सती कलावती (भाग - 3)

सती कलावती (भाग - 3)

सारथी ने रानी को रथ से नीचे उतारा और कहा - ‘महाराज शंख की आज्ञा है कि मैं आपको यहीं छोड़ दूं। इसकी वजह वही जानते हैं।’ इतना कह कर सारथी ने रथ मोड़ लिया।

रानी देखती रह गई। उसका कंगनों को देखने का उत्साह खत्म हो गया।

थोड़ी देर बाद चारों चांडालनियां आ गई। उन्होंने रानी को घेर लिया और बोली - ‘पापिन! हमें तेरे हाथ काटने हैं। हमें महाराज शंख की आज्ञा का पालन करना है।’

रानी ने कहा - ‘चाहे हाथ काटो, चाहे मार दो। मेरा अपराध बता देती, तो अच्छा था।’

चांडालनियों ने कहा - ‘तुम्हारा किसी अन्य से प्रेम है। तुम्हारा कोई प्रेमी दूर रहकर भी तुम्हारे हृदय के पास है। इस अपराध के कारण तुम्हारे हाथ काटे जाएंगे। तुम्हारे हाथों में उसके पवित्र प्रेम की निशानी भी है।’

रानी को हंसी आ गई - ‘वाह रे भाग्य! मुनिराज बताते हैं कि कर्मोदय के प्रभाव से सच भी झूठ जैसा हो जाता है और झूठ भी सच मान लिया जाता है। यह मेरे कर्मों का ही प्रभाव है कि मैं मन-वचन से पति की न हो पाई। मैं उनकी दृष्टि में पापिन हूं।’

रानी ने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए।

चांडालनियों ने बड़ी बेरहमी से दोनों हाथ काट दिए। रक्त की धारा बहने लगी। रानी बेहोश हो गई। कंगन सहित दोनों हाथ लेकर चांडालनियां चली गई।

यदि पाप कष्ट देते हैं, तो पुण्य हर कष्ट से बचा भी लेते हैं। पुण्य के कारण हिंसक जीवों से वन में रानी की रक्षा हुई। उसके घाव भरने लगे। वन में चलते-चलते रानी को एक नदी मिल गई। वहीं एक पेड़ के नीचे उसने अपना बसेरा बना लिया। वह शरीर रक्षा के लिए मुंह से पत्ते तोड़कर खा लेती। कभी-कभी मीठे फल भी उसे मिल जाते और नदी में झुक कर पानी पी लेती। उसके जीने की एक राह बन गई।

कुछ महीनों के बाद रानी को प्रसव पीड़ा हुई। उसने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। वह बिना हाथों के अपने पुत्र को उठा नहीं पाई। वह लुढ़क कर नीचे जाने लगा, तो रानी ने उसे पैरों से रोक लिया। उसके धीरज का बांध टूट गया और वह बोली - ‘हे नदी की देवी! यदि मैंने स्वप्न में भी परपुरुष का चिंतन नहीं किया हो, तो मेरे दोनों हाथ आ जाएं। मैं बिना हाथों के पुत्र का पालन कैसे कर सकूंगी? यह पुत्र तो तेरी गोद में जन्मा है।’

नदी की देवी ने अदृश्य रहकर ही रानी के हाथ वापिस लगा दिए। पुण्य योग और सती के प्रभाव से यह सब आश्चर्य हुआ।

रानी ने अपने पुत्र को गोद में उठाया और उसे प्यार करने लगी। नदी के तट पर जहां रानी रहती थी, वहां थोड़ी ही दूर पर तपस्वियों का आश्रम था। संयोग से एक तपस्वी आया और उसने रानी को देखा और बोला - ‘पुत्री! मैं सोच भी नहीं सकता था कि यहां कोई रहता होगा। आखिर तुम इस वन में क्यों पड़ी हो?’

रानी कलावती ने अपनी व्यथा तपस्वी को सुना दी।

तपस्वी ने कहा - ‘कर्मों के नष्ट होने की प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। बेटी! एक दिन तुम्हारा पति महाराज शंख अवश्य पछताएगा। मेरा विश्वास है कि वह तुम्हें जरूर लेने आएगा। बेटी! तुम्हारे हाथ कटने और पुण्य संयोग से वापिस आने से ही तुम्हारे सतीत्व की महिमा बढ़ेगी। तुम देवी हो। चलो! मेरे आश्रम में रहना। तुम्हें वहां किसी भी तरह का कष्ट नहीं होगा।’

रानी बोली - ‘जब कर्म का दिया कष्ट नहीं ठुकराया, तो मैं भाग्य का दिया हुआ सहारा क्यों ठुकराऊँ। आप जैसे साधु-संन्यासियों के संपर्क में रहकर यह बालक भी अच्छे संस्कार पाएगा।’

रानी तपस्वियों के आश्रम में चली गई और उसका जीवन भी तपस्वियों के समान सादा जीवन बन गया। भाग्य ही ऐसा खेल खिलाता है, जो कभी उसे महल की रानी बनाता है और कभी वनवासी बना देता है।

