बालक और राजा का धैर्य

बालक और राजा का धैर्य

सुधर्म नामक पांचाल देश का राजा अपनी स्त्री जिनमति के साथ सुखपूर्वक रह रहा था। ये दोनों जैन धर्म के अनुयायी व सद्गृहस्थ थे। उनका राज्यमंत्री जयदेव था, जो चार्वाक मत का अनुयायी था। सारा राज्य सुख-शांति और वैभव से युक्त था।

एक दिन राजा राज्यसभा में बैठा था, तभी एक दूत ने आकर समाचार दिया कि महाबल नाम का दुश्मन राजा प्रजा को पीड़ित कर रहा है। यह सुनकर राजा क्रोधित हो गया। उसने विचार किया कि मैं यद्यपि किसी पर शस्त्र नहीं उठाता हूँ, किंतु जो देश को हानि पहुंचाता है, उस पर अवश्य हमला करता हूं।

नीति कहती है कि जो युद्ध करने को ललकारे और देश की हानि करे, राजा उसी पर शस्त्र प्रयोग करते हैं। दीन, कन्या, पुत्र और अच्छे अभिप्राय वालों पर शस्त्रों का प्रयोग नहीं करते। दुष्टों को मारना ही राजा का धर्म है।

ऐसा विचार कर राजा सुधर्म अपने शत्रु राजा महाबल को युद्ध में जीत कर, उसका सब धन छीन कर, प्रसन्नता पूर्वक अपने नगर में वापस आ जाता है।

जब राजा सेना के साथ नगर में प्रवेश कर रहा था, तब नगर का मुख्य द्वार गिर गया। उसे गिरा देखकर अपशकुन समझ कर राजा सुधर्म लौट गया और नगर के बाहर ही ठहर गया। मंत्री ने शीघ्र ही प्रमुख द्वार तैयार करवा दिया, परंतु दूसरे दिन भी प्रमुख द्वार गिर गया।

राजा ने मंत्री से पूछा - इस प्रकार प्रमुख द्वार क्यों गिरता है? यह स्थिर कैसे होगा?

मंत्री ने जवाब दिया - राजन्! अपने हाथ से एक मनुष्य को मारकर उसके खून से यदि मुख्य द्वार को सींचा जाए, तो यह स्थिर रह सकता है, अन्य प्रकार से नहीं।

राजा जैन धर्म का अनुयायी था। जीवों का पालनहार था, संहारक नहीं।

राजा ने कहा - जिस नगर में जीव घात किया जाता है, उस नगर से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। जहां मैं स्थित हूं, वही मेरे लिए नगर है। वह सोना किस काम का, जिससे कान कटने लग जाएं।

जो अपना हित चाहता है, उसे हिंसा नहीं करनी चाहिए और यदि कोई हिंसा करे, तो उसे भी मना करना चाहिए।

राजा ने कहा - जीव का वध न मैं स्वयं करूंगा और न ही दूसरों से कराऊंगा तथा न ही अनुमोदन करूंगा।

मंत्री व नगर वासियों ने राजा से कहा कि हे राजन्! प्रमुख द्वार तैयार करवाने के लिए हम लोग सब कुछ कर सकते हैं। आप कृपया मौन रहिए।

राजा ने कहा - जब प्रजा पाप-पुण्य करती है, तब उसका छठा भाग राजा को मिलता है। नीति भी कहती है कि देश के लोगों द्वारा किया गया पाप राजा को, राजा का पाप पुरोहित को, स्त्री का किया पाप पति को और शिष्य का किया पाप गुरु को लगता है।

प्रजाजनों ने कहा - राजन्! पाप का पूरा भाग हमारा और पुण्य का पूरा भाग आपका होगा। आप मौन रहिए।

