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Showing posts from October, 2021

दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (3)

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा ( 3 ) सब प्रकार के दोषों से रहित जिन-भगवान् को नमस्कार कर सम्यग्दर्शन को खूब दृढ़ता के साथ पालन करने वाले जिनदास सेठ की पवित्र कथा लिखी जाती है। प्राचीन काल से प्रसिद्ध पाटलिपुत्र (पटना) में जिनदत्त नाम का एक प्रसिद्ध और जिन भक्त सेठ हो चुका है। जिनदत्त सेठ की स्त्री का नाम जिनदासी था। जिनदास, जिसकी यह कथा है, इसी का पुत्र था। अपनी माता के अनुसार जिनदास भी ईश्वर-प्रेमी, पवित्र-हृदयी और अनेक गुणों का धारक था। एक बार जिनदास सुवर्ण द्वीप से धन कमाकर अपने नगर की ओर आ रहा था। किसी काल नाम के देव की जिनदास के साथ कोई पूर्व-जन्म की शत्रुता होगी और इसलिए वह देव इसे मारना चाहता होगा। यही कारण था कि उसने लगभग सौ-योजन चौड़े जहाज़ पर बैठे-बैठे ही जिनदास से कहा - जिनदास, यदि तू यह कह दे कि जिनेन्द्र भगवान् कोई चीज नहीं, जैन-धर्म कोई चीज नहीं, तो तुझे मै जीवित छोड़ सकता हूँ, नहीं तो मार डालूँगा। उस देव की यह धमकी सुन जिनदास वगैरह ने हाथ जोड़कर श्री महावीर भगवान् को बड़ी भक्ति से नमस्कार किया और निडर होकर वे उससे बोले - पापी, यह हम कभी नहीं कह...

व्यंजनहीन अर्थ की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर व्यंजनहीन अर्थ की कथा निर्मल केवल-ज्ञान के धारक श्री जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर व्यंजन-हीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है। गुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन-भगवान् के सच्चे-भक्त थे। इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल-स्वभाव वाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिन-पूजा, दान, व्रत, उपवास आदि पुण्य-कर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिन-धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी। सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्रुता चली आ रही थी। इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उस पर चढ़ाई कर दी। पोदनपुर में महापद्म ने ‘सहस्त्रकूट’ नाम से प्रसिद्ध जिन-मन्दिर देखा। मन्दिर की हज़ार खभों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए। इनके हृदय में भी धर्म-प्रेम का प्रवाह बहने लगा। अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की उनकी भी इच्छा हुई। तब उसी समय इन्होंने अपनी राजधानी में पत्र लिखा। उसमें इन्होंने लिखा - ‘‘महास्तंभ-सहस्त्रस्य-कर्त्तव्यःसंग्रहो-ध्रुवम्।’’ अर्थात् बहुत ज...

सुव्रत-मुनिराज की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर सुव्रत-मुनिराज की कथा देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन्-भगवान को नमस्कार कर सुव्रत-मुनिराज की कथा लिखी जाती है। सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थी, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी। श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम इसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे। हज़ारों राजा-महारजा इनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे। एक दिन श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवशरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्होंने तपस्वी श्री सुव्रत-मुनिराज को सरोग दशा में देखा। सारा शरीर उनका रोग से कष्ट पा रहा था। उनकी यह दशा श्रीकृष्ण से न देखी गई। धर्म-प्रेम से उनका हृदय अस्थिर हो गया। उन्होंने उसी समय एक जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाया और मुनि को दिखलाकर औषधि के लिये पूछा। वैद्य के कहे अनुसार सब श्रावकों के घरों में उन्होंने औषधि-निर्मित लड्डूओं के बनवाने की सूचना करवा दी। थोड़े ही दिनों में इस व्यवस्था से मुनि को आराम हो गया, सारा शरीर फिर पहले सा सुन्दर हो गया। इस औषधि-दान के प्रभ...

