सती कलावती (भाग - 4)

सती कलावती (भाग - 4)

राजा पद्म ने अनुमति दे दी। वह व्यक्ति बुद्धिमान की कहानी सुनाने लगा।

एक नगर में ‘धर्म’ नाम का एक धनी व्यापारी रहता था। उसका लंबा-चौड़ा व्यापार था। खेती, पशुपालन और लेन-देन के काम से धर्म श्रेष्ठी को अपार धन की प्राप्ति हुई। जैसे लक्ष्मी उसके घर में जमकर ही बैठ गई। संयोग से उसकी सेठानी का नाम भी लक्ष्मी था।

धर्म श्रेष्ठि के चार पुत्र थे। बड़ा धनदेव, दूसरा धनदत्त, तीसरा धनसार और चौथा सोमदत्त था। चारों भाइयों में बहुत प्रेम था। चारों के विवाह हो चुके थे। धर्म श्रेष्ठी बूढ़ा हुआ और उसने अपने जीवन का अंत निकट जाना, तो अपने सारे धन का चार भागों में बंटवारा कर दिया।

एक दिन चारों पुत्रों को बुलाकर समझाया - ‘पुत्रों! मैंने तुम चारों के लिए चार कलशों में धन भर कर रख दिया है। हर एक कलश पर तुम्हारा नाम लिख दिया है। मेरे मरने के बाद अपने-अपने नाम का कलश ले लेना। उस धन से जीवन सुख से बिताना।’

साल भर बाद धर्म श्रेष्ठी की मृत्यु हो गई। कुछ दिन पिता के शोक में बीते। चारों भाइयों ने अपने-अपने नाम के कलश ले लिए।

बड़े पुत्र धनदेव ने अपना कलश खोला, तो उसमें मिट्टी भरी थी। धनदेव ने अपना माथा पीट लिया - ‘हाय! हाय! पिता ने मुझे यह क्या दिया? धनदत्त! तुम अपना कलश खोलो।’

धनदत्त ने अपना कलश खोला, तो पशुओं के सींग भरे हुए थे और कुछ उनकी पूंछ के बाल भी थे। धनदत्त अपने पिता को कोसने लगा - ‘इस बूढ़े ने हमारे साथ कैसा छल किया है? इन हड्डियों का मैं क्या करूंगा? भाई धनसार! तुम भी अपना कलश खोलो।’

धनसार ने अपना कलश खोला तो उसमें भोजपत्र के टुकड़े भरे थे। वह भी बहुत दुःखी हुआ। अब तीनों ने सोमदत्त से कहा - ‘तुम भी अपना कलश खोलो।’

सब की आंखें खुली की खुली रह गई क्योंकि उसमें सोने की मोहरें थी। छोटा पुत्र बहुत खुश हुआ।

धनदेव बोला - ‘यह तो पिताजी ने पक्षपात किया है। सब कुछ छोटे बेटे को दे गए।’

धनदत्त ने कहा - ‘यह पक्षपात तो वह अपने सामने भी करते थे। हम तीनों को काम में लगाए रखते थे और सोमदत्त पढ़ता रहता था, लेकिन यह पक्षपात हम नहीं चलने देंगे।’

धनसार ने कहा - ‘हम मोहरों को चार भागों में बांटेंगे।’

सोमदत्त अकड़ कर बोला - ‘मैं तो एक भी मोहर नहीं दूंगा। यह तो अपना-अपना भाग्य है।’

उन चारों में खूब लड़ाई हुई। अंत में चारों राजा के पास गए। राजा भी कुछ नहीं कह पाया। अंत में उसने निर्णय किया कि तुम चारों विदेश जाकर अपना-अपना व्यापार करो। कलशों को बंद करके रख दो।

राजा का आदेश चारों ने माना और व्यापार करने भी परदेश चले गए। मार्ग में पक्षुपाल नाम का एक गांव पड़ा। उस गांव का मुखिया पंचायत कर के गांव वालों का फैसला कर रहा था। वे चारों भी पंचायत में बैठ गए। वृद्ध मुखिया ने पूछा - ‘तुम चारों किसी धनी घर के लगते हो, फिर ऐसे क्यों भटक रहे हो?’

