वसुराजा की कथा (भाग - 2)

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

वसुराजा की कथा (भाग - 2)

एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा। उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर वसु को बचा लिया। वसु ने अपनी बचाने वाली गुरुमाता से कहा - माता, तुमने मुझे बचाया इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ। कहो! तुम्हें क्या चाहिए? वही लाकर मैं तुम्हें प्रदान करूँगा। स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा - पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब मागूँगी। तू मेरे इस वर को अभी अपने ही पास रख।

एक दिन क्षीरकदम्ब के मन में प्रकृति की शोभा देखने की उत्कंठा हुई। वह अपने साथ तीनों शिष्यों को भी इसलिए ले गया कि उन्हें वहीं पाठ भी पढ़ा दूँगा। वह एक सुन्दर बगीचे में पहुँचा। वहाँ कोई अच्छा पवित्र स्थान देखकर वह अपने शिष्यों को बृहदारण्य का पाठ पढ़ाने लगा। वहीं दो अन्य ऋद्धिधारी महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे। उनमें से छोटे मुनि ने क्षीरकदम्ब को पाठ पढ़ाते देखकर बड़े मुनिराज से कहा - प्रभो! देखिए कैसे पवित्र स्थान में उपाध्याय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा है। गुरु ने कहा - अच्छा है, पर देखो इनमें से दो तो पुण्यात्मा हैं और वे स्वर्ग में जायेंगे और दो पाप के उदय से नर्क के दुःख सहेंगे। सच है - कर्मों के उदय से जीवों को सुख या दुःख भोगना ही पड़ता है। 

मुनि के वचन क्षीरकदम्ब ने सुन लिए। वह अपने विद्यार्थियों को घर भेजकर मुनिराज के पास गया। उन्हें नमस्कार करके उसने पूछा - भगवन्! हे जैन सिद्धांत के उत्तम विद्वान, कृपाकर मुझे कहिए कि हममें से कौन दो तो स्वर्ग जाकर सुखी होंगे और कौन दो नर्क जायेंगे। काम के शत्रु मुनिराज ने क्षीरकदम्ब से कहा - भव्य! स्वर्ग जाने वालो में एक तो तू जिनभक्त और दूसरा धर्मात्मा नारद है और वसु तथा पर्वत पाप के उदय से नर्क जायेंगे।

क्षीरकदम्ब मुनिराज को नमस्कार करके अपने घर आया। उसे इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि उसका पुत्र नरक में जायेगा। क्योंकि मुनियों का कहा अनन्त काल में भी झूठा नहीं होता।

एक दिन कोई ऐसा कारण दिख पड़ा, जिससे वसु के पिता विश्वावसु अपना राजकाज वसु को सौंपकर स्वयं साधु हो गये। अब वसु राज्य करने लगा। एक दिन वसु वन विहार के लिए उपवन में गया हुआ था। वहाँ उसने आकाश से लुढ़ककर गिरते हुए एक पक्षी को देखा।

देखकर उसे आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि पक्षी के लुढ़कते हुए गिरने का कोई कारण यहाँ अवश्य होना चाहिए। उसका पता लगाने को जिधर से पक्षी गिरा था, उधर ही लक्ष्य बनाकर उसने बाण छोड़ा। उसका लक्ष्य व्यर्थ न गया। यद्यपि उसे ये नहीं जान पड़ा कि क्या गिरा, पर इतना विश्वास हो गया कि उसके बाण के साथ ही कोई भारी वस्तु गिरी जरूर है।

जिधर से किसी वस्तु के गिरने की आवाज उसे सुनाई पड़ी थी, वह उधर ही गया पर तब भी उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ा। यह देख उसने उस भाग को हाथों से टटोलना शुरू किया। हस्तस्पर्श से उसे एक बहुत निर्मल खम्भा, जो कि स्फटिकमणि का बना था, जान पड़ा। बसु राजा उसे गुप्त रीति से अपने महल में ले आया। वसु ने उस खम्भे के चार पाये बनवाये और उन्हें अपने न्याय-सिंहासन में लगवा दिये। उन पायों के लगने से सिंहासन ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह आकाश में ठहरा हुआ हो।

धूर्त वसु अब उसी पर बैठकर राज्यशासन करने लगा। उसने सब जगह यह प्रगट कर दिया कि ‘राजा वसु बहुत सत्यवादी है, उसकी सत्यता के प्रभाव से उसका न्याय-सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है।’ इस प्रकार कपट की आड़ में वह सर्वसाधारण में बहुत आदर का पात्र हो गया। सच है - मायावी पुरुष संसार में क्या ठगी नहीं करते! 