उधर रानी के कटे हाथ देखकर राजा शंख का क्रोध कुछ शांत हुआ और वह जानने के लिए मुड़ा कि रानी का प्रेमी कौन है, जिसने यह बहुमूल्य कंगन उसे दिए हैं? क्या श्रेष्ठि दत्त है? नहीं! नहीं! वह तो कलावती को बहिन मानता है। राजा और कुछ नहीं सोच पाया। कटे हुए हाथ चांडालिनियों को सौंप दिए और कहा - इन्हें कहीं भी फेंक देना।

उसने कंगन संभाल कर रख लिए। पहला दिन और रात रानी के प्रेमी के चिंतन में बीती। राजा शंख दुःखी और चिड़चिड़ा हो गया। दुःख का कारण उसकी भ्रान्ति थी कि मेरी पत्नी चरित्रहीन है। इसलिए रानी को वन में छुड़वा दिया है। रानी से अपनत्व के कारण राजा शंख दुःखी रहता था। कभी वह रानी की अच्छी बातें याद करता और सोचता कि मेरे कलावती तो पतिव्रता होनी चाहिए। वह चरित्रहीन कैसे हो गई? पवित्र प्रेम दो देह, एक प्राण होते हैं। उसने तो अपने प्रेम की निशानी वे कंगन अपनी दासियों को छूने भी नहीं दिए, स्वयं ही पहने। मैं देखता हूं कि ये किस स्वर्णकार के यहां से बने हैं। स्वर्णकार से पता लग जाएगा कि ये किसने बनवाए हैं? मैं कलावती के प्रेमी को भी दंड दूंगा।

राजा ने कंगन निकाल कर उलट-पुलट कर देखे। उन पर ‘जयसेन’ लिखा था। राजा का सिर चकरा गया और वह रोने लगा - ‘हाय! हाय! यह मैंने क्या कर डाला? वह तो बार-बार कह रही थी कि जिसने यह कंगन दिए हैं, मेरा मन हर समय उसकी ‘जय जय’ बोलता है। पवित्र प्रेम का अर्थ मैं पापी ही नहीं समझ पाया। भाई-बहन का प्रेम तो पवित्र प्रेम होता है।’

रोते-रोते राजा शंख मूर्छित हो गया। मंत्री आदि सभी दौड़े-दौड़े आए। सबने उनकी बात सुनी और वे राजा को समझाने लगे। मंत्री ने कहा - ‘हुआ तो बहुत बुरा! बिना सोच विचार के शीलवती नारी को कठोर दंड दे दिया। जैसा भाग्य में था, वह तो हो गया। मुझे लगता है कि दत्त श्रेष्ठी ने रानी को निकालने की बात अब तक देवशाल नगर में पहुंचा दी होगी। तभी वहां से कोई नहीं आया।’

राजा गुमसुम बैठा था। फिर होश आया तो उसने सारथी को बुलाकर आदेश दिया कि तुमने रानी को जहां छोड़ा था, वहां दस-बीस रथ लेकर जाओ और रानी को खोजो। अगर मेरी प्राणप्रिया नहीं मिली, तो मैं जीवन भर वन में निवास करूंगा।

रानी को ढूंढने की जिम्मेदारी महामंत्री मतिसार ने ली। कलावती की खोज होने लगी। राजा को शांति तभी मिलेगी, जब रानी वापिस घर आ जाएगी।

जो मन के खेल को जानते हैं, वे द्वंद्व के चक्कर से बच जाते हैं और धर्म की शरण लेकर हर स्थिति में शांति पाते हैं। ऐसे ही लोगों को मुनि, संत श्रमण, साधु और ऋषि कहते हैं। उनका बाहरी वेश कैसा भी हो, पर अंतर में समता रस विद्यमान होता है।

भाग्य का संयोग देखिए। आचार्य अमिततेज अपने संघ के साथ शंखपुर नगर में पधारे और कुसुमाकर उद्यान में ठहर गए। राजा को खबर मिली, तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और वह उनके दर्शन करने पहुंचे तथा उनकी धर्म देशना सुनकर उनके मन को सुख मिला।

राजा ने आचार्य श्री से कहा - ‘हे प्रभु! मैं अपने दुष्कर्म का प्रायश्चित कैसे करूं? मैंने क्रोध में अंधे होकर अपनी सती रानी के दोनों हाथ कटवा दिए और उसे वन में छुड़वा दिया। जो हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता।’

मुनिराज बोले - ‘मान, माया, मोह आदि कषायों के वश में होकर मनुष्य बहुत बड़े-बड़े अनर्थ करता है। यह सब क्रोध कषाय का परिणाम है। क्रोध के समय हमें कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। हे राजन्! जैसा अविवेकी कार्य तुमने किया है, वैसा करने वाले और भी हुए हैं।

तुम्हें राजा पद्म के बारे में बताता हूँ। एक राजा पद्म थे। तुम्हारी तरह उसने भी अपनी रानी का तिरस्कार किया था। तुम भी अपने किए हुए को भूलो और धैर्य धारण करो।’

