सती कलावती (भाग - 5)
सती कलावती (भाग - 5)
शंखपुर नगर के कुसुमाकर उद्यान में बैठे आचार्य अमिततेज राजा शंख को पद्म राजा की कथा सुना रहे थे। बाद में मुनिराज ने कहा - ‘हे राजन्! तुम्हारे जैसा अविवेक पूर्ण आचरण राजा पद्म ने भी किया था। तुम अकेले ही अविवेकी नहीं हो। अपनी बीती बातों को भूलकर धैर्य धारण करो।’
राजा शंख ने मुनि महाराज से पूछा - ‘राजा पद्म को तो उनकी कमला पुनः मिल गई थी। प्रभु! मेरी कलावती रानी मुझे मिलेगी या नहीं। यदि वह मुझे नहीं मिली, तो मैं जीवित कैसे रहूंगा?’
अवधिज्ञानी मुनिराज अमिततेज ने कहा - ‘तुम्हारे सैनिकों को रानी कलावती तपस्वियों के आश्रम में मिलेगी। राजन्! तुम्हारी रानी अपने पुत्र के साथ है और तुम उनके शील का प्रभाव भी देखोगे। उसके कटे हाथ सही सलामत होंगे।’
धन्य! धन्य!! पूरी सभा में ‘धन्य! धन्य!!’ की आवाज होने लगी। ऐसी शीलवती सती के प्रभाव से जो हाथ राजा ने कटवा दिए थे, वे सही सलामत हो गए।
राजा शंख मुनिराज की वंदना करके अपने भवन में लौट गया। श्रेष्ठी दत्त कलावती को ढूंढते-ढूंढते तपस्वी आश्रम में पहुंचा। बहन-भाई की आंखों में आंसू थे और वे दोनों मिले तो श्रेष्ठी दत्त ने कहा - ‘बहिन कलावती! तुम्हें मेरे साथ शंखपुर चलना होगा। तुम्हारे वियोग में राजा शंख बहुत दुःखी हैं। जब उन्हें अपनी भ्रांति का पता चला, तो वे बहुत पछताए और मरने को तैयार हो गए। बहुत प्रयासों से उन्हें रोका गया है।’
कलावती बोली - ‘मेरा कर्तव्य पति को खुश रखना है। मुझे खुश रखकर मेरे पति खुश थे, तो मैं भी सुखी थी। अब वे मुझे पाकर खुश रहना चाहते हैं, तो मैं आपके साथ चलूंगी।’
राजकुमार व रानी को साथ लेकर श्रेष्ठी दत्त शंखपुर आया। उसे देखकर राजा शंख की आंखें भर आई। रानी के दोनों हाथ पकड़ कर राजा ने बरबस अपनी आंखों से लगा लिया और बोला - ‘हाय! मैंने ये हाथ कटवा दिए थे। तुम सती नारी हो। यह मैं हाथ कटवा कर ही जान पाया। धन्य है तुम्हारे शील की, जो तुम पुनः करवती हो गई हो। लेकिन कैसे हुई, सो बता दो।’
रानी ने अपने पुत्र को राजा की गोद में देते हुए कहा - ‘राजन्! पहले इसे पकड़ो। मुझे अपने पुत्र का पालन करना था और बिना हाथों के मैं इसे उठा भी नहीं पा रही थी। इसलिए मैंने नदी की देवी से हाथ मांगे, जिसके किनारे पर मिट्टी में इसका जन्म हुआ था। मैंने कहा कि हे देवी! यदि मैंने स्वप्न में भी परपुरुष का चिंतन न किया हो तो मेरे हाथ मुझे वापिस लौटा दो।’
रानी ने वन के जीवन के प्रसंग, राजकुमार के हाव-भाव राजा को हंस-हंस कर सुनाए। फिर राजा ने धूमधाम से अपने पुत्र का नामकरण किया और उसका नाम ‘पूर्वकलश’ रखा। राजपुत्र पूर्वकलश का लालन-पालन पांच धायों ने किया।
कलावती के सभी समाचार देवशाल नगर में भी पहुंचे। युवराज जयसेन अपनी बहिन और भांजे से मिलने आया। युवराज ने कलावती से कहा - ‘बहिन! मेरे कंगनों के कारण ही तुम्हारे हाथ कटे थे। यह तो बहुत बुरा हो गया था।’