इधर सम्यग्दृष्टि जिन भक्त क्षीर कदम्ब संसार से विरक्त होकर तपस्वी हो गया और उसने अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर अंत में समाधिमरण द्वारा उसने स्वर्ग लाभ लिया। पिता का उपाध्याय पद अब पर्वत को मिला।

पर्वत को जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिता के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा। उसी वृत्ति के द्वारा उसका निर्वाह होता था।

क्षीरकदम्ब के साधु बनने के बाद ही नारद भी वहाँ से कही अन्यत्र चल दिया। वर्षों तक नारद विदेशों में घूमा। घूमते-फिरते वह फिर एक बार स्वस्तिपुरी की ओर आ निकला। वह अपने सहपाठी और गुरु-पुत्र पर्वत से मिलने को गया। पर्वत उस समय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था। साधारण कुशल क्षेम पूछने के बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वत का अध्यापन कार्य देखने लगा। कर्मकाण्ड का प्रकरण चल रह था। वहाँ एक श्रुति थी- ‘अज्जैर्यष्टव्यमिति।’ दुराग्रही पापी पर्वत ने उसका अर्थ किया कि ‘अजैश्छागैः प्रयष्टव्यमिति।’ अर्थात् बकरों की बलि देकर होम करना चाहिए। उसे रोक कर नारद ने कहा - नहीं। इस श्रुति का यह अर्थ नहीं है। गुरुजी ने तो हमें इसका अर्थ बतलाया था कि ‘अजैस्त्रिवार्षिकै धान्यैः प्रयष्टव्यमिति। अर्थात् तीन वर्ष के पुराने धान से, जिसमें उत्पन्न होने की शक्ति न हो, होम करना चाहिए। पापी, तू यह क्या अनर्थ करता है जो इस का उल्टा ही अर्थ कर दिया? उस पर पापी पर्वत ने दुराग्रह के वश हो यही कहा कि नहीं, तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है। असल में अज शब्द का अर्थ बकरा ही होता है और उसी से होम करना चाहिए। ठीक कहा है - जिसे दुर्गति में जाना होता है वही पुरुष जानबूझकर भी ऐसा झूठ बोलता है।

तब दोनों में सच्चा कौन है, इसके निर्णय के लिए उन्होंने राजा वसु को मध्यस्थ चुना। उन्होंने परस्पर प्रतिज्ञा की कि जिसका कहना झूठ हो उसकी जबान काट दी जाय। पर्वत की माँ को जब इस विवाद का और परस्पर की गई प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ तब उसने पर्वत को बुलाकर बहुत डाँटा और गुस्से में आकर कहा - पापी, तूने यह क्या अनर्थ किया? उस श्रुति का उलटा अर्थ क्यों किया? तुझे नहीं मालूम कि तेरा पिता जैन धर्म का पूर्ण श्रद्धानी था और वह ‘अज्जैर्यष्टव्यमिति’ इसका अर्थ तीन वर्ष के पुराने धान से होम करने को कहता था। और स्वयं भी वह पुराने धान ही से सदा होमादिक किया करता था। स्वस्तिमती ने उसे और भी बहुत फटकारा पर उसका फल कुछ नहीं निकला। पर्वत अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ बना रहा। पुत्र का इस प्रकार दुराग्रह देखकर वह अधीर हो उठी। एक ओर पुत्र के अन्याय पक्ष का समर्थन देकर सत्य की हत्या होती है और दूसरी ओर पुत्र-प्रेम विजय प्राप्त कर उसे अपने माँ के कर्त्तव्य से विचलित करता है। 

अब वह क्या करे? पुत्र-प्रेम में फँसकर सत्य की हत्या करे या उसकी रक्षा करके अपना कर्त्तव्य पालन करे? वह बड़े संकट में पड़ी हुई थी। आखिर दोनों शक्तियों का युद्ध हुआ और पुत्र-प्रेम ने विजय प्राप्त करके उसे अपने कर्त्तव्य पथ से गिरा दिया, सत्य की हत्या करने को उसे विवश कर दिया।

वह उसी समय वसु के पास पहुँची और उससे बोली - पुत्र, तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुमसे पाना बाकी है। आज मुझे उसकी जरूरत पड़ी है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करके मुझे कृतार्थ करो। बात यह है पर्वत और नारद का किसी विषय पर झगड़ा हो गया है। उसके निर्णय के लिए उन्होंने तुम्हें मध्यस्थ चुना है। इसलिये मैं तुम्हें यह कहने के लिए आई हूँ कि तुम पर्वत के पक्ष का समर्थन करना। सच है - जो स्वयं पापी होते हैं, वे दूसरो को भी पापी बना डालते हैं। जैसे सर्प स्वयं जहरीला होता है और जिसे काटता है उसे भी विषयुक्त कर देता है। पापियों का भी यही स्वभाव होता है।

