सती कलावती (भाग - 2)
सती कलावती (भाग - 2)
जयसेन और कलावती को अतिथि भवन में ठहराया गया। एक शुभ लग्न में विवाह विधि संपन्न हुई। नगर भर में उत्साह चरम सीमा पर था। जगह-जगह नृत्यगान हो रहे थे। महाराज शंख के पास बैठी कलावती ऐसी शोभा पा रही थी, जैसे मदन के पास रति शोभा पाती है। 15 दिन तक विवाह का उत्सव मना। जयसेन ने विवाह के पश्चात अपने नगर जाने की अनुमति मांगी। उसने कलावती को कहा - बहिन! अब तू अपने असली घर में आ गई है। अब शंखपुर ही तेरा असली घर है।
कलावती की आंखों से आंसू गिरने लगे। जयसेन के वक्ष से लगकर उसने कहा - ‘भैया! मुझे भूल मत जाना। समय-समय पर आते रहना। अपने घर में मैं भी तुम्हें भूल नहीं पाऊंगी।’
जयसेन ने कहा - ‘दत्त भी तुम्हारा भाई है और वह यहीं रहता है। तुम चिंता मत करना। मैं भी आता रहूंगा।’
बहिन से और राजा शंख से और श्रेष्ठी दत्त से जयसेन ने विदा ली और अपने नगर देवशाल को चला गया। वह जो चारों प्रकार की सेना अपने साथ लाया था, वह भी दहेज के रूप में शंखपुर में छोड़ गया। रत्न आदि द्रव्य भी दहेज में दे गया।
उसके जाने के बाद कलावती कई दिनों तक अपने भाई को याद करती रही। राजा शंख और कलावती ऐसे रहते थे, जैसे जल और लहर, काया और छाया। चंद्र और चंद्रिका के समान दोनों में बहुत प्रीति थी। दोनों के दिन बहुत सुख से बीत रहे थे। राजा शंख कुछ महीनों तक अंतःपुर में रहा। फिर उन्हें अपना कर्तव्य याद आया और वह राजकाज में पूरा समय देने लगे और वन भ्रमण को भी जाने लगे।
एक बार राजा शंख वन भ्रमण को गए तो लौटे ही नहीं। दूसरे दिन दोपहर को जब महल में आए, तो रानी ने उनका स्वागत किया और बोली - ‘आप वन को गए, वह तो ठीक है पर मेरी नींद तो मुझे दे जाते। हम रात भर आपकी प्रतीक्षा में जागते रहे। आपको इससे क्या मिला?’
राजा शंख हंसने लगे।
रानी बोली - ‘इसमें हंसने की क्या बात है? पुरुष ऐसे ही होते हैं, जो अकेले सो लेते हैं।’
राजा ने कहा - ‘मुझे नींद जल्दी नहीं आती। तुम कहती हो कि नींद तो मेरी सौत है। वही नींद तुम्हें नहीं आई, तो शिकायत करने लगी। प्रिये! कल हम मार्ग भूल गए थे। मेरे अंगरक्षकों ने कहा कि अब तो सवेरे ही चलना चाहिए।’
रानी से मिलकर राजा शंख राजसभा में पहुंचे। रानी कलावती रात की प्रतीक्षा में खो गई। 6 महीने बाद भी दोनों को ऐसा लगता था जैसे अभी-अभी विवाह हुआ है।
रानी कलावती ने कहा - ‘दत्त भैया आए थे। वह कह रहे थे कि मैं राखी बंधवाने तुम्हारे घर नहीं आऊंगा। तुम भाई के घर क्यों नहीं आती? मैं जयसेन भाई की तरह नहीं हूं, पर तुम्हारा राखी बंध भाई तो हूं।’
राजा बोला - ‘तुम्हें दत्त के घर को अपना पीहर ही समझना चाहिए। तुम्हें भाई के घर जाना चाहिए। वह भी तो तुम्हारा भाई है।’
ऐसी बातें करते-करते उन्हें नींद आ गई और दोनों सो गए। रात के अंतिम प्रहर में रानी ने स्वप्न देखा। स्वप्न में स्वर्ण कलश लेकर रानी पनघट पर गई और जल भरकर सिर पर रखकर लाई। प्रभात का शंखनाद सुनकर राजा और रानी की आंख खुली। रानी ने राजा को स्वर्णमय कलश वाला स्वप्न सुनाया, तो प्रसन्न होकर राजा ने कहा - ‘प्रिये! तुम पुण्य आत्मा पुत्र की माता बनोगी, यही तुम्हारे स्वप्न का फल है।’
