भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 18 - अपूर्व चन्द्रमा)
भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श श्लोक 18 . अपूर्व चन्द्रमा नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकांति विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम् ॥ 18 ॥ नित्य उदयम् - सदा उदय रहने वाला दलित-मोह-महान्धकारम् - मोह रूपी महा अन्धकार को नष्ट करने वाला गम्यं न राहुवदनस्य - राहु के मुख के द्वारा ग्रसे जाने के अयोग्य न वारिदानाम् - मेघों द्वारा छिपाए जाने के अयोग्य विभ्राजते - शोभित होता है तव मुख-अब्जम् - आपका मुख-कमल रूपी अनल्पकांति - अधिक कांति वाला विद्योतयत् - प्रकाशित करने वाला जगत् - संसार को अपूर्व शशांकबिम्बम् - अपूर्व चन्द्रमण्डल सूर्य से तुलना करने के बाद आचार्य का ध्यान चन्द्रमा पर केन्द्रित हुआ। शायद पहले चन्द्रमा से तुलना करते और वह सटीक नहीं बैठती तो सूर्य की उपमा आचार्य को सही लगने लगती। पर सूर्य से तुलना ही सही नहीं बैठी तो चन्द्रमा की ज्योति तो उसके सामने और भी फीकी लगेगी। हो सकता है कि किसी विशेष प्रयोजन से ही आचार्य ने चन्द्रमा से तुलना पहले नहीं की। आचार्य कहते हैं कि सूर्य दिन में अस्त हो जाता है, पर चन्द्रमा दिन में भी अस्त नहीं...