भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श (श्लोक 17 - अपूर्व सूर्य)
भक्तामर : अंतस्तल का स्पर्श
श्लोक 17. अपूर्व सूर्य
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥17॥
न अस्तम् - अस्त नहीं
कदाचित् - कभी
उपयासि - होते हो
न राहुगम्यः - न राहु से ग्रसे जाते हो
स्पष्टी करोषि - प्रकाशित करते हो
सहसा - शीघ्र ही
युगपत् - एक साथ
जगन्ति - तीनों लोकों को
न अम्भोधरोदर - न मेघों के द्वारा
निरुद्ध-महा-प्रभावः - आपका महाप्रभाव निरुद्ध होता है
सूर्य अतिशायि-महिमा असि - सूर्य से भी अधिक महिमा करते हो
मुनीन्द्र! - हे मुनियों के इन्द्र!
लोके - संसार में
संसार में सदैव शक्ति और प्रकाश की पूजा होती है। आचार्य ने दिव्य प्रकाश व अलौकिक ज्योति की स्तुति की है।
उन्होंने जाना कि ऋषभदेव ज्योतिर्मय हैं। आचार्य ने जब दीपक से उनकी ज्योति की तुलना की तो उन्होंने पाया कि भगवान तो अपूर्व दीप के समान दैदीप्यमान हैं। आदिनाथ भगवान के व्यक्तित्व के सामने सामान्य दीपक की आभा फीकी प्रतीत होने लगी।
अब आचार्य का ध्यान सूर्य पर केन्द्रित हुआ। उन्होंने सोचा कि सूर्य पृथ्वी पर विचरण करने वाला बहुत बड़ा ज्योतिपुंज है। आचार्य इसी चिन्तन के साथ ही सूर्य के साथ भगवान की तुलना करने के लिए समुद्यत हुए। एक श्रेष्ठ कवि तुलना के लिए सबसे पहले प्रकृति के उपादानों का आश्रय लेता है। आचार्य ने जब सूर्य की विशेषताओं का विश्लेषण किया तो उनके सामने अनेक तथ्य उभर कर आए।
सूर्य जगत को प्रकाशित करने के लिए उदय होता है तो अस्त भी होता है।
सूर्य राहु का ग्रास बनता है और जब पूर्ण सूर्य ग्रहण होता है तो धरती पर अंधकार छा जाता है।
सूर्य का प्रकाश सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। पृथ्वी पर जब एक भाग में दिन होता है तो दूसरे भाग में रात होती है।
यद्यपि सूर्य बहुत तेजस्वी होता है पर आकाश में बादल छा जाने से सूर्य का तेज भी आवृत हो जाता है। कभी-कभी बादलों की सघनता से दिन में भी रात्रि का आभास होने लगता है। आचार्य ने सोचा कि सूर्य में इतनी तेजस्विता होने के बाद भी मैं आदिनाथ भगवान की तुलना सूर्य से कैसे करूँ?
आदिनाथ भगवान का तेज कभी अस्त नहीं होता, वे सतत प्रकाशमान रहते हैं।
वे कभी राहु का ग्रास नहीं बनते।
वे सूर्य की भांति सीमित क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते। उनका प्रकाश असीमित है।
वे कभी विकारों के बादलों से आच्छन्न नहीं होते।
आचार्य को सूर्य और आदिनाथ के गुणों में स्पष्ट अन्तर दिखाई दे रहा है।
इसीलिए आचार्य को इस श्लोक में कहना पड़ा -
हे प्रभो! मैं सूर्य के साथ आपकी तुलना नहीं कर सकता। आप न कभी अस्त होते हैं, न राहु के द्वारा ग्रस्त होते हैं। आप सम्पूर्ण विश्व को ही नहीं तीनों लोकों को एक साथ प्रकाशित करते हैं। सघन बादल भी आपके महा प्रभाव को अविरुद्ध नहीं कर सकते।
हे मुनीन्द्र! आपकी महिमा सूर्यातिशायी है। कभी आपने विचार किया है कि आदिनाथ का ज्ञान-प्रकाश कभी अस्त क्यों नहीं होता?
जब तक केवलज्ञानावरण है तब तक ज्ञान का उदय और अस्त होता रहता है। जब तक आवरण है, तब तक परिवर्तन होता रहता है। कभी कम, कभी अधिक। जब आवरण विलीन हो गया तो ज्ञान निरावृत्त हो गया और ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलने लगा। अतः उदय और अस्त होने का प्रश्न ही निःशेष हो गया।
दूसरी विशेषता है कि वह ज्ञान कभी राहु से ग्रस्त नहीं होता। राहु कृष्ण वर्ण का माना गया है। आगम में पाप, कृष्ण लेश्या वाला है। हे प्रभे! आपने राग और मोह का नाश कर दिया है। इसलिए दुष्कृत आपके निकट भी नहीं आ सकते। वीतरागी दुष्कृत्यों का ग्रास नहीं बन सकता।
आचार्य कहते हैं कि दो प्रकार के व्यक्ति ग्रहों द्वारा प्रभावित नहीं किए जा सकते। एक वे जो सर्वथा अकिंवन हों अर्थात् जिनके पास मेरा कहने को कुछ नहीं है, यहाँ तक कि अपना शरीर भी और दूसरे वे जिनका मोह-राग भाव समाप्त हो गया है। ऐसे वीतरागी महापुरुषों का कोई दुष्ट व्यक्ति या दुष्ट ग्रह कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
तीसरा तथ्य है - ज्ञानावरणी और मोहनीय कर्म का क्षय हो जाना। अस्तिकाय का बोध ज्ञान से होता है जिसने एक साथ सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित कर दिया है। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं (अस्ति), यह इसी ज्ञानातिशय की निष्पत्ति है।
चौथा तथ्य है - आपका ज्ञान मेघाच्छन्न नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि कोई शक्ति आपके ज्ञान-बल पर आवरण नहीं डाल सकती। दुनिया की कोई ताकत आपके केवलज्ञान में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। यह अनन्तवीर्य अर्थात् अनन्त शक्ति का प्रभाव है। चार घातिया कर्म दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म नष्ट हो गए हैं। अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य का प्रकाश चारों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा है।
हे प्रभो! मैं कहाँ आपकी तुलना सूर्य से करने चला था? सूर्य का तेज तो आपके सामने बहुत छोटा प्रतीत हो रहा है।
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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