स्वप्न का फल सुनकर रानी का मुख शर्म से लाल हो गया और वह उठकर नित्य कर्म पूरे करने लगी। स्नानादिक से निवृत्त होकर उसने याचकों को दान दिया। राजा ने भी याचकों को दान दिया। अंतःपुर में सबको पता चल गया कि रानी कलावती गर्भवती हैं। सबने उत्सव मनाया। यह समाचार देवशाल नगर के राजा विजयसेन के पास पहुंचा। वह नाना बनने की खुशी में झूम उठे।
जयसेन भी खिल उठा कि मैं मामा बनूँगा। युवराज जयसेन को बहिन की याद आने लगी। वह सोचने लगे कि बड़े होकर सगे-संबंधी कितने दूर हो जाते हैं? एक दिन वह भी था, जब हम भाई-बहिन एक साथ खेलते थे व लड़ते भी थे। हम माता-पिता से शिकायत भी करते थे। हम दोनों में कितना प्रेम था। अब बहन दूर हो गई। शंखपुर नगर यहां से बहुत दूर है। बहिन के पुत्र के जन्मोत्सव पर मैं वहां जाऊंगा, लेकिन अभी तो 8-9 महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मैं बहिन के पास अपनी ऐसी भेंट भेज दूं कि वह हमेशा याद रखे। भूलना भी चाहे तो भूले नहीं। ऐसी क्या चीज दूं? हां! हां! कंगन ठीक रहेंगे। जिन्हें वह अपनी कलाई पर हर समय देखती रहेगी और सोचेगी कि यह कंगन मेरे भाई ने भेजे हैं।
युवराज जयसेन ने रत्नों से जड़े एक जोड़ी कंगन बनवाए और उन पर अपना नाम जयसिंह खुदवा दिया। अपने सेवक को बुलाकर कहा - ‘तुम शंखपुर चले जाओ। शंखपुर में श्रेष्ठी दत्त के घर जाना। वह तुम्हें बहिन कलावती से मिलवा देंगे। बहिन से कहना कि तुम्हारा भाई जयसेन मामा बनेगा, इस बात की उसे बहुत खुशी है। भांजे के जन्मोत्सव पर जयसेन धूमधाम के साथ भेंट लेकर आएगा। तब तक भाई की यह भेंट स्वीकार करो। महाराज से भी मिलने की जरूरत नहीं। वरना वह क्या सोचेंगे कि कोई रानी के पीहर से एक छोटी-सी भेंट लेकर आया है। उन्हें क्या पता कि जन्मोत्सव के समय मैं कितनी धूमधाम से आऊंगा।’
युवराज जयसेन के चतुर सेवक ने सब बातें अच्छी तरह समझ ली। वह कंगन लेकर शंखपुर आ गया और श्रेष्ठी दत्त के घर पहुंच गया। श्रेष्ठी दत्त उसको नहीं जानता था। फिर भी ‘आओ’ कहकर दत्त ने राज्य सेवक का स्वागत किया। इसका नाम कंठ था। संयोग से रानी कलावती भी दत्त के घर आई हुई थी। उसने भी अपने पीहर के सेवक को नहीं पहचाना, तो भी भाई जैसा ही स्नेह दिया और बोली - ‘कंठ भैया! तुमको मिलकर वही प्रसन्नता हुई, जैसे जयसेन को मिलकर होती।’
यह उनका बड़प्पन है कि महारानी अपने भाई के सेवक को भाई जैसा सम्मान दे रही है। यह भी नारी जीवन का रहस्य है।
रानी कलावती बोली - ‘पीहर का सेवक भी भाई जैसा होता है। ऐसा लगा मुझे जैसे मेरा भाई आ गया है। अब पीहर के समाचार सुनाओ। भैया जयसेन और माता-पिता की कुशल सूचना दो।’
कंठ ने देवशाल नगर की छोटी-मोटी घटनाएं बताई - ‘युवराज जयसेन यहां आने की तैयारी कर रहे हैं। तुम्हारे पुत्र की उत्पत्ति पर वह वहां से चलेंगे। तब तक की प्रतीक्षा सहन नहीं हुई सो यह कंगन भेजे हैं।’
