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Showing posts from May, 2021

देवरति राजा की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर देवरति राजा की कथा देवरति नामक एक राजा अयोध्या में राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम रक्ता था। वह बहुत सुन्दर थी। राजा सदा उसी के नाद में लगे रहते थे। वे बहुत विषयासक्त थे। शत्रु बाहर से आकर राज्य पर आक्रमण करते, उसकी भी उन्हें कुछ परवाह नहीं थी। राज्य की क्या दशा है, इसकी उन्होंने कभी चिंता नहीं की, जो धर्म और अर्थ पुरुषार्थ को छोड़कर अनीति से केवल काम का सेवन करते हैं, सदा विषयवासना के ही पास बने रहते हैं, वे नियम से कष्टों को उठाते हैं। देवरति की भी यही दशा हुई। राज्य की ओर से उनकी ये उदासीनता मंत्रियों को बहुत बुरी लगी। उन्होंने राजा से राजकाज सम्हालने की प्रार्थना की, पर उसका फल कुछ नहीं हुआ। यह देखकर मंत्रियों ने विचारकर, देवरति के पुत्र जयसेन को अपना राजा नियुक्त किया और देवरति को उनकी रानी के साथ देश बाहर कर दिया। ऐसे काम को धिक्कार है, जिससे मान-मर्यादा धूल में मिल जाये और अपने को कष्ट सहना पड़े। देवरति अयोध्या से निकलकर एक भयानक वन में पहुँचे। रानी को भूख ने सताया, पास खाने को एक अन्न का कण तक नहीं। अब वे क्या करें ? इधर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, रानी भू...

यमपाल चांडाल की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर यमपाल चांडाल की कथा मोक्ष सुख के देने वाले श्री जिनभगवान् को धर्म प्राप्ति के लिये नमस्कार करके हम एक ऐसे चाण्डाल की कथा लिखते हैं, जिसके व्रत-संयम की देवों तक ने पूजा की है। काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “नन्दीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा।” वहीं एक सेठ पुत्र रहता था। उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे माँस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। उससे एक दिन भी बिना माँस भक्षण किए बिना नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्तरीति से राजा के बगीचे में गया। वहाँ राजा का खास मेंढा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे मांस को खाकर वह उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ गया। सच है - व्यसनेन युती जीवः सत्सं पापपरो भवेत्। अर्थात् - व्यसनी मनुष्य नियम से पाप में सदा तत्पर रहा करते हैं। दूसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेंढा नहीं देखा और उसके लिये बहुत खोज करने पर भी जब उसका पता नहीं चला, तब उ...

सती नीली की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर सती नीली की कथा नीली ने चौथे अणुव्रत ब्रह्मचर्य की रक्षा करके जिन धर्म में प्रसिद्धि प्राप्त की है। पवित्र भारत वर्ष में लाट देश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था। जिनधर्म का वहाँ खूब प्रचार था। वहाँ की प्रजा अपने धर्म-कर्म पर बड़ी दृढ़़ थी । इससे इस देश की शोभा को उस समय कोई देश नहीं पा सकता था। जिस समय की यह कथा है तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था। यह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकार की योग्य और कीमती वस्तुओं से पूर्ण था। इसका राजा तब वसुपाल था और वह सदा उसी काम में प्रयत्नशील रहता था जिससे उसकी प्रजा सुखी हो, धनी हो, सदाचारी हो, दयालु हो। यहीं एक सेठ रहता था। उसका नाम था जिनदत्त। जिनदत्त की शहर के सेठ साहूकारों में बड़ी इज्जत थी। वह धर्मशील और जिनभगवान का भक्त था। दान पूजा स्वाध्याय आदि पुण्यकर्मों को वह सदा नियमानुसार किया करता था। उसकी धर्मप्रिया का नाम जिनदत्ता था। जैसा जिनदत्त धर्मात्मा और सदाचारी था, उसकी गुणवती साध्वी स्त्री भी उसी के अनुरूप थी और इसी से इनके दिन बड़े सुख के साथ बीतते थे। इन्होंने अपने गृहस्थ सुख को स्वर्गसुख से भी कहीं बढ़कर बना लिया था। जिन...

कड़वा वचन

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर कड़वा वचन सुंदर नगर में एक सेठ रहते थे। उनमें हर गुण था - नहीं था तो बस खुद को संयत में रख पाने का गुण। जरा-सी बात पर वे बिगड़ जाते थे। आसपास तक के लोग उनसे परेशान थे। खुद उनके घर वाले तक उनसे परेशान होकर बोलना छोड़ देते। किंतु, यह सब कब तक चलता। वे पुन: उनसे बोलने लगते। इस प्रकार काफी समय बीत गया, लेकिन सेठ की आदत नहीं बदली। उनके स्वभाव में तनिक भी फर्क नहीं आया। अंततः एक दिन उसके घरवाले एक साधु के पास गये और अपनी समस्या बताकर बोले - “महाराज! हम उनसे अत्यधिक परेशान हो गये हैं, कृपया कोई उपाय बताइये।” तब, साधु ने कुछ सोचकर कहा - “सेठ जी को मेरे पास भेज देना”। “ठीक है, महाराज” कहकर सेठ जी के घरवाले वापस लौट गये। घर जाकर उन्होंने सेठ जी को अलग-अलग उपायों के साथ उन्हें साधु महाराज के पास ले जाना चाहा। किंतु, सेठ जी साधु-महात्माओं पर विश्वास नहीं करते थे। अतः वे साधु के पास नहीं आये। तब एक दिन साधु महाराज स्वयं ही उनके घर पहुंच गये। वे अपने साथ एक गिलास में कोई द्रव्य लेकर गये थे। साधु को देखकर सेठ जी की त्योरियां चढ़ गयी। परंतु घरवालों के कारण वे चुप रहे। साधु महा...

वसुराजा की कथा (भाग - 2)

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर वसुराजा की कथा (भाग - 2 ) एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा। उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर वसु को बचा लिया। वसु ने अपनी बचाने वाली गुरुमाता से कहा - माता, तुमने मुझे बचाया इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ। कहो! तुम्हें क्या चाहिए ? वही लाकर मैं तुम्हें प्रदान करूँगा। स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा - पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब मागूँगी। तू मेरे इस वर को अभी अपने ही पास रख। एक दिन क्षीरकदम्ब के मन में प्रकृति की शोभा देखने की उत्कंठा हुई। वह अपने साथ तीनों शिष्यों को भी इसलिए ले गया कि उन्हें वहीं पाठ भी पढ़ा दूँगा। वह एक सुन्दर बगीचे में पहुँचा। वहाँ कोई अच्छा पवित्र स्थान देखकर वह अपने शिष्यों को बृहदारण्य का पाठ पढ़ाने लगा। वहीं दो अन्य ऋद्धिधारी महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे। उनमें से छोटे मुनि ने क्षीरकदम्ब को पाठ पढ़ाते देखकर बड़े मुनिराज से कहा - प्रभो! देखिए कैसे पवित्र स्थान में उपाध्याय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा है। गुरु ने कहा - अच्छा है, पर देखो इनमें से दो तो पुण्यात्मा हैं और ...