दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (2)

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा (2)

इन्द्रादिकों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले जिनदत्त और वसुमित्र की कथा लिखी जाती है।

उज्जैन के राजा सागरदत्त के समय उनकी राजधानी में जिनदत्त और वसुमित्र नाम के दो प्रसिद्ध और बड़े गुणवान् सेठ हो गये हैं। जिनधर्म और जिनाभिषेक पर उनका बड़ा ही अनुराग था। ऐसा कोई दिन उनका खाली न जाता था, जिस दिन वे भगवान् का अभिषेक न करते हों, पूजा-प्रभावना न करते हों, दान-व्रत न करते हों।

एक दिन ये दोनों सेठ व्यापार के लिये उज्जैन से उत्तर की ओर रवाना हुए। मंजिल-दर-मंजिल चलते हुए एक ऐसी घनी अटवी में पहुँच गये, जो दोनों बाजू आकाश से बातें करने वाले अवसीर और माला पर्वत नाम के पर्वतों से घिरी थी और जिसमें डाकू लोगों का अड्डा था।

डाकू लोग इनका सब माल-असबाब छीन कर हवा हो गये। अब ये दोनों उस अटवी में इधर-उधर घूमने लगे। इसलिये कि इन्हें उससे बाहर होने का रास्ता मिल जाये। पर इनका सब प्रयत्न निष्फल गया। न तो ये स्वयं रास्ते का पता लगा सके और न कोई इन्हें रास्ता बताने वाला ही मिला। अपने अटवी से बाहर होने का कोई उपाय न देखकर अंत में इन जिन-पूजा और जिनाभिषेक से अनुराग करने वाले महानुभावों ने संन्यास ले लिया और जिन भगवान् का ये स्मरण-चिंतन करने लगे। सच है, सत्पुरुष सुख और दुःख में सदा समान भाव रखते हैं, विचारशील रहते हैं।

एक और अभागा भूला भटका सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण इस अटवी में आ फँसा। घूमता-फिरता वह इन्हीं के पास आ गया। अपने जैसी इस बेचारे ब्राह्मण की दशा देखकर ये बड़े दिलगीर हुए। सोमशर्मा से इन्होंने सब हाल कहा और यह भी कहा कि यहाँ से निकलने का कोई मार्ग प्रयत्न करने पर भी जब हमें न मिला तो हमने अंत में धर्म की शरण ले ली। इसलिये कि यहाँ हमारी मरने के सिवा कोई गति ही नहीं है और जब हमें मृत्यु का सामना करना ही है तब कायरता और बुरे भावों से क्यों उसका सामना करना, जिससे कि दुर्गति में जाना पड़े। धर्म दुःखों का नाश कर सुखों का देने वाला है। इसलिये उसी का ऐसे समय में आश्रय लेना परम हितकारी है। हम तुम्हें भी सलाह देते हैं कि तुम भी सुगति की प्राप्ति के लिये धर्म का आश्रय ग्रहण करो।

इसके बाद उन्होंने सोमशर्मा को धर्म का सामान्य स्वरूप समझाया - देखो, जो अठारह दोषों से रहित और सबके देखने वाले सर्वज्ञ हैं, वे देव कहलाते हैं और ऐसे निर्दोष भगवान् द्वारा बताये दयामय मार्ग को धर्म कहते हैं। धर्म का वैसे सामान्य लक्षण है - जो दुःखों से छुड़ाकर सुख प्राप्त करावे।

ऐसे धर्म को आचार्य ने दस भागों में बाँटा है। अर्थात् सुख प्राप्त करने के दस उपाय हैं। वे ये हैं - उत्तम क्षमा, मार्दव (हृदय का कोमल होना), आर्जव (हृदय का सरल होना), सच बोलना, शौच अर्थात् निर्लोभी या संतोषी होना, संयम (इन्द्रियों को वश में करना), तप (व्रत, उपवासादि करना), त्याग (पुण्य से प्राप्त हुए धन को सुकृत के काम जैसे दान, परोपकार आदि में लगाना), आकिंचन (परिग्रह अर्थात् धन-धान्य, चाँदी-सोना, दास-दासी आदि इस प्रकार के परिग्रह की लालसा कम करके आत्मा को शान्ति के मार्ग पर ले जाना) और ब्रह्मचर्य को पालना।