धनदेव ने अपनी राम कहानी सुनाई और कहा - ‘हमारे पिता तो बुद्धिमान थे, पर मरने से पहले उन्होंने हमारे साथ अच्छा नहीं किया, क्योंकि सब कुछ छोटे भाई को दे दिया और हम तीनों को मिट्टी, हड्डियां और भोजपत्र के टुकड़े दे दिए हैं।’

चारों की बात सुनकर मुखिया हंसा और बोला - ‘पत्थर तो तुम चारों की बुद्धि पर पड़े हैं। तुम्हारे नगर में कोई बुद्धिमान नहीं है क्या? राजा भी मूर्ख है। श्रेष्ठी पुत्रों! तुम्हारे पिता ने दूध का दूध और पानी का पानी न्याय किया है और अपनी संपत्ति का समान बंटवारा किया है।’

धनसार बोला - ‘वह कैसे? आप ही हमें समझा दो।’

मुखिया बोला - ‘सुनो! धनदेव के कलश में मिट्टी निकली। पिता ने उसे खेती का काम दिया है। खेतों की उपज का स्वामी धनदेव होगा।’

‘ठीक है। धनदेव पिता के सामने भी खेतों में काम करता था।’

मुखिया ने आगे कहा - ‘धनदत्त को पशुओं का काम दिया है, क्योंकि उसके कलश में पशुओं के सींग निकले हैं।’

‘जी! धनदत्त भी पिता के सामने पशुओं की देखभाल करता था।’ वह भी समझ गया।

धनसार ने कहा - ‘मैं पिता के सामने ऋण वसूली का काम करता था। मेरे कलश में भोजपत्र के टुकड़े निकले हैं। इसलिए हिसाब-किताब और बही खाते का काम उन्होंने मुझे दे दिया होगा। सोमदत्त अभी केवल पढ़ता था, वह कुछ नहीं करता था, इसलिए उसे धन दिया है।’

इस प्रकार अपनी समस्या का हल पाकर चारों भाई बहुत खुश हुए और वापिस अपने नगर को लौट गए।

विवेकी पुरुष ने राजा पद्म से कहा - ‘राजन्! हमारी सभी समस्याओं और दुःख का कारण बुद्धि है। हम खुशी से किसी को मुद्रा दान में देते हैं, तो ‘वाह वाह’ करते हैं और हमारी मुद्रा कहीं गिर जाती है, तो ‘हाय हाय’ करते हैं।’

राजा पदम ने बहुत गौर से बात सुनी और विचार किया कि पक्षुपाल के मुखिया ने न तो श्रेष्ठी पुत्रों का नगर देखा और न उनके कलश देखे। वह उनके व्यापार के बारे में कुछ नहीं जानता था। केवल बुद्धि से ही उसने सब कुछ बता दिया। इसी तरह अपनी बुद्धि से कमला ने भी कामपटुता प्राप्त की होगी। मैंने उस पर शक किया और उसे मरवा दिया।

पश्चाताप करते हुए राजा बहुत दुःखी हुआ और पत्नी के वियोग में मरने को तैयार हो गया। तब मंत्री ने राजा पद्म को सांत्वना दी और बताया कि मैंने कमला को मरवाया नहीं है। अपने घर में छुपा कर रखा है। कमला को पुनः पाकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उससे बोला - ‘प्रिये! यह मेरा अपराध था कि मैं विवाह के बाद तुम्हें भूल गया और तुम्हें अपने अंतःपुर में नहीं लाया। मेरे वियोग में तुम मलिन वेश में रही। दूसरा अपराध यह है कि तुम जैसी सती नारी को मैंने मरवाने का आदेश दिया। मेरे पुण्य से ही तुम मुझे पुनः मिली हो। अब मुझे क्षमा कर दो।’

कमला बोली - ‘अपराध तो मेरे हैं और क्षमा आप मांग रहे हैं। स्वामी! राज्य की बहुत सी बातें आप याद रखते हैं और मुझे भूल गए हैं। इसका कारण मेरे कर्मों का दोष था। बुरे कर्मों के उदय के कारण ही आप मुझे भूले और मुझे मरवाने का आदेश दिया। आप दुःखी न हों। यह तो कर्मों का खेल है।’

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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