सती नीली की कथा

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

सती नीली की कथा

नीली ने चौथे अणुव्रत ब्रह्मचर्य की रक्षा करके जिन धर्म में प्रसिद्धि प्राप्त की है।

पवित्र भारत वर्ष में लाट देश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था। जिनधर्म का वहाँ खूब प्रचार था। वहाँ की प्रजा अपने धर्म-कर्म पर बड़ी दृढ़़ थी । इससे इस देश की शोभा को उस समय कोई देश नहीं पा सकता था। जिस समय की यह कथा है तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था। यह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकार की योग्य और कीमती वस्तुओं से पूर्ण था। इसका राजा तब वसुपाल था और वह सदा उसी काम में प्रयत्नशील रहता था जिससे उसकी प्रजा सुखी हो, धनी हो, सदाचारी हो, दयालु हो।

यहीं एक सेठ रहता था। उसका नाम था जिनदत्त। जिनदत्त की शहर के सेठ साहूकारों में बड़ी इज्जत थी। वह धर्मशील और जिनभगवान का भक्त था। दान पूजा स्वाध्याय आदि पुण्यकर्मों को वह सदा नियमानुसार किया करता था। उसकी धर्मप्रिया का नाम जिनदत्ता था। जैसा जिनदत्त धर्मात्मा और सदाचारी था, उसकी गुणवती साध्वी स्त्री भी उसी के अनुरूप थी और इसी से इनके दिन बड़े सुख के साथ बीतते थे। इन्होंने अपने गृहस्थ सुख को स्वर्गसुख से भी कहीं बढ़कर बना लिया था।

जिनदत्ता बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी। वह जिसे दुखी देखती, उसकी प्रेम से सब तरह सहायता करती। इसके सन्तान के रूप में केवल एक पुत्री थी। उसका नाम नीली था। अपने माता-पिता के अनुरूप ही इसमें गुण और सदाचार की सृष्टि हुई थी। जैसे संतों का स्वभाव पवित्र होता है, नीली भी उसी प्रकार बड़े पवित्र स्वभाव की थी।

इस नगर में एक और वैश्य रहता था। उसका नाम समुद्रदत्त था। यह जैनी नहीं था। इसकी बुद्धि बुरे उपदेशों को सुन-सुनकर दुर्बुद्धि हो गई थी। अपने हित की ओर कभी इसकी दृष्टि नहीं जाती थी। इसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था। इसके एक पुत्र था। उसका नाम था सागरदत्त।

सागरदत्त एक दिन अचानक जिनमन्दिर में पहुँच गया। इस समय नीली भगवान की पूजा कर रही थी। वह एक तो स्वभाव से ही बड़ी सुन्दर थी। इस पर उसने अच्छे-अच्छे रत्नजड़े गहने और बहुमूल्य वस्त्र पहन रखे थे। इससे उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गई थी।

वह देखने वालों को ऐसी जान पड़ती थी, मानो कोई स्वर्ग की देवबाला खड़ी-खड़ी भगवान की पूजा कर रही है। सागरदत्त उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गया।

काम ने उसके मन को बेचैन कर दिया। उसने पास ही खड़े हुए अपने मित्र से कहा - यह है कौन? मुझे तो नहीं जान पड़ता कि यह मध्यलोक की बालिका हो! या तो यह कोई स्वर्ग-बाला है या नागकुमारी अथवा विद्याधर कन्या क्योंकि मनुष्यों में इतना सुन्दर रूप होना असम्भव है।

सागरदत्त  के मित्र प्रियदत्त ने नीली का परिचय देते हुए कहा कि वह तुम्हारा प्रेम है, जो तुम ऐसा कहते हो कि ऐसी सुन्दरता मनुष्यों में नहीं हो सकती। तुम जिसे स्वर्ग-बाला समझ रहे हो वह न स्वर्ग-बाला है, न नागकुमारी और न किसी विद्याधर वगैरह की ही पुत्री है, यह मानव-कन्या ही है और अपने इसी शहर में रहने वाले जिनदत्त सेठ के कुल को एकमात्र प्रकाशित करनेवाली, उसकी ‘नीली’ नाम की कन्या है।

