दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (1)
आराधना-कथा-कोश के आधार पर
दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (1)
जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं, उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है।
एक दिन सौधर्म-स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपनी सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा - जिस पुरुष का, जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वे दूसरों के बहुत से अवगुणों पर बिलकुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ़ गुणों के ग्रहण करने की ओर है, वह पुरुष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है।
इन्द्र के मुँह से इस प्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजीले देव ने उससे पूछा - देवराज, जैसी इस समय आपने गुण-ग्राहक पुरुष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है भी। इन्द्र ने उत्तर में कहा - हाँ है, और वे हैं अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण। सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया। इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ-भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे।
इनकी परीक्षा के लिये यह मरे कुत्ते का रूप ले रास्ते में पड़ गया। इसके शरीर से बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी। आने-जाने वालों के लिए इधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था।
इसकी इस असह्य-दुर्गन्ध के मारे श्रीकृष्ण के साथी सब भाग खड़े हुए। इसी समय वह देव एक दूसरे ब्राह्मण का रूप लेकर श्रीकृष्ण के पास आया और उस कुत्ते की बुराई करने लगा, उसके दोष दिखाने लगा। श्रीकृष्ण ने उसकी सब बातें सुनकर कहा - अहा! देखिए, इस कुत्ते के दाँतों की श्रेणी स्फटिक के समान कितनी निर्मल और सुन्दर है। श्रीकृष्ण ने कुत्ते के और दोषों पर, उसकी दुर्गन्ध आदि पर कुछ ध्यान न देकर उसके दाँतों की, उसमें रहने वाले थोड़े से भी अच्छे भाग की प्रशंसा ही की। श्रीकृष्ण की एक पशु के लिये इतनी उदार-बुद्धि देखकर वह देव बहुत खुश हुआ। उसने फिर प्रत्यक्ष होकर सब हाल श्रीकृष्ण से कहा और उचित आदर-मान करके अपने स्थान पर चला गया।
उसी तरह अन्य जिन-भगवान् के भक्त भव्य-जनों को भी उचित है कि वे दूसरों के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिये प्रेम के साथ उनके गुणों को ग्रहण करने का यत्न करें। इसी से वे गुण और प्रशंसा-पात्र कहे जा सकेंगे।
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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