यमपाल चांडाल की कथा

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

यमपाल चांडाल की कथा

मोक्ष सुख के देने वाले श्री जिनभगवान् को धर्म प्राप्ति के लिये नमस्कार करके हम एक ऐसे चाण्डाल की कथा लिखते हैं, जिसके व्रत-संयम की देवों तक ने पूजा की है।

काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देखकर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “नन्दीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदंड का भागी होगा।” वहीं एक सेठ पुत्र रहता था। उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। वह सात व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे माँस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। उससे एक दिन भी बिना माँस भक्षण किए बिना नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्तरीति से राजा के बगीचे में गया। वहाँ राजा का खास मेंढा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे मांस को खाकर वह उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ गया। सच है -

व्यसनेन युती जीवः सत्सं पापपरो भवेत्।

अर्थात् - व्यसनी मनुष्य नियम से पाप में सदा तत्पर रहा करते हैं।

दूसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेंढा नहीं देखा और उसके लिये बहुत खोज करने पर भी जब उसका पता नहीं चला, तब उन्होंने उसका पता लगाने को अपने बहुत से गुप्तचर नियुक्त किये। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागमाली रात को सोते समय, सेठ पुत्र के द्वारा मेढे के मारे जाने का हाल अपनी स्त्री से कह रहा था, उसे गुप्तचर ने सुन लिया। सुनकर उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया। इससे राजा को सेठ पुत्र पर बहुत गुस्सा आया।

उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा दी कि पापी धर्म ने एक तो जीव हिंसा की और दूसरे राजाज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिये उसे ले जाकर शूली पर चढ़ा दो। कोतवाल राजा के अनुसार सेठपुत्र धर्म को शूली के स्थान पर ले गया और सेवकों को भेजकर उसने यमपाल चाण्डाल को इसलिये बुलाया कि वह धर्म को शूली पर चढ़ा दे। क्योंकि यह कार्य उसके सुपुर्द था।

पर यमपाल ने एक दिन सर्वोषधिऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुनकर, जो दोनों भवों में सुख को देने वाला है, प्रतिज्ञा की थी कि “मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीव हिंसा नहीं करूंगा।’’ इसलिये उसने राज नौकरों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिये अपनी स्त्री से कहा - प्रिये, किसी को मारने के लिये मुझे बुलाने को राज-सेवक आ रहे है, सो तुम उनसे कह देना कि मैं घर में नहीं हूँ, दूसरे नगर गया हुआ हूँ। इस प्रकार वह चांडाल अपनी प्रिया को समझा कर घर के एक कोने में छिप गया। जब राज-सेवक उसके घर आये और उनसे चांडालिनी ने अपने स्वामी के बाहर चले जाने का समाचार कहा, तब सेवकों ने बड़े खेद के साथ कहा - हाय! वह बड़ा अभागा है। देव ने उसे धोखा दिया। आज ही तो एक सेठ पुत्र के मारने का मौका आया था और आज ही वह चल दिया। यदि वह आज सेठ पुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्र आभूषण प्राप्त होते। वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चांडालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने का ढोंग बनाकर और यह कहते हुए, कि हाय वे आज ही गाँव को चले गये, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने तो पाँव से ठुकरा दी, हाथ के इशारे से घर के भीतर छिपे हुए अपने स्वामी का पता बता दिया। सच है -

स्त्रीणां स्वभावतो माया किं पुनर्लोभकारणे।

प्रज्वलन्नपि दुर्वह्निः किं वाते वाति दारूणे।।

अर्थात् - स्त्रियाँ एक तो वैसे ही मायाविनी होती हैं और फिर लोभादि का कारण मिल जाए तब तो उनकी माया का कहना ही क्या? जलती हुई अग्नि वैसे ही भयानक होती है और यदि ऊपर से खूब हवा चल रही हो तब फिर उसकी भयानकता का क्या पूछना?

यह देख राज-नौकरों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा -

आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिये मैं किसी तरह की हिंसा नहीं करूँगा, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएं। यह सुन सेवक उसे राजा के पास लिवा ले गये। वहाँ राजा के सामने भी उसने वैसा ही कहा। ठीक है -

यस्य धर्मे सुविश्वासः क्वापि भीतिं न याति स।

अर्थात् - जिसका धर्म पर दृढ़ विश्वास है, उसे कहीं भी भय नहीं होता।

राजा सेठपुत्र के अपराध के कारण उस पर अत्यन्त क्रोधित हो ही रहे थे कि एक चाण्डाल के निर्भयपने की बातों ने उन्हें और भी अधिक क्रोधी बना दिया। एक चाण्डाल को राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला और इतना अभिमानी देखकर उनके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय कोतवाल को आज्ञा दी कि जाओ, इन दोनों को ले जाकर अपने मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे हुए तालाब में डाल आओ। वही हुआ। दोनों को कोतवाल ने तालाब में डलवा दिया।

तालाब में डालते ही पापी सेठपुत्र धर्म को तो जलजीवों ने खा लिया।

रहा यमपाल, सो वह अपने जीवन की कुछ परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और व्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका अभिषेक किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किये, उसका खूब आदर सम्मान किया। जब राजा प्रजा ने यह हाल सुना, तो उन्होंने तभी उस चाण्डाल का बड़े आनन्द और हर्ष के साथ सम्मान किया। उसे खूब धन दौलत दी। जिनधर्म का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर अन्य भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्म में अपनी बुद्धि को लगाए।

स्वर्ग के देवों ने भी एक अत्यन्त नीच चाण्डाल का आदर किया, यह देखकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को अपनी-अपनी जाति का कभी अभिमान नहीं करना चाहिये। क्योंकि पूजा जाति की नहीं होती, किन्तु गुणों की होती है।

यमपाल जाति का चाण्डाल था, पर उसके हृदय में जिनधर्म की पवित्र भावना थी, इसलिये देवों ने उसका सम्मान किया, उसे रत्नादिक के अलंकार प्रदान किये; अच्छे-अच्छे वस्त्र दिये, उस पर फूलों की वर्षा की। यह जिनभगवान के उपदेशित धर्म का प्रभाव है।

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