राजा शंख ने उत्सुक होकर पूछा - ‘राजा पद्म ने क्या किया था? कृपा कर सुनाएं।’

अब आचार्य अमिततेज राजा पद्म की कथा सुनाने लगे। राजा शंख के साथ सभी जन ध्यान से उस कथा को सुनने लगे।

राजा पद्म ने एक नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाकर वहाँ राज्य करने लगा। राज्य का नाम ‘पद्मपुर’ था। पद्मपुर के राजा पद्म के अंतःपुर में अनेक रानियां थी, फिर भी उनकी स्त्रियों में आसक्ति कम नहीं हुई। एक बार राजा पद्म सुमति मंत्री के साथ वन भ्रमण को गया। वहां उसने एक सुंदर कन्या को देखा। वह उसके ऊपर मोहित हो गया और उसने मंत्री से पूछा - ‘मेरे नगर में ऐसी सुंदरियां भी रहती हैं क्या? बता सकते हो कि यह किसकी पुत्री है?’

‘जी महाराज! यह अपने नगर के वरुण सेठ की पुत्री कमला है’, मंत्री ने राजा के मन की बात कही - ‘मैं इसके पिता से बात करूंगा। वह उसके साथ आपका विवाह कर देंगें।’

ऐसा ही हुआ। श्रेष्ठि वरुण ने इसे अपना सौभाग्य माना कि मेरी बेटी कमला राजरानी बनेगी। कमला का विवाह राजा के साथ हो गया।

पुराने समय में ऐसी प्रथा थी कि निश्चित विवाह तिथि पर राजा उपलब्ध न हो, तो कन्या का विवाह राजा की कटारी से कर देते थे। राजा पद्म से कमला का विवाह भी कटारी के माध्यम से हुआ, क्योंकि राजा उस समय युद्ध में गया हुआ था। राजा की अनुपस्थिति में कमला की विदाई भी नहीं हुई। वह अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

राजा पद्म को कमला से विवाह की बात याद ही नहीं रही और वह भूल गया कि कभी मेरे साथ कमला का विवाह हुआ था। महीनों बीत गए। संयोग से राजा पद्म ने पुनः कमला को मलिन वेश में देखा और मंत्री से पूछा कि इस लड़की को मैंने कभी पहले देखा है, लेकिन याद नहीं आ रहा।

मंत्री ने बताया कि महाराज! यह कमला है और इसका विवाह आपके साथ हो चुका है।

‘फिर तो हमसे बड़ी भारी भूल हो गई’, राजा ने पश्चाताप करते हुए कहा, ‘लेकिन राजरानी होते हुए भी यह इतने मलिन वेश में क्यों है?’

मंत्री ने बताया कि क्योंकि यह शीलवती नारी है। सती सन्नारी पति के वियोग में शृंगार नहीं करती और मलिन वेश में रहती है।

अब तो राजा कमला की प्रतिनिष्ठा से प्रभावित हुए। रूप से तो पहले ही प्रभावित थे। उसने धूमधाम के साथ कमला का प्रवेश अपने अंतःपुर में कराया। दासियों ने कमला की सुहाग शैया सजाई और पति को खुश करने के लिए कमला ने सोलह शृंगार किया।

रात आनन्द से बीती, पर राजा ने सोचा कि यह कमला तो काम कला में पटु है। जिस ढंग से इसने मुझे रति दान दिया, उससे तो यही सिद्ध होता है कि इसे सुहाग रात्रि का पूर्व अनुभव है। अतः हो न हो, यह कमला चरित्रहीन है।

अविवेकी राजा पद्म ने कमला रानी को मरवाने का निश्चय कर लिया। उसने यह नहीं सोचा कि सिंह के बच्चे को शिकार करना कौन सिखाता है? दूध पीता सिंह-शावक भी मगर को देखकर उसे दबोच लेता है, क्योंकि आखिर यही उसकी मूल प्रवृत्ति है। इसी तरह नारी को कामिनी कहते हैं। काम नारी की सहज प्रवृत्ति है। अतः वह रति शैया पर पति का सहयोग पाकर कामप्रवृत्त हो जाती है। उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ता।

लेकिन राजा पद्म तो अविवेकी था। उसने मंत्री को बुलाकर उसे आदेश दिया - ‘रानी कमला का वध करवा दो।’

मंत्री दूरदर्शी था। उसने प्रत्यक्ष में राजा की बात मान ली, लेकिन कमला को ले जाकर अपने भवन में छुपा कर रखा।

थोड़े दिनों बाद राजा पद्म के दरबार में कुछ विदूषक उसका मनोरंजन कर रहे थे। एक पुरुष ने राजा से कहा - ‘राजन्! हंसी-मजाक तो आपने खूब सुनी है, लेकिन चमत्कारी घटना आपने नहीं सुनी होगी। आप कहें तो मैं आपको बुद्धिमान की एक घटना सुना दूं।’

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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