अपने मित्र द्वारा नीली का हाल जानकर सागरदत्त आश्चर्य के मारे दंग रह गया। साथ ही काम ने उसके हृदय पर अपना पूरा अधिकार कर लिया। वह घर पर आया तो सही पर अपने मन को वह नीली के पास ही छोड़ आया। अब वह दिन-रात नीली की चिंता में घुल-घुलकर दुबला होने लगा। खाना-पीना उसके लिए कोई आवश्यक काम नहीं रहा। सच है, जिस काम के वश होकर श्रीकृष्ण लक्ष्मी द्वारा, महादेव गंगा द्वारा और ब्रह्मा उर्वशी द्वारा अपना प्रभुत्व, ईश्वरपना खो चुके तब बेचारे साधारण लोगों की कथा ही क्या कही जाए।

जब सागरदत्त की हालत उसके पिता को ज्ञात हुई तो उसने एक दिन सागरदत्त से कहा - देखो, जिनदत्त जैन है। वह कभी अपनी कन्या का विवाह अजैनों के साथ नहीं करेगा। इसलिए तुम्हें यह उचित नहीं कि तुम अप्राप्य वस्तु के लिए इस प्रकार तड़फ-तड़फ कर अपनी जान को जोख़िम में डालो, तुम्हें यह अनुचित विचार छोड देना चाहिए। यह कहकर समुद्रदत्त ने उत्तर पाने की आशा से पुत्र की ओर देखा। पर जब सागरदत्त उसकी बात का कुछ भी जवाब न देकर नीची नज़र किये ही बैठा रहा, तब समुद्रदत्त को निराश हो जाना पड़ा।

उसने समझ लिया कि इसके दो ही उपाय हैं। या तो पुत्र के जीवन की आशा से हाथ धो बैठना या किसी तरह सेठ की लड़की के साथ इसका विवाह करा देना। पुत्र के जीने की आशा को छोड़ बैठने की अपेक्षा उसने किसी तरह नीली के साथ उसका विवाह करा देना ही अच्छा समझा। सच है, सन्तान का मोह मनुष्य से सब कुछ करा सकता है। इस सम्बन्ध के लिए समुद्रदत्त के ध्यान में एक युक्ति आई। वह यह कि इस दशा में उसने अपना और पुत्र का जैनी बन जाना बहुत ही अच्छा समझा और वे बन भी गये। अब से वे मन्दिर जाने लगे, भगवान् की पूजा करने लगे, स्वाध्याय, व्रत, उपवास भी करने लगे। मतलब यह कि थोड़े ही दिनों में पिता-पुत्र ने अपने जैनी हो जाने का लोगों को विश्वास करा दिया और धीरे-धीरे जिनदत्त से भी इन्होंने अधिक परिचय बढ़ा लिया। बेचारा जिनदत्त सरल स्वभाव का था और इसलिये वह सब ही को अपना-जैसा ही सरल स्वभावी समझता था। यही कारण हुआ कि समुद्रदत्त का चक्र उस पर चल गया। उसने सागरदत्त को, अच्छा पढ़ा-लिखा, खूबसूरत और अपनी पुत्री के योग्य वर समझकर नीली का उसके साथ विवाह कर दिया। सागरदत्त का मनोरथ सिद्ध हुआ। उसे नया जीवन मिला।

इसके बाद थोड़े दिनों तक तो पिता-पुत्र ने और अपने को ढोंगी वेष में रखा, पर फिर कोई प्रसंग बनाकर वे पीछे बौद्ध धर्म को मानने वाले हो गये। सच है, मायाचारियों-पापियों की बुद्धि अच्छे धर्म पर स्थिर नहीं रहती। यह बात प्रसिद्ध है कि कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता।

जब इन पिता-पुत्र ने जैनधर्म छोड़ा तब इन दुष्टों ने यहाँ तक अन्याय किया कि बेचारी नीली का उसके पिता के घर पर जाना-आना भी बंद कर दिया। सच है, पापी लोग क्या नहीं कर सकते!

जब जिनदत्त को इनके मायाचार का यह हाल मालूम हुआ, तब उसे बहुत पश्चाताप हुआ, बेहद दुःख हुआ। वह सोचने लगा कि क्यों मैंने अपनी प्यारी पुत्री को अपने हाथों से कुँए में ढकेल दिया? क्यों मैंने उसे काल के हाथ सौंप दिया? सच है दुर्जनों की संगति से दुःख के सिवा कुछ हाथ नहीं पड़ता। नीचे जलती हुई अग्नि ऊपर की छत को भी काली कर देती है।

जिनदत्त ने जैसा कुछ किया उसका पश्चाताप उसे हुआ। 

पर इससे क्या नीली दुःखी हुई?