रानी बोली - ‘कर्म सिद्धांत को मानने वाले होकर भी भाई, तुम कैसी बातें कर रहे हो? मैंने जो भी कष्ट पाया, अपने कर्मों के कारण पाया। कंगन तो उसमें बहाना बन गए। यदि मेरे कर्मों की बात न होती तो मेरे स्वामी मुझ से कंगनों के बारे में पूछ सकते थे।’
रानी के कहने से जयसेन को संतोष हुआ। फिर राजा शंख और रानी कलावती बहुत प्रेम से रहने लगे। दोनों एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रहते थे। राजकुमार पूर्वकलश बड़ा होकर विद्या अध्ययन करने लगा। एक बार शंखपुर में आचार्य श्री संघ सहित पधारे। राजा-रानी उनकी धर्म देशना सुनने गए। कर्मों के विषय में मुनिराज ने अमृतमयी प्रवचन दिए।
राजा ने श्रावक व्रत ग्रहण किया और फिर राजा शंख ने मुनिराज से पूछा - ‘हे प्रभु! रानी कलावती और मुझ में परस्पर बहुत प्रीति है। एक बार मुझे बहुत क्रोध आया, जिसके कारण मैंने रानी के दोनों हाथ कटवा दिए। यह भी पूर्व कर्म के वैरबंध के कारण हुआ होगा। तो प्रभु एक ओर अनन्य प्रेम और दूसरी ओर क्रूर वैर! इन दोनों विरोधी भावों का क्या कारण बना?’
मुनिराज बोले - ‘राजन्! तुम अपने पूर्व भव सुनो। बिना किए कुछ नहीं मिलता। पूर्व भव में रानी कलावती ने तुमसे बहुत प्रेम किया और अज्ञानतावश वैर भी किया। तुमने भी अज्ञानतावश ही वह वैर निभाया है।’ यह कहकर मुनिराज ने राजा शंख को उनके पूर्व भव की कथा सुनाई।
भरत क्षेत्र में महेंद्रपुर नाम का एक नगर था। महेंद्रपुर में राजा नरविक्रम राज्य करता था। उस राजा की सुलोचना नाम की बहुत सुंदर पुत्री थी। वह विदुषी और सच्ची श्राविका थी। उसके पिता नरविक्रम ने उसे एक तोता लाकर दिया था। वह तोता राजा ने एक चिड़िमार से खरीदा था। तोता बहुत सुंदर था और आकर्षक था। राजकुमारी सुलोचना उसे बहुत प्यार करती थी। उसे चुन-चुन कर मेवा और मिष्ठान खिलाती थी और एक पल भी उसे अपने से दूर नहीं करती थी। जहां भी जाती थी, उसे साथ लेकर जाती थी। प्रीति की पहचान पशु-पक्षियों को भी होती है। अतः तोता भी राजकुमारी को बहुत चाहता था, लेकिन उसकी चाह और प्रेम मौन था।
एक बार महेंद्रपुर नगर में मुनिराज आए। सारा राजपरिवार मुनि के प्रवचन सुनने गया। सुलोचना तोता का पिंजरा लेकर मुनिराज के दर्शन करने गई। तोते ने भी मुनिराज के दर्शन किए और प्रवचन सुने। जातिस्मरण से उसे अपने पूर्वभव का ज्ञान हो गया और तोते को कुछ व्रत लेने का भाव हुआ।
वह सोचने लगा कि पूर्व भव में मैं भी संयम धारी मुनि था। मैं भी चारित्र का पालन करता था, लेकिन संयम की विराधना के कारण मुझे तिर्यंच योनि मिली। अब मैं अपने जीवन को सफल करूंगा। यह सोचकर मन ही मन तोते ने यह नियम लिया कि मैं साधु के दर्शन के बिना भोजन नहीं करूंगा। तोते को लेकर राजकुमारी सुलोचना घर आ गई।
तोते को स्नान कराने के लिए जैसे ही पिंजरा खोला, तोता फुर्र से उड़ गया। अब राजकुमारी हाथ मलती रह गई। वह सोचने लगी कि आंखें फेरना तो कोई तोते से सीखे। कैसा निर्मोही तोता निकला? अब मैं उसके बिना कैसे जीऊंगी?
