धरसेनाचार्य की कथा
आराधना-कथा-कोश के आधार पर
धरसेनाचार्य की कथा
उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर, जिसका केवल-ज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, हीनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाले धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है।
गिरनार-पर्वत की एक गुहा में श्री धरसेनाचार्य, जो कि जैन-धर्म रूप समुद्र के लिये चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे। उन्हें निमित्त-ज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उम्र बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्र-ज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें। आचार्य ने तब तीर्थ-यात्रा के लिए आन्ध्र-प्रदेश के वेनातट नगर में आये हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा -
‘भगवान् महावीर शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो। लिखने का कारण यह है कि इस कलियुग में अंगादिका ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्र-ज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैन-सिद्धांत का उद्धार कर सकें।’
आचार्य ने पत्र देकर एक ब्रह्मचारी को महासेनाचार्य के पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्र को पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघ से पुष्पदंत और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धांत के उद्धार करने में समर्थ मुनियों को बड़े प्रेम के साथ धरसेनाचार्य के पास भेजा।
ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य के पास पहुँचने वाले थे, उसकी पिछली रात को धरसेनाचार्य को एक स्वप्न दिखाई पड़ा। स्वप्न में उन्होंने दो हृष्ट-पुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पाँवों में पड़ते देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखकर आचार्य को जो प्रसन्नता हुई, वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब संदेहों का नाश करने वाली श्रुतदेवी-जिनवाणी सदा-काल इस संसार में जय-लाभ करे, उठ बैठे।
स्वप्न का फल उनके विचारानुसार ठीक निकला। सवेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी उन्हें चाह थी, आकर आचार्य के पाँवों में बड़ी भक्ति के साथ अपना सिर झुकाया और आचार्य की स्तुति की।
आचार्य ने तब उन्हें आशीर्वाद दिया - तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवान् के पवित्र शासन की सेवा करो। अज्ञान और विषयों के दास बने संसारी जीवों को ज्ञान देकर उन्हें कर्त्तव्य की ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयों के प्रति जो उनका कर्त्तव्य है, उसे पूरा करें।
इसके बाद आचार्य ने इन दोनों मुनियों को दो-तीन दिन तक अपने पास रखा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्त्तव्य-बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएँ सिद्ध करने को दी। आचार्य ने इनकी परीक्षा के लिये विद्या साधने के मत्रों के अक्षरों को कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्य की आज्ञानुसार ये दोनों इस गिरनार पर्वत के एक पवित्र और एकान्त भाग में भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या-सिद्ध करने को बैठे।
मंत्र-साधना की अवधि जब पूरी होने को आई तब दो देवियाँ इनके पास आई। इन देवियों में एक देवी तो आँखों से अंधी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे। देवियों के ऐसे असुन्दर रूप को देखकर इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा - देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों?
तब इन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों को व्याकरण से उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गलती न रह गई हो? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रों की गलती उन्हें भास गई। फिर उन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा। अबकी बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में इन्हें दिखाई पड़ी।
गुरु के पास आकर तब इन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य इनका वृतांत सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आचार्य ने इन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरु-सेवा के प्रसाद से जैन-धर्म के धुरंधर विद्वान् बनकर सिद्धान्त के उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार इन मुनियों ने शास्त्रों का उद्धार किया उसी प्रकार उन धर्म-प्रेमियों को भी शास्त्रों द्वारा शास्त्र प्रचार करना उचित है।
श्रीमान् धरसेनाचार्य और जैन-सिद्धान्त के समुद्र श्री पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धि को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र जैन-धर्म में लगावें; जो जीव-मात्र का हित करने वाले और देवों द्वारा पूजा किये जाते हैं।
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
Comments
Post a Comment