रानी कलावती ने उन दोनों कंगनों को उलट-पलट कर देखा और कहा कि बहुत सुंदर हैं। उसने भेंट को माथे से लगाया। रानी कलावती ने कहा - ‘भाई के प्यार की निशानी कल धारण करूंगी। तुम राजमहल चलो।’
श्रेष्ठी दत्त ने कहा - ‘महाराज तो यहां नहीं हैं। उन्हें वन भ्रमण का बहुत शौक है। पता नहीं कब लौटेंगे।’
कंठ बोला - ‘मैं राजभवन जाकर क्या करूंगा? महारानी बहिन तो यहां मिल ही ली हैं। महाराज तो यहां है ही नहीं, तो उनसे कैसे मिलना होगा? आज की रात मैं यहीं ठहर जाऊंगा। मुझे कल जल्दी जाना है।’
रानी कलावती ने अपना हार सेवक कंठ को देकर कहा - ‘यह रानी बहिन की भेंट है। इसे स्वीकार करो। तुम भैया जयसेन के साथ अवश्य आना।’ और यह कहकर रानी कलावती श्रेष्ठी दत्त और कंठ से विदा लेकर अपने महल को चली गई।
महाराज शंख वन से लौट कर आए। राजा और रानी दोनों अलग कक्ष में सोते थे। रानी अलग कक्ष में बहुत देर तक धर्मग्रन्थ पढ़ा करती थी और सवेरे नित्य प्रतिदिन महाराज शंख की चरण वंदना करने जाती थी। रात को कोई जरूरी काम होता था, तो वह सूचना भिजवा देते थे कि वह रानी के महल में आएंगे। कभी महारानी भी अपनी ओर से बुला लेती थी।
आज महारानी की इच्छा हुई कि मैं महाराज को बुलवाऊं और कंगन दिखाऊं कि मेरे भैया ने भेजे हैं। फिर विचार आया कि वह थके हारे आए होंगे। जब वे वन से लौटते हैं, तो अधिक देर तक बात नहीं करते। उन्हें सवेरे ही कंगन दिखाऊंगी। कंगन को पहनकर जब मैं उनके चरण स्पर्श करूंगी, तो वह रानी से पूछेंगे कि कहां से आए? तब मैं कह दूंगी कि खुद ही जान लो। वह मुझसे बार-बार पूछेंगे तो मैं कहूंगी कि इस पर लिखा हुआ नाम पढ़ लो। वह पढ़ेंगे तो ‘जयसेन’ लिखा होगा। वे स्वयं ही समझ जाएंगे कि ये मेरे पीहर से आए हैं।
रानी यह सोचते हुए सो गई। सवेरा हुआ। कलावती प्रतिदिन कुछ देर शृंगार करती और पहले पति की चरणवंदना करने जाती। आज सोचा कि पूरा शृंगार करके भैया के दिए हुए कंगन पहनूंगी। आज कुछ देर से स्वामी के चरण स्पर्श करने जाऊंगी।
राजा शंख रानी की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ देर होते हुए देखा तो सोचा कि चलो आज हम रानी के भवन में चलें। होनहार बहुत बलवान होती है और वैसा ही संयोग बन जाता है। पूर्व के कर्मों से ही आज का भाग्य बनता है।
कर्म की वजह से रानी कलावती और राजा के मिलन का विचित्र संयोग बना। रानी कलावती की दासियां चित्रा और चारूमती उसका शृंगार कर रही थी। दोनों रानी को आभूषण पहना रही थी। एक पेटी की ओर संकेत करके रानी कलावती ने कहा कि ‘इस पेटी का आभूषण मैं स्वयं पहनूंगी।’
‘इसमें ऐसा क्या है जो आप स्वयं पहनोगी’, चित्रा ने पूछा, ‘हम भी तो देखें।’
रानी बोली - ‘जब पहनूंगी, तब देख लेना। पहले मेरी शीर्षमणि पहना देना।’
राजा शंख चुपचाप भवन के द्वार पर खड़े हो गए और रानी व दासियों की बात सुनने लगे। जब रानी का शृंगार हो गया, तो रानी ने जयसेन की भेंट वाले कंगन धारण किए। सुंदर कंगनों को देखकर चारूमती बोली - ‘रानी! यह तो बहुत सुंदर हैं। किसने दिए हैं?’
