सुव्रत-मुनिराज की कथा
आराधना-कथा-कोश के आधार पर
सुव्रत-मुनिराज की कथा
देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन्-भगवान को नमस्कार कर सुव्रत-मुनिराज की कथा लिखी जाती है।
सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थी, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी। श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम इसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे। हज़ारों राजा-महारजा इनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे।
एक दिन श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवशरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्होंने तपस्वी श्री सुव्रत-मुनिराज को सरोग दशा में देखा। सारा शरीर उनका रोग से कष्ट पा रहा था। उनकी यह दशा श्रीकृष्ण से न देखी गई। धर्म-प्रेम से उनका हृदय अस्थिर हो गया।
उन्होंने उसी समय एक जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाया और मुनि को दिखलाकर औषधि के लिये पूछा। वैद्य के कहे अनुसार सब श्रावकों के घरों में उन्होंने औषधि-निर्मित लड्डूओं के बनवाने की सूचना करवा दी। थोड़े ही दिनों में इस व्यवस्था से मुनि को आराम हो गया, सारा शरीर फिर पहले सा सुन्दर हो गया। इस औषधि-दान के प्रभाव से श्रीकृष्ण के तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ। सच है, सुख के कारण सुपात्र-दान से संसार में सत्पुरुषों को सभी कुछ प्राप्त होता है।
निरोग अवस्था में सुव्रत-मुनिराज को एक दिन देखकर श्रीकृष्ण बड़े खुश हुए। इसलिए कि उन्हें अपने काम में सफलता प्राप्त हुई। उनसे उन्होंने पूछा - भगवन्, अब अच्छे तो हैं?
उत्तर में मुनिराज ने कहा - राजन्, शरीर स्वभाव ही से अपवित्र, नाश होने वाला और क्षण-क्षण में अनेक अवस्थाओं को बदलने वाला है, इसमें अच्छा और बुरापन क्या है? पदार्थ का जैसा परिवर्तनशील स्वभाव है, उसी प्रकार यह शरीर कभी निरोग और कभी रोगी हो जाया करता है। हाँ, मुझे न इसके रोगी होने में खेद है और न निरोग होने में हर्ष! मुझे तो अपनी आत्मा से काम है, जिसे मैं प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ और जो मेरा परम कर्त्तव्य है।
सुव्रत योगिराज की शरीर से इस प्रकार निस्पृहता देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने मुनि को नमस्कार कर उनकी बड़ी प्रशंसा की।
पर जब मुनि की यह निस्पृहता जीवक वैद्य के कानों में पहुँची तो उन्हें इस बात का बड़ा दुःख हुआ, बल्कि मुनि पर उन्हें अत्यन्त घृणा हुई कि मुनि का मैंने इतना उपकार किया तब भी उन्होंने ऐसा कह दिया। वैद्य ने मुनि को बड़ा कृतघ्न समझा, उनकी बहुत निन्दा की, बुराई की। इस मुनि-निन्दा से उन्हें बहुत पाप का बन्ध हुआ। अंत में जब उनकी मृत्यु हुई तब वे इस पाप के फल से नर्मदा के किनारे पर एक बन्दर हुए। सच है, अज्ञानियों को साधुओं के आचार-विचार, व्रत-नियमादिकों का कुछ ज्ञान तो होता नहीं और व्यर्थ उनकी निन्दा-बुराई कर वे पाप-कर्म बाँध लेते हैं इससे उन्हें दुःख उठाना पड़ता है।
एक दिन की बात है कि यह जीवक-वैद्य का जीव बन्दर जिस वृक्ष पर बैठा हुआ था, उसके नीचे यही सुव्रत-मुनिराज ध्यान कर रहे थे। इस समय उस वृक्ष की एक टहनी टूटकर मुनि पर गिरी। उसकी तीखी नोक जाकर मुनि के पेट में घुस गई। पेट का कुछ हिस्सा चिरकर उससे खून बहने लगा। मुनि पर जैसे ही उस बन्दर की नज़र पड़ी उसे जाति-स्मरण हो गया।
वह पूर्व-जन्म की शत्रुता भूलकर उसी समय दौड़ा गया और थोड़ी ही देर में और बहुत से बन्दरों को बुला लाया। उन सबने मिलकर उस डाली को बड़ी सावधानी से खींच कर निकाल लिया और वैद्य के जीव ने पूर्व-जन्म के संस्कार से जंगल से जड़ी-बूटी लाकर उसका रस मुनि के घाव पर निचोड़ दिया। उससे मुनि को कुछ शान्ति मिली। इस बन्दर ने भी इस धर्म-प्रेम से बहुत पुण्य-बंध किया। सच है, पूर्व-जन्मों में जैसा अभ्यास किया जाता है, जैसा पूर्व-जन्म का संस्कार होता है दूसरे जन्मों में भी उसका संस्कार बना रहता है और प्रायः जीव वैसा ही कार्य करने लगता है।
बन्दर में, एक पशु में इस प्रकार दयाशीलता देखकर मुनिराज ने अवधि-ज्ञान द्वारा जाना तो उन्हें जीवक वैद्य के जन्म का सब हाल ज्ञात हो गया। उन्होंने तब उसे भव्य समझकर उसके पूर्व-जन्म की सब कथा उसे सुनाई और धर्म का उपदेश किया। मुनि की कृपा से धर्म का पवित्र उपदेश सुनकर धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गई। उसने भक्ति से सम्यक्त्व-व्रत-पूर्वक अणुव्रतों को ग्रहण किया। उन्हें उसने बड़ी अच्छी तरह पाला भी। अन्त में वह सात दिन का संन्यास ले कर मरा। इस धर्म के प्रभाव से वह सौधर्म-स्वर्ग में जाकर देव हुआ। सच है जैन-धर्म से प्रेम करने वालों को क्या प्राप्त नहीं होता। देखिए, यह धर्म का ही तो प्रभाव था जिससे कि एक बन्दर-पशु भी देव हो गया। इसलिए धर्म या गुरु से बढ़कर संसार में कोई सुख का कारण नहीं है।
वह जैन-धर्म जय-लाभ करे, संसार में निरन्तर चमकता रहे, जिसके प्रसाद से एक तुच्छ प्राणी भी देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की सम्पत्ति का लाभ उठाकर, उसका सुख भोगकर अन्त में मोक्ष श्री का अनन्त, अविनाशी सुख प्राप्त करता है। इसलिए आत्महित चाहने वाले बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्त्तव्य है कि वे मोक्ष-सुख के लिये परम-पवित्र जैन-धर्म को प्राप्त करने का और प्राप्त कर उसके पालने का सदा यत्न करें।
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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