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Showing posts from January, 2021

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 18 - अपूर्व चन्द्रमा)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 18 . अपूर्व चन्द्रमा नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकांति विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम् ॥ 18 ॥ नित्य उदयम् - सदा उदय रहने वाला दलित-मोह-महान्धकारम् - मोह रूपी महा अन्धकार को नष्ट करने वाला गम्यं न राहुवदनस्य - राहु के मुख के द्वारा ग्रसे जाने के अयोग्य न वारिदानाम् - मेघों द्वारा छिपाए जाने के अयोग्य विभ्राजते - शोभित होता है तव मुख-अब्जम् - आपका मुख-कमल रूपी अनल्पकांति - अधिक कांति वाला विद्योतयत् - प्रकाशित करने वाला जगत् - संसार को अपूर्व शशांकबिम्बम् - अपूर्व चन्द्रमण्डल सूर्य से तुलना करने के बाद आचार्य का ध्यान चन्द्रमा पर केन्द्रित हुआ। शायद पहले चन्द्रमा से तुलना करते और वह सटीक नहीं बैठती तो सूर्य की उपमा आचार्य को सही लगने लगती। पर सूर्य से तुलना ही सही नहीं बैठी तो चन्द्रमा की ज्योति तो उसके सामने और भी फीकी लगेगी। हो सकता है कि किसी विशेष प्रयोजन से ही आचार्य ने चन्द्रमा से तुलना पहले नहीं की। आचार्य कहते हैं कि सूर्य दिन में अस्त हो जाता है, पर चन्द्रमा दिन में भी अस्त नहीं...

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 17 - अपूर्व सूर्य)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 17 . अपूर्व सूर्य नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति । नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥ 17 ॥ न अस्तम् - अस्त नहीं कदाचित् - कभी उपयासि - होते हो न राहुगम्यः - न राहु से ग्रसे जाते हो स्पष्टी करोषि - प्रकाशित करते हो सहसा - शीघ्र ही युगपत् - एक साथ जगन्ति - तीनों लोकों को न अम्भोधरोदर - न मेघों के द्वारा निरुद्ध-महा-प्रभावः - आपका महाप्रभाव निरुद्ध होता है सूर्य अतिशायि-महिमा असि - सूर्य से भी अधिक महिमा करते हो मुनीन्द्र! - हे मुनियों के इन्द्र! लोके - संसार में संसार में सदैव शक्ति और प्रकाश की पूजा होती है। आचार्य ने दिव्य प्रकाश व अलौकिक ज्योति की स्तुति की है। उन्होंने जाना कि ऋषभदेव ज्योतिर्मय हैं। आचार्य ने जब दीपक से उनकी ज्योति की तुलना की तो उन्होंने पाया कि भगवान तो अपूर्व दीप के समान दैदीप्यमान हैं। आदिनाथ भगवान के व्यक्तित्व के सामने सामान्य दीपक की आभा फीकी प्रतीत होने लगी। अब आचार्य का ध्यान सूर्य पर केन्द्रित हुआ। उन्होंने सोचा कि सूर्य पृथ्वी पर विचरण करने...

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 16 - निर्धूम ज्योति का उदय)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 16 . निर्धूम ज्योति का उदय निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः कृत्सनं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥ 16 ॥ निर्धूमवर्तिः - धुएँ और बत्ती से रहित अर्थात् निर्दोष प्रवृत्ति वाले आप अपवर्जिततैलपूरः - तेल से शून्य कृत्सनं - समस्त जगत् त्रयम् - तीनों लोकों को इदम् - इस प्रकटी करोषि - प्रकाशित कर रहे हो गम्यः न जातु मरुताम् - गम्य नहीं हो कभी वायु से अर्थात् वायु द्वारा कभी बुझाए नहीं जा सकते  चलिताचलानाम् - पहाड़ों को हिला देने वाली दीपः अपरः - अपूर्व दीपक त्वम् - तुम असि - हो नाथ! - हे स्वामिन्! जगत्प्रकाशः - संसार को प्रकाशित करने वाले जब राग पर पूर्णतया विजय प्राप्त हो जाती है तब निर्धूम ज्योति प्रकट होने लगती है। राग, द्वेष, कषाय आदि अंतरात्मा में अंधकार पैदा करने वाले तत्त्व हैं। इनसे तमोगुण की उत्पत्ति होती है। इसके विपरीत कषायों पर विजय प्राप्त करने से और वीतरागता धारण करने से अंतःकरण को प्रकाशमान करने वाले तत्त्व उत्पन्न होते हैं। मानतुंग आचार्य इसी आधार पर भगवान की स्तुति करते ...

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 15 - अविचल वीतरागता)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 15 . अविचल वीतरागता चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर् नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ।। 15 ।। चित्रं किम् - आश्चर्य ही क्या है अत्र - इस विषय में यदि ते - यदि आपका त्रिदशांग-नाभिः - देवांगनाओं के द्वारा नीतम् - लाया जा सका मनाक् अपि - थोड़ा भी मनः न - मन नहीं विकार-मार्गम् - विकार के मार्ग पर कल्पान्त-काल-मरुता - प्रलयकाल की पवन के द्वारा चलिताचलेन - पहाड़ों को हिला देने वाली किम् - क्या मन्दराद्रि-शिखरं - मेरु पर्वत का शिखर चलितं कदाचित् - हिलाया गया है कभी आचार्य मानतुंग स्तुति के क्रम में भगवान की अविचल वीतरागता और धैर्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो! आपने राग को जीत लिया है। आप वीतरागी बन गए हो। अब कोई भी परिस्थिति आपको विचलित नहीं कर सकती। देवांगनाओं और सुरांगनाओं के द्वारा किए गए प्रयास भी आपके मन को विकृत नहीं बना सकते। राग-मुक्त होने के बाद कोई व्यक्ति विचलित नहीं हो सकता। इसमें कोई आश्चर्य या विचित्रता नहीं है। राग को जीतकर ऋषभदेव की धृति अप्रकंप ब...

भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 14 - गुणों का भण्डार)

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भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 14 . गुणों का भण्डार सम्पूर्ण- मण्डल-शशांक-कला-कलाप शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति । ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥ 14 ॥ सम्पूर्ण मण्डल शशांक - सम्पूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब की कला-कलाप - कलाओं के समूह के समान शुभ्राः - स्वच्छ गुणाः - गुण त्रि-भुवनम् - तीनों लोकों को तव - आपके लंघयन्ति - लांघ रहे हैं/ फैल रहे हैं ये - जो संश्रिताः - आश्रित हैं त्रि-जगदीश्वरनाथम् - तीनों लोकों के नाथों के नाथ एकम् - एक कः - कौन तान् - उन्हें निवारयति - रोक सकता है सञ्चरतः - घूमते हुए यथेष्टम् - इच्छा के अनुसार एक आध्यात्मिक और चिन्तनशील साधक को प्रभु की गुणात्मकता का चिन्तन किए बिना संतोष नहीं मिलता। आचार्य मुख-मण्डल की सुन्दरता का वर्णन करते-करते उनके गुणों की गहराई में उतर गए। हे प्रभो! आपके गुण संपूर्ण चंद्र की कला के समूह के सदृश शुभ्र हैं। जब चंद्रमा की सब कलाएं एक स्थान पर इकट्ठी हो जाती हैं तो वह सकल चन्द्रमा बन जाता है और जब कलाएं बिखर जाती हैं तो उसकी सुन्दरता भी खंड-खंड हो जाती है। सकल चंद्र की कलाओं...