रानी ने कंगन सहित हाथों को माथे पर लगाकर कहा - ‘ये कंगन पवित्र प्रेम की निशानी है। इनको देने वाला मेरे हृदय में बसा है। मेरा हृदय सदा उसको ‘जय जय’ बोलता है। वह दूर होकर भी पास है। हम दोनों दो होकर भी एक समान हैं।’
राजा शंख ने सब कुछ सुन लिया। राजा उल्टे पैरों लौट गया और कक्ष में जाकर अपनी शैया पर गिर पड़ा। वह सोचने लगा - ‘अब संदेह की गुंजाइश कहां है? मन कहता है कि ऐसा ही है और कभी कहता है कि नहीं, ऐसा नहीं है। लेकिन मुझे तो अब निश्चय है कि कलावती किसी परपुरुष से प्रेम करती है। उसे प्रेमी के कंगन पर इतना गर्व है कि आज वह मेरी चरण वंदना करने भी नहीं आई। यह चरण वंदना भी ढोंग है या नहीं। सच है, नारी को विधाता भी नहीं जान पाया, तो मैं कैसे जान लेता? अब मैं उसके गर्व को चूर करूंगा। प्रेमी के कंगन धारण करने वाले के हाथ ही कटवा दूंगा।’
राजा शंख क्रोध में अंधा हो गया। काम और क्रोध दोनों जीव के महाशत्रु हैं। यह जीव को अंधा कर देते हैं। फिर विवेक तो रहता ही नहीं। राजा ने अपने सारथी को बुलवाया और उसे कुछ बताया और समझाया तथा चांडालिनियों को बुलाया और उन्हें कठोर आदेश दे दिया।
रानी कलावती राजा के कक्ष की ओर जाने की तैयारी कर रही थी, तभी राजा का सारथी आया और बोला - ‘महारानी की जय हो! महाराज कुसुमाकर उद्यान में गए हैं और आपके लिए भी वहीं पहुंचने को कहा है। रथ तैयार खड़ा है।’
महारानी कलावती ने अपने कंगनों पर दृष्टि डाली और कहा - ‘आज मुझे बहुत देर हो गई है। चलो, मैं चलती हूं। आज उद्यान में ही महाराज की चरण वंदना करूंगी।’
रानी रथ में बैठी और रथ दौड़ने लगा। रथ के पीछे चार चांडालिनियों का रथ भी चल रहा था। वह रथ रानी को नहीं दिख रहा था, पर चांडालिनियों को रानी के रथ की ध्वजा दिखाई दे रही थी। कुछ समय बाद रथ वन की ओर चलने लगा।
रानी ने हैरान होकर पूछा - ‘सारथी! रथ रोको। कुसुमाकर उद्यान तो वहीं है, जहां मुनि महाराज जाकर प्रवचन देते हैं। उसका पथ तो सीधा राजमार्ग से होकर जाता है। तुम इस वन में कहां जा रहे हो?’
सारथी कुछ नहीं बोला और रथ चलता रहा। अंत में रानी से नहीं रहा गया। रानी ने गुस्से में कहा - ‘सारथी! तुरन्त रथ रोको।’
सारथी ने कहा - ‘रथ तो वन में कुछ दूर जाने पर ही रुकेगा। क्षमा करना, महारानी! मैं राजा की आज्ञा से बंधा हूं।’
रानी का सिर चकरा गया और वह रथ में ही बेहोश हो गई। रथ चलता रहा। घने जंगल में सारथी ने रथ रोका। तब तक रानी को होश आ गया था।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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