राजा ने विवश होकर तथास्तु कहकर आज्ञा दे दी।

महाजनों ने धन इकट्ठा कर एक सोने की मनुष्य की आकृति बनवाई। उसे रत्नों से सजाया। उस सोने के मनुष्य को गाड़ी पर चढ़ाकर नगर में घोषणा करवाई कि कोई माता अपने हाथ से जहर देकर या पिता गला दबाकर अपने बालक को देगा, तो उसे यह सोने से बना पुरुष और साथ में एक करोड़ रुपए भी दिए जाएंगे।

इसी नगर में एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था, जिसके सात पुत्र थे। उसने अपनी स्त्री से पूछा कि हम अपने छोटे बेटे को देकर यह द्रव्य ले लें और अपना जीवन खुशहाली में व्यतीत करें क्योंकि गृहस्थी धन के अभाव में बेकार है। यदि हम दोनों कुशल हैं, तो अन्य बहुत-से पुत्र हो जाएंगे।

स्वार्थी माता ने अपनी स्वीकृति दे दी।

ब्राह्मण ने घोषणा करने वालों से कहा कि इस द्रव्य को लेकर मैं अपना छोटा पुत्र देता हूं।

महाजनों ने फिर दोहराया कि माता अपने हाथ से जहर देगी या पिता गला घोट कर देगा, तो ही समस्त धन और वस्तुएं दी जाएंगी, अन्यथा नहीं।

माता-पिता ने सभी शर्तें स्वीकार कर ली।

माता-पिता की इस चेष्टा को जानकर छोटा पुत्र मन में विचारने लगा कि संसार में सभी स्वार्थी हैं। किसी को किसी से सच्चा प्रेम नहीं है। यही संसार की दशा है।

द्रव्य लेकर पिता ने अपना पुत्र महाजनों को सौंप दिया। आभूषणों सहित माता-पिता व कुटुम्बीजनों से घिरा हुआ पुत्र हंसता हुआ प्रधान द्वार के सम्मुख पहुंचा। बालक को हंसता देखकर राजा ने पूछा - रे बालक! तू हंस क्यों रहा है? तुझे अपने मरने का डर नहीं लगता है।

बालक ने राजा से कहा - जब तक भय नहीं आता, तब तक ही भय करना चाहिए। भय आ जाने पर समता से उसे सहन करना चाहिए। भय को आता देख कर शंका रहित होकर उस पर प्रहार करना चाहिए।

बालक ने उन्हें कहा - माता के द्वारा संताप को प्राप्त बालक, पिता की शरण में जाता है और पिता से संताप को प्राप्त बालक माता की शरण में जाता है। दोनों के द्वारा संताप को प्राप्त बालक राजा की शरण में जाता है और राजा के द्वारा संताप को प्राप्त हुआ बालक महाजनों की शरण में जाता है, परंतु जहां माता जहर देती है व पिता गला घोट रहा हो, महाजन धन देकर ग्रहण करते हों और राजा ऐसा कार्य करने की प्रेरणा देता हो, वहां किसके आगे अपना दुःख कहा जाए?

जहां माता-पिता के द्वारा पुत्र दिया गया हो, राजा शस्त्र घात करने वाला हो, देवता बलि की इच्छा करता हो, वहां रोने-चीखने से क्या हो सकता है? जिसकी मृत्यु होना निश्चित हो चुका हो, उसकी मुक्ति धैर्य रखने से ही हो सकती है।

बालक के वचन सुनकर राजा ने कहा - इस प्रधान द्वार से और इस नगर से मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं जंगल में जहां हूं, वहीं नया नगर बसा लूंगा। राजा और बालक का ऐसा धैर्य देखकर नगर देवता ने स्वयं ही प्रमुख द्वार का निर्माण कर दिया और बालक का सम्मान किया।

नीतिकार कहते हैं कि उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम जिसके पास हैं, देवता भी उससे भय खाते हैं। वही सबसे बड़ा बलवान एवं गुणवान होता है।

सुविचार - अंधा वह होता है, जिसके पास अपनी कमियों को देखने के लिए आँख नहीं होती।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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