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Showing posts from February, 2025

उन्मत हाथी हुआ शांत

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उन्मत हाथी हुआ शांत राजा सिद्धार्थ की गजशाला में सैकड़ों हाथी थे। एक दिन चारे को लेकर दो हाथी आपस में भिड़ गए। उनमें से एक हाथी उन्मत्त होकर गजशाला से भाग निकला। उसके सामने जो भी आया, वह कुचला गया। उसने सैकड़ों पेड़ उखाड़ दिए, घरों को तहस-नहस कर डाला और आतंक फैलाकर रख दिया। महाराज सिद्धार्थ के अनेक महावत और सैनिक मिलकर भी उसे वश में नहीं कर सके। वर्द्धमान को यह समाचार मिला तो उन्होंने आतंकित राज्यवासियों को आश्वस्त किया और स्वयं उस हाथी की खोज में चल पड़े। प्रजा ने चैन की सांस ली, क्योंकि वर्द्धमान की शक्ति पर उसे भरोसा था। वह उनके बल और पराक्रम से भली-भांति परिचित थी। एक स्थान पर हाथी और वर्द्धमान का सामना हो गया। दूर से हाथी चिंघाड़ता हुआ भीषण वेग से दौड़ा चला आ रहा था मानो उन्हें कुचलकर रख देगा। लेकिन उनके ठीक सामने पहुंचकर वह ऐसे रुक गया मानो किसी गाड़ी को आपातकालीन ब्रेक लगाकर रोक दिया गया हो। महावीर ने उसकी आंखों में झांकते हुए मीठे स्वर में कहा - ‘हे गजराज! शांत हो जाओ। अपने पूर्व जन्मों के फलस्वरूप तुम्हें पशु योनि में जन्म लेना पड़ा। इस जन्म में भी तुम हिंसा का त्याग नहीं करोगे तो अगले ...

सती कलावती (भाग - 5)

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सती कलावती (भाग - 5) शंखपुर नगर के कुसुमाकर उद्यान में बैठे आचार्य अमिततेज राजा शंख को पद्म राजा की कथा सुना रहे थे। बाद में मुनिराज ने कहा - ‘हे राजन्! तुम्हारे जैसा अविवेक पूर्ण आचरण राजा पद्म ने भी किया था। तुम अकेले ही अविवेकी नहीं हो। अपनी बीती बातों को भूलकर धैर्य धारण करो।’ राजा शंख ने मुनि महाराज से पूछा - ‘राजा पद्म को तो उनकी कमला पुनः मिल गई थी। प्रभु! मेरी कलावती रानी मुझे मिलेगी या नहीं। यदि वह मुझे नहीं मिली, तो मैं जीवित कैसे रहूंगा?’ अवधिज्ञानी मुनिराज अमिततेज ने कहा - ‘तुम्हारे सैनिकों को रानी कलावती तपस्वियों के आश्रम में मिलेगी। राजन्! तुम्हारी रानी अपने पुत्र के साथ है और तुम उनके शील का प्रभाव भी देखोगे। उसके कटे हाथ सही सलामत होंगे।’ धन्य! धन्य!! पूरी सभा में ‘धन्य! धन्य!!’ की आवाज होने लगी। ऐसी शीलवती सती के प्रभाव से जो हाथ राजा ने कटवा दिए थे, वे सही सलामत हो गए। राजा शंख मुनिराज की वंदना करके अपने भवन में लौट गया। श्रेष्ठी दत्त कलावती को ढूंढते-ढूंढते तपस्वी आश्रम में पहुंचा। बहन-भाई की आंखों में आंसू थे और वे दोनों मिले तो श्रेष्ठी दत्त ने कहा - ‘बहिन कलावती!...

सती कलावती (भाग - 4)

