देव-शास्त्र-गुरु पूजा

देव-शास्त्र-गुरु पूजा (पारुल जैन, दिल्ली)

बोलो पंच परमंष्ठी भगवन्तों की जय

ऊँ नमः सिद्धेभ्यः! ऊँ नमः सिद्धेभ्यः! ऊँ नमः सिद्धेभ्यः!

हे वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु, जग हितकारी को नमस्कार।

निर्मल भावों से करूँ वन्दना, ध्याऊँ तुमको बारम्बार।।

इस जग को जो मंगलकारी, उस जिनवाणी को नमस्कार।

जो मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ गुरु, उनको वंदू मैं नंत बार।।

हृदयांगन में करूँ प्रतीक्षा, शुद्ध भाव से आज।

पर परिणति से विमुख हो, ये ही मन की आस।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट् (आह्वाननं)

आइए प्रभु! आपके आने से मेरा मन, भाव, चेतन, परिणाम सब निर्मल हो जाएं।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं)

आपके चरण-कमल मेरी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में, मेरी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश आपके चरणों में स्थापित हो। 

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणं)

आपका सानिध्य पाकर प्रभु! आपके ज्ञान के प्रकाश से मेरी आत्मा पर अनादि से आच्छादित मोह-मिथ्यात्व और अज्ञान का अंधकार उसी प्रकार दूर हो जाए, जैसे कभी आपका हुआ था।

इसी भाव से पूजा जी की स्थापना करते हैं।

अनंत काल मैं घूमा प्रभुवर, निज को नहीं लख पाया हूँ।

आज तुम्हारा दर्श किया तो, निज स्वरूप को पाया हूँ।।

जामन मरण मिटावो भगवन्, यही आस ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, प्रासुक जलधारा लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।

राग द्वेष और मोह के कारण, भव-भव फिरता आया हूँ।

चार कषायों की अग्नि में, कहीं चैन नहीं पाया हूँ।।

भव आताप मिटावो भगवन्, यही भाव ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, चंदन वंदन को लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो संसार ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।

शाश्वत को नहीं जान सका, नश्वर में ही हर्षाया हूँ।

चार गति में घूम घूम कर, पर्यायों को पाया हूँ।।

शाश्वत पद को प्राप्त करूँ, अब यही आस ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, निर्मल अक्षत ले आया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।

काम भाव में व्यस्त रहा, फिर कर्म बांधता आया हूँ।

दशा सदा विपरीत रही, संयोगों में भरमाया हूँ।।

वीतरागता पाने को, अब शरण तुम्हारी आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, मैं पुष्प संजो कर लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो काम बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।

क्षुधा रोग से व्याकुल भगवन्, आकुलता ही पाया हूँ।

षट्रस मिश्रित भोजन में प्रभु, अब तक मैं ललचाया हूँ।।

क्षुधा रोग अब नाश हो मेरा, यही भाव ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, नैवेद्य बना कर लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

जग के रिश्ते नातों को, बस अपना मानता आया हूँ।

ज्ञान बिना भव-भव में भटका, मोह से मैं भरमाया हूँ।।

विपरीत मान्यता दूर हटे, बस यही भाव ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, मैं दीप चढ़ाने लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोह अंधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।

पाप-पुण्य के आस्रव से, संसार बढ़ाता आया हूँ।

राग द्वेष के वशीभूत, निज को मैं जान न पाया हूँ।।

ध्यान अनल में कर्म जलें, बस यही भाव ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, मैं धूप जलाने आया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।

जग में अणु मात्र न मेरा, यह भाव समझ नहीं पाया हूँ।

पर की चिंता में हे प्रभुवर! व्याकुल हो भरमाया हूँ।।

निज शांत स्वरूप को पाने मैं, चरणों में तेरे आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, मैं श्रीफल ही अब लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।।

वसु कर्मों से दग्ध है चेतन, निज स्वरूप नहीं पाया हूँ।

जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, चरू, अरु दीप, धूप, फल लाया हूँ।।

ज्ञाता दृष्टा भाव जगे, बस यही आस ले आया हूँ।

देव-शास्त्र-गुरु पूजन को, मैं अर्घ संजोकर लाया हूँ।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

देव-शास्त्र-गुरु पूज कर, पा लूँ निज का सार।

सिद्ध प्रभु को नमन कर, बोलूँ अब जयमाल।।

जयमाला

रोम रोम से निकले प्रभुवर नाम तुम्हारा,

वीतरागी भगवन्त नमोस्तु, तीर्थंकर अरिहंत नमोस्तु।

दोष अठारह रहित नमोस्तु, छियालीस गुण पूर्ण नमोस्तु।

चार घातिया रहित नमोस्तु, अनंत चतुष्टय सहित नमोस्तु।

लोकालोक विलोक नमोस्तु, सर्वज्ञ भगवन्त नमोस्तु।

ज्ञानावरण अशेष नमोस्तु, केवलज्ञान से पूर्ण नमोस्तु।

परिग्रहों से रहित नमोस्तु, प्रातिहार्यों से सहित नमोस्तु।

अष्ट कर्म से रहित नमोस्तु, सिद्ध प्रभु भगवन्त नमोस्तु।

अविनाशी अविकारी नमोस्तु, ज्ञान शरीर के धारी नमोस्तु।

पर से भिन्न एकत्व नमोस्तु, निज आनन्द अभ्यस्त नमोस्तु।

अष्ट गुणों से सहित नमोस्तु, शाश्वत शिव पद धारी नमोस्तु।

द्वादशांग जिनवाणी नमोस्तु, वीर प्रभु की वाणी नमोस्तु।

सप्तभंग से सहित नमोस्तु, संशयादि से रहित नमोस्तु।

अमृत की है धार नमोस्तु, संजीवनी सुखकार नमोस्तु।

सप्त तत्व श्रद्धान नमोस्तु, स्याद्वाद अनेकान्त नमोस्तु।

छत्तीस गुण के धारी नमोस्तु, शिक्षा दीक्षा प्रवीण नमोस्तु।

पंचाचार के धारी नमोस्तु, आचार्य पद धारी नमोस्तु।

पच्चीस गुण के धारी नमोस्तु, बहुत ज्ञान के धारी नमोस्तु।

ज्ञान प्रकाशक मुनि नमोस्तु, उपाध्याय पद धारी नमोस्तु।

अट्ठाइस गुणधारी नमोस्तु, ज्ञान ध्यान तप लीन नमोस्तु।

रत्नात्रय  गुणधारी नमोस्तु, आत्म ज्ञान लवलीन नमोस्तु।

करपात्री पदयात्री नमोस्तु, मोक्ष मार्ग के राही नमोस्तु।

निज पर के उपकारी नमोस्तु, साधु पद के धारी नमोस्तु।

रोम रोम से निकले प्रभुवर, नाम तुम्हारा,

ऐसी भक्ति करूँ प्रभु जी, हो न जन्म दोबारा।

देव-शास्त्र-गुरु शरण में, श्रद्धा से जो आए।

कर्म नशावे, शिव सुख पावे, निज वैभव को पाए।।

ऊँ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो सर्वेषाम् दुःखस्य निवृत्यः भावनया जयमाला पूर्ण अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।

वीतराग गुण देख कर, स्व चतुष्टय में आऊँ।

त्याग करूँ पर्याय दृष्टि, द्रव्य दृष्टि प्रगटाऊँ।।

।। इत्याशीर्वाद ।।

पुष्पांजलि क्षिपेत्

।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।

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