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Showing posts from November, 2021

देव-शास्त्र-गुरु पूजा

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देव-शास्त्र-गुरु पूजा (पारुल जैन, दिल्ली) बोलो पंच परमंष्ठी भगवन्तों की जय ऊँ नमः सिद्धेभ्यः! ऊँ नमः सिद्धेभ्यः! ऊँ नमः सिद्धेभ्यः! हे वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु, जग हितकारी को नमस्कार। निर्मल भावों से करूँ वन्दना, ध्याऊँ तुमको बारम्बार।। इस जग को जो मंगलकारी, उस जिनवाणी को नमस्कार। जो मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ गुरु, उनको वंदू मैं नंत बार।। हृदयांगन में करूँ प्रतीक्षा, शुद्ध भाव से आज। पर परिणति से विमुख हो, ये ही मन की आस।। ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट् (आह्वाननं) आइए प्रभु! आपके आने से मेरा मन, भाव, चेतन, परिणाम सब निर्मल हो जाएं। ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं) आपके चरण-कमल मेरी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में, मेरी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश आपके चरणों में स्थापित हो।  ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणं) आपका सानिध्य पाकर प्रभु! आपके ज्ञान के प्रकाश से मेरी आत्मा पर अनादि से आच्छादित मोह-मिथ्यात्व और अज्ञान का अंधकार उसी प्रकार दूर हो जाए, जैसे कभी आपका हुआ था। इसी भाव से पूजा जी की स्...

प्रातः कालीन वन्दना

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प्रातः कालीन वन्दना सिद्ध शिला पर विराजमान अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तों को मेरा बारम्बार नमस्कार है। वृषभादिक महावीर पर्यन्त अंगुलियों के 24 पोरों में विराजित 24 तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार है। सीमंधर आदि विद्यमान 20 तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार है। सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र को मेरा बारम्बार नमस्कार है। चारों दिशा-विदिशाओं में जितने अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम व जितने भी कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्य, चैत्यालय हैं, उनको मेरा मन, वचन और काय से बारम्बार नमस्कार है। पांच भरत, पांच ऐरावत, दस क्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनालयों में स्थित जिनवरों को मेरा बारम्बार नमस्कार है। जितने भी अतिशय क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र, जिनवाणी, शास्त्र, मुनिराज, माताजी, क्षुल्लक, क्षुल्लकाणीजी हैं, उन सबके चरणों में मन, वचन और काय से बारम्बार नमस्कार हो। हे भगवन्! तीन लोक सम्बन्धी 8 करोड़ 56 लाख 97 हजार 481 अकृत्रिम जिन चैत्यालयों को मैं नमस्कार करता/करती हूँ। उन चैत्यालयों में स्थित 925 करोड़ 53 लाख 27 हजार 948 जिन प्रतिमाओं की वन्दना करता/करती हूँ। हे भगवन्! ...

मंदिर नियमावली

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मंदिर नियमावली मन्दिरजी में प्रवेश से लेकर अभिषेक और शांति धारा कैसे की जाए पढ़िए इस कविता में … और अंतर्मन को रखें विशाल निःसही निःसही कह करें प्रवेश, फिर दर्शन विधि पढ़ माथा टेक। स्तुति पाठ पूजन सामायिक, साइड खड़े हो पढ़े प्रत्येक। सिर पर टोपी और दुपट्टा, ध्यान रखें यह बात विशेष। साइड खड़े हो तिलक करें, पूजन फल तब परम विशेष। मंद ध्वनि में पूजन पाठ, सहयोगी बन सबके आप। स्वाध्याय तब ठीक से होगा, और ठीक जिनवर का जाप। छोटा सा जब मंदिर अपना, माइक करें न कभी प्रयोग। ध्वनि प्रदूषण तभी रुकेगा, और बनेगा पुण्य का योग। जिन पूजन अभिषेक महान्, पापाचरण तजिए श्रीमान। कविवर बुधजन कहते हैं, उत्तम फल तब ही बस जान। कटे फटे न पहनें वस्त्र, नाखून रखें न कभी बड़े। सभी पुराने रक्षा-सूत्र, छोड़ कलाई रखिये शुद्ध। थोड़े-थोड़े जल से ही, श्री जिन का अभिषेक करें। गंधोदक का ठीक विसर्जन, करके सब तब विघ्न हरें। अभिषेक विधि चल रही हो जब, रोकें परिक्रमा वेदी की तब। विधि पूर्ण जब हो जावे, गंधोदक माथे तब लगावें। यह भी निश्चित ध्यान रखें, पूजन जब प्रारंभ करें। भूमि गिरे न द्रव्य पवित्र, हाथ रकेबी उतनी ही भरें। जिनवाणी के...

