मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश
मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
आज मुनि श्री ने ‘समाधिमरण’ के विषय में बताया कि हम कैसे मृत्यु को मातम नहीं, मृत्यु महोत्सव में बदल सकते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी पुरुषार्थ देशना में बताते हैं कि जब तक हमारे अन्दर पूज्य-पूजक की दृष्टि रहेगी, तब तक सल्लेखना-समाधि नहीं हो सकती। सल्लेखना का अर्थ है - सत् लेखना। हे ज्ञानी! शरीर को तो सुखा लिया पर कषाय भावों को नहीं सुखाया तो शरीर तो चला जाएगा, पर सल्लेखना नहीं हो पाएगी।
आचार्यों ने 5 प्रकार के मरण की बात कही है।
1. बाल बाल मरण - तुमने अनेक बार जन्म लिया और अज्ञानता में जीते रहे। जन्म को सुधारने की बातें तो बहुत की लेकिन मरण को सुधारने की ओर ध्यान नहीं दिया और अंत में शरीर छोड़ कर अगली पर्याय में चले गए। यह है बाल बाल मरण। बाल बाल मरण नहीं किया होता तो आज तुम्हारी बार-बार वंदना होती। पूरा जीवन केवल जीने के लिए नष्ट कर दिया, लेकिन मरण को सुधारने के लिए कुछ भी नहीं किया। तुम नहीं जानते कि यह मृत्यु महोत्सव ही जीवन का अंतिम महोत्सव है।
2. बाल मरण - जो मरण सम्यक्त्व के साथ अव्रत दशा में किया जाता है, वह बाल मरण है। सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद भी व्रत-नियम-संयम का पालन नहीं किया तो तुम्हारा मरण बाल मरण कहलाएगा।
3. बाल पंडित मरण - सम्यक्त्व के साथ देशव्रती अथवा प्रतिमाधारी साधक का मरण बाल पंडित मरण कहलाता है।
4. पंडित मरण - सम्यक्त्व के साथ महाव्रतों को धारण करने वाले का मरण पंडित मरण कहलाता है।
5. पंडित पंडित मरण - केवली भगवान का देह-त्याग पंडित पंडित मरण होता है। लेकिन ध्यान रखना कि जब तक पंडित मरण नहीं करोगे, तब तक पंडित पंडित मरण होना संभव नहीं है। आप जानते हैं कि बिना निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण किए पंडित मरण नहीं होता और बिना पंडित मरण किए पंडित पंडित मरण नहीं होता। यदि किसी कारणवश एक सच्चे भावलिंगी निर्ग्रन्थ मुनि का सामान्य मरण हो जाता है, तो वह 32 भव से अधिक संसार में नहीं भटकता और यदि समाधिपूर्वक सल्लेखना सहित मरण होता है, तो कम से कम 2-3 भवों में और अधिक से अधिक 7-8 भवों में वह मोक्ष को प्राप्त कर लेगा।
भो ज्ञानी! जो जीव सल्लेखना सहित मरण की भावना भाते हैं, उन्हें विवेक से कुछ बातें समझने योग्य हैं। सर्वप्रथम रसना इन्द्रिय पर नियन्त्रण करना आरम्भ कर देना चाहिए। जीवन के अंतिम समय में वासना नहीं, रसना अधिक सताती है। चाहे खाया न जाए, पर खाने के लिए माँगते रहते हैं। जिस समय जिह्वा पर भोजन रखा हो और उसी समय प्राण निकल जाएं, तो आप सोच सकते हैं कि कैसी गति मिलेगी। चली गई न पूरे जीवन की साधना व्यर्थ!
समाधि हमेशा एकान्त में होती है। समाधि कराई नहीं जाती, स्वयं के परिणामों के अनुसार की जाती है। समाधि कराने वाले ‘निर्यापकाचार्य’ व अन्य वैयावृत्ति करने वाले मुनि व श्रावकगण उसमें सहयोगी बनते हैं। सल्लेखना व्रत लेने वाला ‘क्षपक’ कहलाता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तम सल्लेखना के लिए 12 वर्ष पहले ही निर्यापकाचार्य की खोज कर ली जाती है।
आज ही अपने पुत्र को बता कर रखो कि तुम मेरे पुत्र हो, मेरे आत्मज्ञ हो। यह ध्यान रखना कि अंतिम समय में मुझे हॉस्पिटल न ले जाना, बल्कि रत्नत्रय की औषधि देने वाले वैद्य अर्थात् मुनि महाराज के पास ले जाना। अब तक मैं शरीर की सुरक्षा में ही लगा रहा। अब मैं अपनी आत्मा की सुरक्षा का प्रयास कर रहा हूँ।
आप सल्लेखना को ज़रा सा सिरदर्द या गृहस्थी में आने वाली विषमताओं से बचने का उपाय न समझो। समाधि ऐसे नहीं होती कि ज़रा मन बेचैन हुआ तो चलो सल्लेखना ले लेते हैं। यह कोई खेल-तमाशा नहीं है। सल्लेखना लेने से पहले यह देखो कि रत्नत्रय अर्थात् सम्यक् दर्शन, ज्ञान व चारित्र का पालन हो रहा है या नहीं।
सल्लेखना कब करें? अपने जीवन में एक गुरु हमेशा बना कर रखना। गुरु आपके जीवन में सुरक्षा कवच के समान हर समय आपकी रक्षा करेगा। जानते हो न! एक मिट्टी के गुरु ने एकलव्य को धनुर्विद्याधारी बना दिया था। गुरु आचार्य होते हैं, वे आपसे आचरण नहीं कराते, वे तो आपके असंयमित आचरण पर सील अर्थात् रोक लगाते हैं। बिना गुरु के सान्निध्य के सल्लेखना करने मत बैठ जाना। अन्यथा व्रत भी भंग होगा और सुमरण के स्थान पर कुमरण हो जाएगा।
गुरु जान लेते हैं कि अब इस जीव की कितनी आयु शेष है और यह सल्लेखना का पात्र है या नहीं। स्वस्थ शरीर हो, आयुकर्म अभी शेष हो तो असमय सल्लेखना आरम्भ करने से परिणाम कलुषित हो जाते हैं।
आप अभ्यास के लिए एक घंटे का चारों प्रकार के आहार का त्याग का व्रत लेकर जिनालय में बैठ जाओ, पंच परमेष्ठी का ध्यान करो। यह सल्लेखना का अभ्यास है।
सल्लेखना के दो भेद हैं - यम सल्लेखना और नियम सल्लेखना। जब योगीजन विहार करते हैं और जंगल आदि निर्जन स्थानों को पार करते हैं तो नियम सल्लेखना ले लेते हैं कि जब तक मैं इस जानवरों के आक्रमण की संभावना वाले क्षेत्र से पार नहीं हो जाता, तब तक नियम सल्लेखना का पालन करूँगा। वे मौन व्रत लेकर पंच परमेष्ठी के ध्यान में लीन हो जाते हैं या अकाल पड़ जाए, इन्द्रियाँ काम करना बंद कर दें तो नियम सल्लेखना का व्रत लिया जा सकता है। यम सल्लेखना सदा गुरु की आज्ञा से ही ली जाती है।
अतः सावधानी से गुरु के निर्देशन में अपने अंतिम समय में सल्लेखना धारण करो और अपना जन्म ही नहीं, मरण भी सफल बनाओ ताकि तुम्हारी मृत्यु एक महोत्सव बन जाए।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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