उसका यह धर्म था क्या? नहीं! उसे अपने भाग्य के अनुसार जो पति मिला, उसे ही वह अपना देवता समझती थी और उसकी सेवा में कभी रत्तीभर भी कमी नहीं होने देती थी। उसका प्रेम पवित्र और आदर्श था। यही कारण था कि वह अपने प्राणनाथ की अत्यन्त प्रेम-पात्र थी। विशेषता यह थी कि नीली ने बौद्धधर्म के मानने वाले के यहाँ आकर भी जिनधर्म को नहीं छोड़ा था। वह बराबर भगवान की पूजा, शास्त्र-स्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि पुण्य कर्म करती थी, धर्मात्माओं से निष्कपट प्रेम करती थी ओैर पात्रों को दान देती थी। मतलब यह कि अपने धर्म-कर्म में उसे खूब श्रद्धा थी और भक्ति पूर्वक वह उसे पालती थी।

पर खेद है कि समुद्रदत्त की आँखो में नीली का यह कार्य भी खटका करता था। उसकी इच्छा थी कि नीली भी हमारा ही धर्म पालने लगे और इसके लिये उसने यह सोचकर, कि बौद्ध साधुओं की संगति से या दर्शन से या उनके उपदेशों से यह अवश्य बौद्ध-धर्म को मानने लगेगी। एक दिन नीली से कहा - पुत्री, तू पात्रों को तो सदा दान दिया ही करती है, तब एक दिन अपने धर्म के ही अनुसार बौद्ध साधुओं को भी तो दान दे।

नीली ने श्वसुर की बात मान ली। पर उसे जिनधर्म के साथ उनकी यह इर्ष्या ठीक नहीं लगी और इसीलिये उसने कोई ऐसा उपाय भी अपने मन में सोच लिया, जिससे फिर कभी उससे ऐसा मिथ्या आग्रह किया जाकर उसके धर्म-पालन में किसी प्रकार की बाधा न दी जाए। फिर कुछ दिनों बाद उसने मौका देखकर कुछ बौद्ध-साधुओं को भोजन के लिए बुलाया। वे आये। उनका आदर-सत्कार भी हुआ। वे एक अच्छे सुन्दर कमरे में बैठाये गये। इधर नीली ने उनके जूतों को एक दासी द्वारा मँगवा लिया और उनका खूब बारीक बूरा बनवाकर उसके द्वारा एक किस्म की बहुत ही बढ़िया मिठाई तैयार करवाई।

इसके बाद जब वे साधु भोजन करने को बैठे तब अन्य व्यंजनों-मिठाइयों के साथ वह मिठाई भी उन्हें परोसी गई। सबने उसे बहुत पसन्द किया। भोजन समाप्त होने के बाद जब जाने की तैयारी हुई, तब वे देखते है तो जूतों के जोड़े नहीं हैं। उन्हांने पूछा कि जूते कहाँ गये? भीतर से नीली ने आकर कहा - महाराज, सुनती हूँ, साधु लोग बड़े ज्ञानी होते हैं? तब क्या आप अपने ही जूतों का हाल नहीं जानते हैं? और यदि आपको इतना ज्ञान नहीं तो मैं बतला देती हूँ कि जूते आपके पेट में हैं। विश्वास के लिए आप वमन करके देखें। नीली की बात सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने वमन करके देखा तो उन्हें जूतों के छोटे-छोटे बहुत से टुकडे दिखाई पड़े। इससे उन्हें बहुत लज्जित होकर अपने स्थान पर आना पड़ा।

नीली की इस कार्रवाई से, अपने गुरुओं के अपमान से समुद्रदत्त, नीली की सासु, ननद आदि को बहुत गुस्सा आया। पर भूल उनकी थी जो नीली द्वारा उसके धर्म-विरुद्ध कार्य उन्होंने करवाना चाहा। इसलिये वे अपना मन मसोसकर रह गये, नीली से वे कुछ नहीं कह सके। 