राजसभा लगी हुई थी। बड़े-बड़े कर्मचारी यथास्थान बैठे हुए थे। राजा वसु भी एक बहुत सुन्दर रत्न-जड़े सिंहासन पर बैठा हुआ था। इतने में पर्वत और नारद अपना न्याय कराने के लिए राजसभा में आये। दोनों ने अपना-अपना कथन सुनाकर अन्त में किसका कहना सत्य है और गुरुजी ने अपने को ‘अज्जैर्यष्टव्यमिति’ इसका क्या अर्थ समझाया था, इसका खुलासा करने का भार वसु पर छोड़ दिया। वसु उक्त वाक्य का सही अर्थ जानता था और यदि वह चाहता तो सत्य की रक्षा कर सकता था, पर उसे अपनी गुरु माँ के माँगे हुए वर ने सत्यमार्ग से ढकेलकर आग्रही और पक्षपाती बना दिया। मिथ्या आग्रह के वश होकर उसने अपनी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवाह न कर नारद के विरुद्ध फैसला दे दिया।

उसने कहा कि जो पर्वत कहता है वही सत्य है और गुरुजी ने हमें ऐसा ही समझाया था कि ‘अज्जैर्यष्टव्यमिति’ का अर्थ बकरों को मारकर उनसे होम करना चाहिये। प्रकृति को उसका यह महा अन्याय सहन नहीं हुआ। उसका परिणाम यह हुआ कि राजा वसु जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठकर प्रति-दिन राजकार्य करता था और लोगों को यह कहा करता था कि मेरे सत्य के प्रभाव से मेरा सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है, वही सिंहासन वसु की असत्यता से टूट पड़ा और पृथ्वी में समा गया। उसके साथ ही वसु भी पृथ्वी में जा धँसा। यह देख नारद ने उसे समझाया - महाराज, अब भी सत्य कह दीजिए, गुरुजी ने जैसा अर्थ कहा था, वह प्रकट कर दीजिए। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। सत्यव्रत आपकी इस संकट से अवश्य रक्षा करेगा। कुगति में व्यर्थ अपनी आत्मा को न ले जाइए। अपनी इस दुर्दशा पर भी वसु को दया नहीं आई। वह और जोश में आकर बोला - नहीं, जो पर्वत कहता है वही सत्य है। उसका इतना कहना था कि उसके पाप के उदय ने उसे रसातल में पहुँचा दिया। वसु काल के सुपुर्द हुआ। मरकर वह सातवें नरक गया। सच है जिनका हृदय दुष्ट और पापी होता है, उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और जो पाप से बचना चाहते हैं, उन्हें प्राणों पर कष्ट आने पर भी कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए।

पर्वत की यह दुष्टता देखकर प्रजा के लोगों ने उसे गधे पर बैठाकर शहर से निकाल बाहर किया और नारद का बहुत आदर-सत्कार किया। नारद अब वहीं रहने लगा। वह बड़ा बुद्धिमान और धर्मात्मा था। सब शास्त्रों में उसकी पहुँच थी। वह वहाँ रहकर लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता, भगवान की पूजा करता, पात्रों को दान देता। उसकी यह धर्म परायणता देखकर वसु के बाद राज-सिंहासन पर बैठने वाला राजा उस पर बहुत खुश हुआ। उस खुशी में उसने नारद को गिरितट नामक नगरी का राज्य भेट में दे दिया। नारद ने बहुत समय तक उस राज्य का सुख भोगा। 

अंत में संसार से उदासीन होकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । मुनि होकर उसने अपना ध्यान जीवों को कल्याण के मार्ग में लगाया और तपस्या द्वारा पवित्र रत्नत्रय की आराधना कर आयु के अंत में वह सर्वार्थसिद्धि गया, जो कि सर्वोत्तम सुख का स्थान है। सच है, जैनधर्म की कृपा से भव्य पुरुषों को क्या प्राप्त नहीं होता?

निरिभमानी नारद अपने धर्म पर बड़ा दृढ़ था। उसने समय-समय पर अन्य धर्म वालों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की। वह जिनशासन रूप महान् समुद्र के बढ़ाने वाला चन्द्रमा था। वह ब्राह्मणवंश का एक चमकता हुआ रत्न था। अपनी सत्यता के प्रभाव से उसने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। अंत में वह तपस्या करके सर्वार्थसिद्धि गया। वे महात्मा नारद सबका कल्याण करें।

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