भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 16 - निर्धूम ज्योति का उदय)
भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श
श्लोक 16. निर्धूम ज्योति का उदय
निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः
कृत्सनं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥16॥
निर्धूमवर्तिः - धुएँ और बत्ती से रहित अर्थात् निर्दोष प्रवृत्ति वाले आप
अपवर्जिततैलपूरः - तेल से शून्य
कृत्सनं - समस्त
जगत् त्रयम् - तीनों लोकों को
इदम् - इस
प्रकटी करोषि - प्रकाशित कर रहे हो
गम्यः न जातु मरुताम् - गम्य नहीं हो कभी वायु से अर्थात् वायु द्वारा कभी बुझाए नहीं जा सकते
चलिताचलानाम् - पहाड़ों को हिला देने वाली
दीपः अपरः - अपूर्व दीपक
त्वम् - तुम
असि - हो
नाथ! - हे स्वामिन्!
जगत्प्रकाशः - संसार को प्रकाशित करने वाले
जब राग पर पूर्णतया विजय प्राप्त हो जाती है तब निर्धूम ज्योति प्रकट होने लगती है। राग, द्वेष, कषाय आदि अंतरात्मा में अंधकार पैदा करने वाले तत्त्व हैं। इनसे तमोगुण की उत्पत्ति होती है। इसके विपरीत कषायों पर विजय प्राप्त करने से और वीतरागता धारण करने से अंतःकरण को प्रकाशमान करने वाले तत्त्व उत्पन्न होते हैं।
मानतुंग आचार्य इसी आधार पर भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो! आप ज्योर्तिमय हैं। आप एक प्रकाशमान दीप के समान हैं। एक मिट्टी के दीपक को प्रज्वलित करने के लिए बाती और तेल की आवश्यकता होती है। जब वह दीपक जलता है तो उसमें से प्रकाश के साथ धुआं भी निकलता है। दीपक तो केवल एक सीमित स्थान को ही प्रकाशित कर सकता है। दीपक अपने प्रकाश से अपने आस-पास के थोड़े से भू-भाग को रोशनी दे सकता है। शेष भाग में तो अंधकार ही छाया रहता है।
दीपक की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हवा का तेज झोंका उसे बुझा कर चला जाता है। आचार्य कहते हैं कि मैं आपके दिव्य प्रकाश की तुलना एक साधारण दीपक से नहीं कर सकता। आप तो एक अपूर्व दीप हो, विलक्षण दीप हो।
अपूर्व दीप की क्या पहचान है?
हे प्रभो! आप ऐसे अपूर्व दीप के समान प्रकाशमान हो, जिसे तेल और बाती की आवयकता नहीं होती। मिट्टी का दीपक तो तेल समाप्त होने पर या बाती के जल जाने के बाद अंधकारमय हो जाता है, पर आपका प्रकाश शाश्वत रहता है। आपके प्रकाशित होने पर धुआं उठने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
निर्धूम दीप हो आप!
किसी कवि ने जलते हुए दीपक के साथ धुआं निकलते देख कर कहा -
यादृशं भुज्यते चान्नं, पच्यते जठराग्निना।
प्रदीपेन तमो भुक्तं, नीहारोपि च तादृशं।।
एक आदमी जैसा अन्न खाता है, वैसा ही निकालता है। जैसे दीपक अंधकार का भक्षण करता है और धुएं के रूप में कालिमा उगलता है। आचार्य कहते हैं कि भगवान ऋषभदेव की अंतरात्मा में कोई विकार नहीं है, अतः आप ऐसे दीप हैं जो निर्धूम है। आप दीपक की भांति एक सीमित भू-भाग को प्रकाशित नहीं करते। आपका दिव्य ज्ञान तीनों लोकों के सम्पूर्ण क्षेत्र से पाप के अंधकार को दूर करता है।
सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है कि आप अप्रकम्प दीप हैं। उसे उपसर्ग की कोई हवा या विकारों का तेज तूफान भी बुझा नहीं सकता। ये सभी गुण एक आध्यात्मिक व्यक्ति की उन्नति में सहायक होते हैं। इनका निरंतर विकास ही हमें मोक्ष-महल तक पहुँचा सकता है।
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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