बारह भावना (1 - अथिर भावना)

मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली

मंगतराय जी कृत बारह भावना

(पंडित सौरभ जी शास्त्री, इन्दौर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर)

1. अथिर भावना

सूरज चाँद छिपे निकलै, ऋतु फिर फिर कर आवै।

प्यारी आयू ऐसी बीतै, पता नहीं पावै।

पंडित मंगत राय जी ने दिन-प्रतिदिन हमारे सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं के उदाहरण देकर हमें समझाने का प्रयास किया है कि हमारा जीवन कितना क्षण-भंगुर है!

हम देखते हैं कि प्रातःकाल सूरज निकलता है तो चाँद आँखों से ओझल हो जाता है और रात्रि में जब सूरज छिप जाता है तो चन्द्रमा का उदय हो जाता है। सूरज और चाँद छिपते रहते हैं और निकलते रहते हैं। यही क्रम सदा चलता रहता है।

गर्मी की ऋतु समाप्त होती है तो वर्षा ऋतु आती है, वर्षा-ऋतु के बाद शीत-ऋतु आ जाती है। इसी प्रकार पल दिनों में, दिन महीनों में और महीने वर्षों में बदलते रहते हैं तथा हमारी प्यारी आयु कैसे समाप्त हो जाती है, इसका हमें पता ही नहीं चलता।

हाँ..... यह अलग बात है कि संकट की घड़ियाँ बहुत धीरे-धीरे बीतती हैं और सुख का समय पंख लगा कर उड़ने लगता है। सांसों की पूंजी तो गिनकर ही मिलती हैं न! इसलिए हमें यह तो पता होना चाहिए कि हमें इस पूंजी से क्या व्यापार करना है?

हमें अपने जीने का उद्देश्य ही नहीं मालूम। हम इस दुनिया में क्या करने आए हैं, यह भी नहीं पता। बस! पूरी दुनिया धन-सम्पत्ति, भोग-वैभव का सामान जुटाने के लिए दौड़ लगा रही है और हम भी उसी दौड़ में बिना सोचे-समझे शामिल हो जाते हैं। हमें ऐसा लगने लगता है कि इसके अलावा भी कोई जीवन की कल्पना हो सकती है क्या?

हमें इस बात का भी ज्ञान नहीं है कि यदि अभी इसी समय हमारा मरण हो गया तो हमारे विचलित भावों को, उसके परिणामों को संभालने वाला कौन है? यूँ ही दौड़ते-दौड़ते एक दिन आदमी का मरण हो जाता है।

“जन्म से लेकर मरण तक दौड़ता है आदमी,

दौड़ते ही दौड़ते दम तोड़ता है आदमी।”

“सुबह पलना, शाम अर्थी और खटिया दोपहर,

तीन लकड़ी चार दिन में तोड़ता है आदमी।”

इसी दौड़ में हमारी प्यारी आयु एक दिन समाप्त हो जाती है और हमारे हाथ पश्चाताप के सिवाय कुछ भी नहीं आता। इसमें जीत नहीं केवल हार ही हार है।

पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहीं हटता।

स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों, आरे सों कटता। (4)

मंगत राय जी दूसरा उदाहरण देते हैं नदी का। नदी पहाड़ों से निकलती है और नीचे ही नीचे बहती चली जाती है। यदि हम चाहें कि उसका पर्वत से गिरा हुआ पानी फिर से ऊपर पर्वतों की ओर बहने लगे तो यह असम्भव है।

जैसे नदी का पानी दोबारा ऊपर नहीं बह सकता, उसी प्रकार एक बार गया हुआ समय फिर से लौटाया नहीं जा सकता। अतः समय रहते समय को पहचानो। मुश्किल तो यह है कि जानते सब हैं पर मानते नहीं हैं।

