं 12 भावना का वर्णन करना आरम्भ करता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह मेरे लिए और जगत के जीवों के लिए हितकारी है।

प्रायः प्रत्येक ग्रंथ के आरम्भ में अरिहंतो को व सिद्धों को नमस्कार किया जाता है। विद्वान या आचार्य जब कोई बात बोलते हैं या लिखते हैं तो अपनी बात की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए अरिहंतो को व सिद्धों को नमस्कार करते हैं।

(विष्णुपद छन्द)

कहाँ गए चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा।

कहाँ गए वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा।

हमारे गुरु दयालु होकर हमें मोहरूपी नींद से जगाने के लिए उपदेश दे रहे हैं। जब हम अपने अतीत की ओर देखते हैं तो वहाँ चक्रवर्तियों का अपार वैभव दिखाई देता है, जिन्होंने सारे भरतखण्ड को जीत लिया था। वहाँ पुराण-पुरुष राम और लक्ष्मण दिखाई देते हैं जिन्होंने बलशाली रावण को भी मार डाला था। आज वे सब कहाँ गए?

“छोड़े चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग साथी।

कोड़ी अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी।”

चक्रवर्ती की अपार सम्पदा में 14 रत्न, 9 निधियाँ, 18 करोड़ घोड़े, 84 लाख हाथी के अतिरिक्त अथाह सम्पत्ति, 96 हज़ार रानियाँ व अनेक संगी साथी होते हैं। वे 6 खण्ड के अधिपति होते हैं। लेकिन जब आत्म-कल्याण का मार्ग मिला तो उन्होंने सारी सम्पत्ति जीर्ण तृण (तिनके) के समान त्याग दी।

कहाँ कृष्ण रुक्मिणि सतभामा, अरु संपत्ति सगरी।

कहाँ गए वह रंगमहल अरु, सुवरण की नगरी। (2)

वे पुराणों में वर्णित महान् पुरुष कृष्ण और उनकी पत्नियाँ रुक्मिणी और सत्यभामा कहाँ गई जो उनके साथ स्वर्ण नगरी द्वारिका में रहती थी?

उनका रंगमहल और सारी सम्पत्ति भी अब कहीं नहीं दिखाई दे रही।

नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रण में।

गए राज तज पाण्डव वन को, अगनि लगी तन में।

वे लोभी कौरव भी नहीं रहे जो पाण्डवों को 5 गाँव तक देने को तैयार नहीं थे। उन्होंने युद्ध में लड़ कर मरना स्वीकार कर लिया पर अपना लालच नहीं छोड़ा।

वे पाण्डव भी नहीं रहे जो सारी उम्र न्याय के लिए लड़ते रहे जिसके लिए उन्हें वनवास में भी जाना पड़ा। सबको संसार की अग्नि में जलना पड़ा।

मोह-नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को।

हो दयाल उपदेश करैं, गुरु बारह भावन को।। (3)

हे चेतन! अब तो अपनी मोह की निद्रा से जागो। हमारे पास थोड़ी-सी भी सम्पत्ति हो जाती है तो हम स्वयं को किसी चक्रवर्ती से कम नहीं समझते। क्या यह सम्पत्ति और परिवारजन स्थायी रूप से हमारे साथ रहने वाले हैं ?

एक बार एक राजा गहरी नींद में सो रहा था। सोते-सोते उसने स्वप्न देखा कि वह रानी के साथ बहुत बड़े महल में निवास कर रहा है और उसके सात राजकुमार भी आनंद से उसके साथ रह रहे हैं।

राजा अपने राजकुमारों को बहुत प्यार करता है।

एक दिन वे सातों राजकुमार वन में भ्रमण करने के लिए जाते हैं। वहाँ अचानक तेज़ आँधी-तूफान आने लगता है। वे सातों राजकुमार उस आँधी-तूफान में फँस जाते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है।

जब यह समाचार राजमहल में पहुँचता है तो वहाँ कोहराम मच जाता है। रानी के साथ-साथ राजा का भी रो-रो कर बुरा हाल हो जाता है।

उसी समय जिस महल में वह सोया हुआ यह स्वप्न देख रहा था, वहाँ उस की रानी आकर उसे ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगती है कि उठो! उठो!! अपना इकलौता राजकुमार महल की छत से नीचे गिर कर मर गया है। हाय! अब हम क्या करेंगे?

राजा तुरन्त उठकर खड़ा हुआ और बोला कि हमारे तो सात राजकुमार थे न! उनकी भी तो मृत्यु हो गई।

रानी ने सोचा कि सदमे से राजा पागलों जैसी बातें करने लगा है। रानी ने बहुत समझाया कि नहीं! अपना तो एक ही राजकुमार था।

राजा ने पंडित को बुलवाया और उसे अपने स्वप्न का हाल बताते हुए पूछा कि बताओ! मैं किस का शोक मनाऊँ? स्वप्न में मिले राजकुमार भी मुझे उतने ही वास्तविक लग रहे थे जितना कि यह इकलौता राजकुमार।

पंडित जी ने कहा कि राजन्! वास्तविक तो न यह है और न वह था। वह बंद आँख का सपना था जो आँख खुलने पर ओझल हो गया और यह खुली आँख का सपना है जो आँख बंद हो जाने पर ओझल हो जाएगा।

इसलिए गुरु हम पर दया करके समझाते हैं कि मोह की नींद से जागो और सोचो कि यह मनुष्य जन्म हमें सोने के लिए नहीं, अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए मिला है ताकि हम जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा पा सकें।

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)