गुरु वे कहलाते हैं जो माया, मोह-ममता से रहित हों, विषयों की वासना जिन्हें छू तक न गई हो, जो पक्के ब्रह्मचारी हों, तपस्वी हों और संसार के दुःखी जीवों को हित का रास्ता बतलाकर उन्हें सुख प्राप्त कराने वाले हों। इन तीनों पर अर्थात् देव, धर्म, गुरु पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन, सुख-स्थान पर पहुँचने की सबसे पहली सीढ़ी है।

इसलिये तुम इसे ग्रहण करो। इस विश्वास को जैन-शासन या जैन-धर्म भी कहते हैं। जैन-धर्म में जीव को, जिसे आत्मा भी कहते हैं, अनादि माना है। न केवल माना ही है, किंतु वह अनादि ही है, नास्तिकों की तरह वह पंच-भूत अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इनसे बना हुआ नहीं है। क्योंकि ये सब पदार्थ जड़ हैं। ये देख-जान नहीं सकते और जीव का देखना जानना ही खास गुण है। इसी गुण से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।

जीव को जैन-धर्म दो भागों में बाँट देता है। एक भव्य अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ-कर्मों का, जिन्होंने आत्मा के वास्तविक स्वरूप को अनादि से ढाँक रखा है, उसे नाश कर मोक्ष जाने वाला और दूसरा अभव्य - जिसमें कर्मों के नाश करने की शक्ति न हो।

इनमें कर्म-युक्त जीव को संसारी कहते हैं और कर्म-रहित को मुक्त। जीव के सिवा संसार में एक और भी द्रव्य है। उसे अजीव या पुद्गल कहते हैं। इसमें जानने-देखने की शक्ति नहीं होती, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।

अजीव को जैन-धर्म पाँच-भागों में बाँटता है, जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन पाँचों की दो श्रेणियाँ की गई हैं, एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक। मूर्तिक उसे कहते हैं जो स्पर्श की जा सके, जिसमें कुछ न कुछ स्वाद हो, गंध और वर्ण रूप-रंग हो अर्थात् जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये विशेषताएं पाई जायें, वह मूर्तिक है और जिसमें ये न हों वह अमूर्तिक है। उक्त पाँच द्रव्यों में सिर्फ़ पुद्गल तो मूर्तिक है अर्थात् जिसमें उक्त चारों बातें सदा से हैं और रहेंगी, कभी उससे जुदा न होंगी। इसके सिवा धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अमूर्तिक हैं। प्रकरणवश तुम्हें जैन धर्म का यह सामान्य स्वरूप कहा। हमें विश्वास है कि अपने हित के लिये इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे।

सोमशर्मा को यह उपदेश बहुत पसन्द आया। उसने मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को स्वीकार कर लिया। इसके बाद जिनदत्त व सुमित्र की तरह वह भी संन्यास ले भगवान् का ध्यान करने लगा। सोमशर्मा को भूख-प्यास, मक्खी-मच्छर आदि की बहुत बाधा सहनी पड़ी।

उसे उसने बड़ी धीरता के साथ सहा। अंत में समाधि से मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म-स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से श्रेणिक महाराज का अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ। अभयकुमार बड़ा ही धीर-वीर और पराक्रमी था, परोपकारी था। अंत में वह कर्मों का नाश कर मोक्ष गया।

सोमशर्मा की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद जिनदत्त और वसुमित्र को भी समाधि से मृत्यु हुई।

वे दोनों भी इसी सौधर्म-स्वर्ग में, जहाँ कि सोमशर्मा देव हुआ था, देव हुए।

संसार का उपकार करने वाले और पुण्य के कारण जिनके उपदेश किये धर्म को कष्ट के समय में भी धारण कर भव्य-जन उस कठिन से कठिन सुख को, जिसके प्राप्त करने की उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं होती, प्राप्त कर लेते हैं, वे सर्वज्ञ भगवान् मुझे वह निर्मल सुख दें, जिस सुख की इन्द्र, चक्री और विद्याधर राजा भी पूजा करते हैं।

 

।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।

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