तीसरा उदाहरण देते हैं आरी से कटने वाली लकड़ी का। आपने देखा होगा कि जब एक लकड़ी काटने वाला अपनी आरी से लकड़ी काटना आरम्भ करता है तो आरी उस लकड़ी पर आगे-पीछे चलती रहती है और उस लकड़ी में से थोड़ा-थोड़ा बुरादा निकल कर ज़मीन पर गिरता रहता है लेकिन लकड़ी कहीं से भी कटती हुई नहीं दिखाई देती। बुरादा देख कर ही अंदाज़ा लगता है कि यह बुरादा लकड़ी में से ही निकल रहा है। जैसे ही आरी लकड़ी के अंतिम छोर पर पहुँचती है, वह लकड़ी तुरन्त दो भागों में विभक्त हो जाती है। उसमें एक क्षण का भी विलम्ब नहीं होता।

हमारा शरीर भी एक लकड़ी के समान है जो सांसों की आरी के द्वारा प्रतिपल काटा जा रहा है। शरीर में से कुछ शक्ति बुरादे के रूप में हर पल गिरती रहती है, चाहे वह हमें दिखाई दे या न दे। यदि आप अपनी 10 साल पहले की फोटो का आज की फोटो से मिलान करोगे तो अन्तर स्पष्ट नज़र आएगा। यह है आयु के पल-पल घटने का प्रमाण!

ओस-बूंद ज्यों गलै धूप में, वा अंजुलि पानी।

छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझै प्रानी।

हमारे विद्वानों को अध्यात्म के साथ-साथ साहित्य-लेखन का भी विशेष ज्ञान होता है। तभी तो वे कठिन विषय को भी सरल भाषा में समझाने में सक्षम होते हैं।

अगला उदाहरण दिया है - वृक्षों के पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूंदों का।

आपने देखा होगा कि सूर्य निकलने से पहले वृक्ष के पत्तों पर रात के समय गिरने वाली ओस की बूंदें दिखाई देती हैं जो मोती के समान चमकती हैं।

लेकिन जैसे ही सूर्य की किरणें इन ओस की बूंदों पर पड़ती हैं तो उनकी तपिश से वे बूंदें वाष्प बन कर उड़ जाती हैं। अब उनका दिखाई देना नामुमकिन है।

अगला उदाहरण दिया गया है - अंजुलि में भरे हुए पानी का। अंजुलि को चाहे कितना ही संकुचित करने की कोशिश की जाए लेकिन उसमें कोई न कोई छोटा-सा छिद्र रह ही जाता है जिससे एक-एक बूंद पानी रिसता रहता है और एक समय ऐसा आता है जब हमें अपनी अंजुलि खाली दिखने लगती है। हमें पता भी नहीं चलता और सारा पानी नीचे बह जाता है।

इसी प्रकार एक-एक क्षण करके हमारा यौवन क्षीण हो रहा है और हम मृत्यु के निकट जाते जा रहे हैं। यही बात प्राणियों की समझ में नहीं आ रही।

इंद्रजाल आकाश नगर सम, जग-संपत्ति सारी।

अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी। (5)

अगला उदाहरण दिया गया है - इंद्रजाल का। आपने इंद्रजालिया या जादूगर को खेल दिखाते हुए देखा होगा। हाथ की सफ़ाई से और आँखों को भ्रमित करके वह आकाश में एक सुन्दर नगरी की रचना कर देता है जो हमें वास्तविक प्रतीत होती है। जैसे ही वह अपना इंद्रजाल समेटता है, वह नगरी पल भर में ही गायब हो जाती है।

इसी प्रकार जब हमारे पुण्य कर्मों का इंद्रजाल अपनी माया को समेटना शुरू करेगा तब संसार में दिखाई देने वाली धन-सम्पत्ति भी इंद्रजाल के समान एक दिन देखते ही देखते गायब हो जाएगी। इस सच्चाई को जानो और समझो।

“जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं।”

सभी प्राणियों को, नर, नारी, बूढ़े, जवान, सभी को संसार की अनित्यता पर विचार करना होगा।

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