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सती कलावती (भाग - 4) राजा पद्म ने अनुमति दे दी। वह व्यक्ति बुद्धिमान की कहानी सुनाने लगा। एक नगर में ‘धर्म’ नाम का एक धनी व्यापारी रहता था। उसका लंबा-चौड़ा व्यापार था। खेती, पशुपालन और लेन-देन के काम से धर्म श्रेष्ठी को अपार धन की प्राप्ति हुई। जैसे लक्ष्मी उसके घर में जमकर ही बैठ गई। संयोग से उसकी सेठानी का नाम भी लक्ष्मी था। धर्म श्रेष्ठि के चार पुत्र थे। बड़ा धनदेव, दूसरा धनदत्त, तीसरा धनसार और चौथा सोमदत्त था। चारों भाइयों में बहुत प्रेम था। चारों के विवाह हो चुके थे। धर्म श्रेष्ठी बूढ़ा हुआ और उसने अपने जीवन का अंत निकट जाना, तो अपने सारे धन का चार भागों में बंटवारा कर दिया। एक दिन चारों पुत्रों को बुलाकर समझाया - ‘पुत्रों! मैंने तुम चारों के लिए चार कलशों में धन भर कर रख दिया है। हर एक कलश पर तुम्हारा नाम लिख दिया है। मेरे मरने के बाद अपने-अपने नाम का कलश ले लेना। उस धन से जीवन सुख से बिताना।’ साल भर बाद धर्म श्रेष्ठी की मृत्यु हो गई। कुछ दिन पिता के शोक में बीते। चारों भाइयों ने अपने-अपने नाम के कलश ले लिए। बड़े पुत्र धनदेव ने अपना कलश खोला, तो उसमें मिट्टी भरी थी। धनदेव ने अपना माथ...

सती कलावती (भाग - 3)

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सती कलावती (भाग - 3) सारथी ने रानी को रथ से नीचे उतारा और कहा - ‘महाराज शंख की आज्ञा है कि मैं आपको यहीं छोड़ दूं। इसकी वजह वही जानते हैं।’ इतना कह कर सारथी ने रथ मोड़ लिया। रानी देखती रह गई। उसका कंगनों को देखने का उत्साह खत्म हो गया। थोड़ी देर बाद चारों चांडालनियां आ गई। उन्होंने रानी को घेर लिया और बोली - ‘पापिन! हमें तेरे हाथ काटने हैं। हमें महाराज शंख की आज्ञा का पालन करना है।’ रानी ने कहा - ‘चाहे हाथ काटो, चाहे मार दो। मेरा अपराध बता देती, तो अच्छा था।’ चांडालनियों ने कहा - ‘तुम्हारा किसी अन्य से प्रेम है। तुम्हारा कोई प्रेमी दूर रहकर भी तुम्हारे हृदय के पास है। इस अपराध के कारण तुम्हारे हाथ काटे जाएंगे। तुम्हारे हाथों में उसके पवित्र प्रेम की निशानी भी है।’ रानी को हंसी आ गई - ‘वाह रे भाग्य! मुनिराज बताते हैं कि कर्मोदय के प्रभाव से सच भी झूठ जैसा हो जाता है और झूठ भी सच मान लिया जाता है। यह मेरे कर्मों का ही प्रभाव है कि मैं मन-वचन से पति की न हो पाई। मैं उनकी दृष्टि में पापिन हूं।’ रानी ने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए। चांडालनियों ने बड़ी बेरहमी से दोनों हाथ काट दिए। रक्त की धारा बहने लग...

सती कलावती (भाग - 2)

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सती कलावती (भाग - 2) जयसेन और कलावती को अतिथि भवन में ठहराया गया। एक शुभ लग्न में विवाह विधि संपन्न हुई। नगर भर में उत्साह चरम सीमा पर था। जगह-जगह नृत्यगान हो रहे थे। महाराज शंख के पास बैठी कलावती ऐसी शोभा पा रही थी, जैसे मदन के पास रति शोभा पाती है। 15 दिन तक विवाह का उत्सव मना। जयसेन ने विवाह के पश्चात अपने नगर जाने की अनुमति मांगी। उसने कलावती को कहा - बहिन! अब तू अपने असली घर में आ गई है। अब शंखपुर ही तेरा असली घर है। कलावती की आंखों से आंसू गिरने लगे। जयसेन के वक्ष से लगकर उसने कहा - ‘भैया! मुझे भूल मत जाना। समय-समय पर आते रहना। अपने घर में मैं भी तुम्हें भूल नहीं पाऊंगी।’ जयसेन ने कहा - ‘दत्त भी तुम्हारा भाई है और वह यहीं रहता है। तुम चिंता मत करना। मैं भी आता रहूंगा।’ बहिन से और राजा शंख से और श्रेष्ठी दत्त से जयसेन ने विदा ली और अपने नगर देवशाल को चला गया। वह जो चारों प्रकार की सेना अपने साथ लाया था, वह भी दहेज के रूप में शंखपुर में छोड़ गया। रत्न आदि द्रव्य भी दहेज में दे गया। उसके जाने के बाद कलावती कई दिनों तक अपने भाई को याद करती रही। राजा शंख और कलावती ऐसे रहते थे, जैसे जल ...