पर नीली की ननद को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने कोई ऐसा ही छल-कपट करके नीली के माथे व्यभिचार का दोष मढ़ दिया। सच है, सत्पुरुषों पर किसी प्रकार का ऐब लगा देने में पापियों को तनिक भी भय नहीं रहता। बेचारी नीली अपने पर झूठ-मूठ महान कलंक लगा सुनकर बड़ी दुःखी हुई। उसे कलंकित होकर जीते रहने से मर जाना ही उत्तम जान पड़ा। वह उसी समय जिन-मन्दिर में गई और भगवान के सामने खड़ी होकर उसने प्रतिज्ञा की कि मैं इस कलंक से मुक्त होकर ही भोजन करूँगी, इसके अतिरिक्त मुझे इस जीवन में अन्न पानी का त्याग है। इस प्रकार वह, संन्यास लेकर भगवान् के सामने खड़ी हुई उनका ध्यान करने लगी। इस समय उसकी ध्यानमुद्रा देखने के योग्य थी। वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सुमेरु पर्वत की स्थिर और सुन्दर चूलिका जैसी हो। सच है, उत्तम पुरुषों को सुख या दुःख में जिनेन्द्र-भगवान ही शरण होते हैं, जो अनेक प्रकार की आपत्तियों के नष्ट करने वाले और इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं।

नीली की इस प्रकार दृढ़़-प्रतिज्ञा और उसके निर्दोष शील के प्रभाव से पुर-देवता का आसन हिल गया। वह रात के समय नीली के पास आया और बोला - सतियों में शिरोमणि, तुझे इस प्रकार निराहार रहकर प्राणों को कष्ट में डालना उचित नहीं। सुन, मैं आज शहर के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों को तथा राजा को एक स्वप्न देकर शहर के सब दरवाजे बंद कर दूँगा।

वे तभी खुलेंगे जब कि उन्हें कोई शहर की महासती अपने पाँवों से छुएगी। सो जब तुझे राज-कर्मचारी यहाँ से उठाकर ले जायें, तब तू उन दरवाज़ों का स्पर्श करना। तेरे पाँव के लगते ही दरवाजे़ खुल जाएँगे और तू कलंक मुक्त होगी। यह कहकर पुर-देवता चला गया और सब दरवाज़ों को बंद करके उसने राजा वगैरह को स्वप्न दिया।

सवेरा हुआ। कोई घूमने के लिए, कोई स्नान के लिए और कोई किसी और काम के लिए शहर से बाहर जाने लगे। सब जाकर देखते हैं तो शहर से बाहर जाने के सब दरवाज़े बंद हैं। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुत कोशिशें की गई, पर एक भी दरवाज़ा नहीं खुला। सारे शहर में शोर मच गया। बात की बात में राजा के पास खबर पहुँची। इस खबर के पहुँचते ही राजा को रात में आये हुए स्वप्न की याद आई। 

उसी समय एक बड़ी भारी सभा बुलाई गई। राजा ने सबको अपने स्वप्न का हाल कह सुनाया। शहर के कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी अपने को ऐसा ही स्वप्न आने की बात बताई। आखिर सब की सम्मति से स्वप्न के अनुसार दरवाज़ों का खोलना निश्चित किया गया। शहर की स्त्रियाँ दरवाज़ों का स्पर्श करने को भेजी गई। सब ने उन्हें पाँवों से छुआ, पर दरवाज़ों को कोई नहीं खोल सकी। तब किसी ने, जो नीली के संन्यास और उसकी प्रतिज्ञा का हाल जानता था, नीली को उठा ले जाकर उसके पावों का स्पर्श करवाया। सभी दरवाज़े खुल गये। जैसे वैद्य सलाई के अंजन द्वारा बंद आँखों को खोल देता है, उसी तरह नीली ने अपने चरण स्पर्श से दरवाज़ों को खोल दिया। नीली के शील की बहुत प्रशंसा हुई। नीली सम्मान सहित कलंक-मुक्त हुई। उसके अखण्ड शील के प्रभाव को देखकर लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजा तथा नगर के अन्य प्रतिष्ठित पुरुषों ने बहुमूल्य वस्त्राभूषणों द्वारा नीली का खूब सत्कार किया और इन शब्दों में उसकी प्रशंसा की ‘हे जिन भगवान के चरण-कमलों की भौंरी! तुम खूब फूलो-फलो। माता, तुम्हारे शील का माहात्म्य कौन कह सकता है!’ सती नीली अपने धर्म पर दृढ़़ रही, उससे उसकी बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों ने प्रशंसा की। इसलिए सर्व-साधारण को भी सती नीली का पथ ग्रहण करना चाहिए।

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

सती मृगांक लेखा (भाग - 1)

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती मृगा सुंदरी (भाग - 1)

सती मदन मंजरी (भाग - 2)

सती गुणसुंदरी (भाग - 3)

सती मदन मंजरी (भाग - 1)