तोता स्वतंत्रता से घूमने लगा। कहीं-कहीं उसे मुनि के दर्शन हो जाते, तभी वह मुनि वंदना करके फल आदि का आहार करता और वह यह नियम अच्छी तरह निभा रहा था। तोते के वियोग में सुलोचना बहुत दुःखी रहने लगी। उसके लिए और तोते लाए गए, लेकिन उसे तो बस एक ही रट लगी थी कि मुझे तो वही तोता चाहिए।
राजा से पुत्री का दुःख देखा न गया। उसने चिड़ीमारों को आदेश दिया कि जैसे भी बने सुलोचना के तोते को पकड़ो। बहुत प्रयास के बाद चिड़िमार ने वही तोता पकड़ा और राजा को सौंप दिया।
राजा नरविक्रम ने वह तोता सुलोचना को देकर कहा - ‘अब इसे सावधानी और युक्ति से रखना। अब यह उड़ने न पाए।’
दुनिया की रीत है कि अपनों पर ही प्रेम आता है और अपनों पर ही क्रोध आता है। प्रेम के कारण सुलोचना को तोते पर क्रोध आया और बोली कि मैं तेरे बिना जी नहीं सकूंगी। अब तुझे उड़ने भी नहीं दूंगी।
मोह के कारण राजकुमारी ने तोते के दोनों पंख काट दिए। तोता बिना पंख के मुनि के दर्शन कैसे करेगा? उसने भोजन का त्याग कर दिया और सल्लेखना ले ली। राजकुमारी ने उसे भोजन देने की बहुत कोशिश की, पर तोते ने मेवा मिष्ठान की ओर देखा ही नहीं। 5 दिन बाद तोते ने प्राण त्याग दिए और देवगति प्राप्त की।
तोते के मरने से राजकुमारी सुलोचना को बहुत वेदना हुई। उसकी मौत का कारण उसने स्वयं को माना और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगी। पश्चाताप भी एक प्रकार का तप है। उस तप के प्रभाव से सुलोचना भी मरकर देव हुई।
देवायु पूर्ण करके तोते का जीव राजा शंख बन गया और सुलोचना के जीव ने राजकुमारी कलावती के रूप में जन्म लिया। राजन्! पूर्व भव में तुम दोनों में विशेष प्रीति थी, जो अब भी है। मोह के कारण सुलोचना ने तोते के पंख काटकर वैर का बंध किया था, तो तुमने भी अविवेक के कारण रानी पर क्रोध किया और उसके हाथ कटवा दिए। तुमने हाथ कटवा कर अपने पूर्व भव का बदला लिया।
अनजाने में किया गया कर्म भी कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसलिए दुष्कर्मों से डरो। कर्म का विधि-विधान सुनकर राजा-रानी हैरान रह गए और मुनि का वंदन करके अपने घर लौटे। कुछ दिनों बाद राजकुमार पूर्वकलश 72 कलाओं में निपुण हो गया और उसका विवाह भी हो गया।
एक दिन आचार्य जी अपने संघ सहित शंखपुर में आए। इस बार मुनि का दर्शन करके राजा-रानी दोनों को ही वैराग्य हो गया। पुत्र पूर्वकलश को राज्य देकर राजा शंख ने दीक्षा ग्रहण कर ली। रानी कलावती ने भी पति का अनुसरण करके संयम धारण कर लिया। तप करके मुनि शंख व रानी कलावती ने मरण समाधि करके स्वर्ग प्राप्त किया। सौधर्म स्वर्ग में दोनों ने उत्तम पद प्राप्त किया और देव तथा देवी बने।
धन्य है सती कलावती!!
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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