भावानुराग-कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर भावानुराग-कथा सब प्रकार सुख के देने वाले जिन-भगवान् को नमस्कार कर धर्म में प्रेम करने वाले नागदत्त की कथा लिखी जाती है। उज्जैन के राजा धर्मपाल थे। उनकी रानी का नाम धर्मश्री था। धर्मश्री धर्मात्मा और बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी। यहाँ एक सागरदत्त नाम का सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के नागदत्त नाम का एक लड़का था। नागदत्त भी अपनी माता की तरह धर्म-प्रेमी था। धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी। इसका विवाह समुद्रदत्त सेठ की सुन्दर कन्या प्रियंगुश्री के साथ बड़े ठाटबाट से हुआ। विवाह में खूब दान दिया गया। पूजा उत्सव किया गया। दीन-दुखियों की अच्छी सहायता की गई। प्रियंगुश्री को इसके मामा का लड़का नागसेन चाहता था और समुद्रदत्त ने उसका विवाह कर दिया नागदत्त के साथ। इससे नागसेन को बड़ा नागवार मालूम हुआ। सो उसने बेचारे नागदत्त के साथ शत्रुता बाँध ली और उसे कष्ट देने का मौका ढूँढने लगा। एक दिन नागदत्त धर्म-प्रेम से जिन-मन्दिर में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था। उसे नागसेन ने देख लिया। सो इस दुष्ट ने अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिये एक षड़यन्त्र रचा। गले में से...

प्रेमानुराग-कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर प्रेमानुराग-कथा जो जिन-धर्म के प्रवर्तक हैं, उन जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर धर्म से प्रेम करने वाले सुमित्र-सेठ की कथा लिखी जाती है। अयोध्या के राजा सुवर्णवर्मा और उनकी रानी स्वर्णश्री के समय अयोध्या में सुमित्र नाम के एक प्रसिद्ध सेठ हो गये हैं। सेठ का जैन-धर्म पर अत्यन्त प्रेम था। एक दिन सुमित्र सेठ रात के समय अपने घर ही में कायोत्सर्ग-ध्यान कर रहे थे। उनकी ध्यान-समय की स्थिरता और भावों की दृढ़ता देखकर किसी एक देव ने सशंकित हो उनकी परीक्षा करनी चाही कि कहीं यह सेठ का कोरा ढोंग तो नहीं है। परीक्षा में उस देव ने सेठ की सारी सम्पत्ति, स्त्री, बाल-बच्चे आदि को अपने अधिकार में कर लिया। सेठ के पास इस बात की पुकार पहुँची। स्त्री, बाल-बच्चे रो-रोकर उसके पाँवों में जा गिरे और छुड़ाओ-छुड़ाओ की हृदय भेदनेवाली दीन प्रार्थना करने लगे। जो न होने का था वह सब हुआ। परन्तु सेठजी ने अपने ध्यान को अधूरा नहीं छोड़ा, वे वैसे ही निश्चल बने रहे। उनकी यह अलौकिक स्थिरता देखकर उस देव को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सेठ की शत-मुख से भूरि-भूरि प्रशंसा की। अंत में अपने निज-स्वरूप में आया ...

धरसेनाचार्य की कथा

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर धरसेनाचार्य की कथा उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर, जिसका केवल-ज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, हीनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाले धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है। गिरनार-पर्वत की एक गुहा में श्री धरसेनाचार्य, जो कि जैन-धर्म रूप समुद्र के लिये चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे। उन्हें निमित्त-ज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उम्र बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्र-ज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें। आचार्य ने तब तीर्थ-यात्रा के लिए आन्ध्र-प्रदेश के वेनातट नगर में आये हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा - ‘भगवान् महावीर शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो। लिखने का कारण यह है कि इस कलियुग में अंगादिका ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्र-ज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैन-सिद्धांत का उद्धार कर सकें।’ आचार्य ने पत्र देकर एक ब...

दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (2)

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा ( 2 ) इन्द्रादिकों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले जिनदत्त और वसुमित्र की कथा लिखी जाती है। उज्जैन के राजा सागरदत्त के समय उनकी राजधानी में जिनदत्त और वसुमित्र नाम के दो प्रसिद्ध और बड़े गुणवान् सेठ हो गये हैं। जिनधर्म और जिनाभिषेक पर उनका बड़ा ही अनुराग था। ऐसा कोई दिन उनका खाली न जाता था, जिस दिन वे भगवान् का अभिषेक न करते हों, पूजा-प्रभावना न करते हों, दान-व्रत न करते हों। एक दिन ये दोनों सेठ व्यापार के लिये उज्जैन से उत्तर की ओर रवाना हुए। मंजिल-दर-मंजिल चलते हुए एक ऐसी घनी अटवी में पहुँच गये, जो दोनों बाजू आकाश से बातें करने वाले अवसीर और माला पर्वत नाम के पर्वतों से घिरी थी और जिसमें डाकू लोगों का अड्डा था। डाकू लोग इनका सब माल-असबाब छीन कर हवा हो गये। अब ये दोनों उस अटवी में इधर-उधर घूमने लगे। इसलिये कि इन्हें उससे बाहर होने का रास्ता मिल जाये। पर इनका सब प्रयत्न निष्फल गया। न तो ये स्वयं रास्ते का पता लगा सके और न कोई इन्हें रास्ता बताने वाला ही मिला। अपने अटवी ...

दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (1)

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा ( 1 ) जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं, उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है। एक दिन सौधर्म-स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपनी सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा - जिस पुरुष का, जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वे दूसरों के बहुत से अवगुणों पर बिलकुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ़ गुणों के ग्रहण करने की ओर है, वह पुरुष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है। इन्द्र के मुँह से इस प्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजीले देव ने उससे पूछा - देवराज, जैसी इस समय आपने गुण-ग्राहक पुरुष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है भी। इन्द्र ने उत्तर में कहा - हाँ है, और वे हैं अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण। सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया। इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ-भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे। इनकी परीक्षा के लिये यह मरे कुत्ते क...

मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है (भाग 1 - 10)

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आराधना-कथा-कोश के आधार पर मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है (भाग 1 - 10 ) अतिशय निर्मल केवल-ज्ञान के धारक जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर मनुष्य-जन्म का मिलना कितना कठिन है , इस बात को दस दृष्टान्तों-उदाहरणों द्वारा खुलासा से समझाया जाता है। 1 . चोल्लक, 2 . पासा, 3 . धान्य, 4 . जुआ, 5 . रत्न, 6 . स्वप्न, 7 . चक्र, 8 . कछुआ, 9 . युग और 10. परमाणु। 1 . चोल्लक संसार के हितकर्ता नेमिनाथ भगवान् का निर्वाण होने के बाद अयोध्या में ब्रह्मादत्त बारहवें चक्रवर्ती हुए। उनके एक वीर सामन्त का नाम सहस्रभट्ट था। सहस्रभट्ट की स्त्री सुमित्रा की सन्तान एक लड़का था। इसका नाम वसुदेव था। वसुदेव न तो कुछ पढ़ा-लिखा था और न राज-सेवा वगैरह की उसमें योग्यता थी। इसलिए अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह इसे न मिल सकी, जो एक अच्छी प्रतिष्ठित जगह थी। और यह सच है कि बिना कुछ योग्यता प्राप्त किये राज-सेवा आदि में आदर-मान को जगह मिल भी नहीं सकती। इसकी इस दशा पर माता को बड़ा दुःख हुआ। पर बेचारी कुछ करने-धरने को लाचार थी। वह अपनी गरीबी के मारे एक पुरानी गिरी-पड़ी झोंपड़ी में आकर रहने लगी और किसी प्रकार अपना गुज़ारा चलाने ...