भगवान महावीर स्वामी के जीवन की प्रेरक कथा

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भगवान महावीर स्वामी के जीवन की प्रेरक कथा उन्मत्त हाथी हुआ शांत राजा सिद्धार्थ की गजशाला में सैकड़ों हाथी थे। एक दिन चारे को लेकर दो हाथी आपस में भिड़ गए। उनमें से एक हाथी उन्मत्त होकर गजशाला से भाग निकला। उसके सामने जो भी आया, वह कुचला गया। उसने सैकड़ों पेड़ उखाड़ दिए, घरों को तहस-नहस कर डाला और आतंक फैलाकर रख दिया। महाराज सिद्धार्थ के अनेक महावत और सैनिक मिलकर भी उसे वश में नहीं कर सके। वर्द्धमान को यह समाचार मिला तो उन्होंने आतंकित राज्यवासियों को आश्वस्त किया और स्वयं उस हाथी की खोज में चल पड़े। प्रजा ने चैन की सांस ली, क्योंकि वर्द्धमान की शक्ति पर उसे भरोसा था। वह उनके बल और पराक्रम से भली-भांति परिचित थी। एक स्थान पर हाथी और वर्द्धमान का सामना हो गया। दूर से हाथी चिंघाड़ता हुआ भीषण वेग से दौड़ा चला आ रहा था मानो उन्हें कुचलकर रख देगा। लेकिन उनके ठीक सामने पहुंचकर वह ऐसे रुक गया मानो किसी गाड़ी को आपातकालीन ब्रेक लगाकर रोक दिया गया हो। महावीर ने उसकी आंखों में झांकते हुए मीठे स्वर में कहा - ‘हे गजराज! शांत हो जाओ! अपने पूर्व जन्मों के फलस्वरूप तुम्हें पशु योनि में जन्म लेना पड़ा।...

भगवान महावीर के पूर्व भव (भाग - 7)

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भगवान महावीर का जीवन परिचय भगवान महावीर के पूर्व भव (भाग - 7) भगवान का मोक्ष गमन अन्त में भगवान् पावापुर नगर में पहुँचे। वहाँ के ‘मनोहर’ नाम के वन के भीतर अनेक सरोवरों के बीच में मणिमयी शिला पर विराजमान हो गये। वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय स्वाति नक्षत्र में तीनों योगों का निरोध कर अघातिया कर्मों का नाश करके शरीर रहित केवल गुण रूप होकर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। उसी समय भगवान् लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान कृतकृत्य, सिद्ध, नित्य, निरंजन भगवान् बन गये। अब वे वापस कभी भी अनन्त काल तक संसार में नहीं आयेंगे। उनके पुरुषार्थ की अन्तिम (चरम) सीमा हो चुकी है। अनंतर इंद्रादि सब देव आये और अग्नि की शिखा पर भगवान् का शरीर रखकर संस्कार किया। स्वर्ग से लाये गए गंध, माला आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से विधिवत् भगवान की पूजा की, अनेक स्तुतियां की और मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया। जिस दिन भगवान् मोक्ष गये उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्रकट हो गया। उस समय सुर द्वारा जलाई हुई बहुत भारी दैदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगर का आकाश सब ओर से जगमगा उठा।...