सती कुसुम श्री (भाग - 11)
सती कुसुम श्री (भाग - 11)
आइए् आपको ललितांग विद्याधर से मिलवाते हैं, जो श्रीपुर के जंगल में घायल होकर पड़ा था।
एक महिलापुरी नाम की नगरी थी। ललितांग नाम का विद्याधर राजा वहां राज्य करता था। उसकी रानी लीलाकृत थी जो अद्वितीय सुंदरी थी। वह पतिव्रता नारी थी। एक दिन उद्यान में दोनों क्रीड़ा कर रहे थे। तभी विद्युतप्रभ विद्याधर ने लीलाकृत के सौंदर्य को देखा और उस पर मोहित हो गया। उसने उस परस्त्री के साथ रमण करने का निश्चय कर लिया।
एक दिन ललितांग कहीं बाहर गया हुआ था। विद्युतप्रभ विद्याधर ने ललितांग का रूप बनाया और लीलाकृत रानी के पास आया। वह उसे कहने लगा कि चलो! कहीं घूम आएं।
लीलाकृत ललितांग का रूप धारण किए हुए विद्युतप्रभ को नहीं पहचान पाई। वह उसकी बातों में आ गई और उसके साथ शोभनीक वन में चली गई।
विद्याधर विद्युतप्रभ ने उसका शील भंग कर दिया।
जब ललितांग बाहर से आया, तो उसे लीलाकृत नहीं मिली। पूछने पर दासी ने बताया कि कुछ देर पहले आप ही तो आए थे। आप ही उन्हें विमान में घुमाने के लिए लेकर गए थे।
ललितांग विद्याधर का माथा ठनका। उसने जान लिया कि कोई कपटी मेरा रूप बनाकर लीलाकृत को विमान में बिठाकर ले गया है। ललितांग विद्याधर लीलाकृत रानी को ढूंढने लगा और शोभनीक वन में पहुंचा। जब वह शोभनीक वन के क्रीड़ा स्थल पर पहुंचा तो उसने लीलाकृत और विद्युतप्रभ दोनों को एक शैया पर देखा।
उसे बहुत क्रोध आया। उसने विद्युतप्रभ को ललकारा और दोनों में द्वन्द्व युद्ध हुआ। विद्युतप्रभ ने ललितांग को हरा दिया। उसने ललितांग को एक पेड़ पर बांधकर लटका दिया और वापिस लीलाकृत रानी के पास आ गया।
लीलाकृत रानी को सारे वृतान्त का पता चला, तो उसने विद्युतप्रभ को बहुत धिक्कारा और अपनी जीभ खींचकर अपने प्राण त्याग दिए।
विद्युतप्रभ उसे फटी-फटी आंखों से देखने लगा और फूट-फूट कर रोने लगा।
एक दिन श्रीपुर का राजा नयनसार घोड़े पर बैठकर वन भ्रमण को गया। उसका घोड़ा तेज गति से दौड़ता था। लगाम खींचने पर और भी तेज दौड़ता था और लगाम ढीली करने पर रुक जाता था, लेकिन राजा नयनसार लगाम खींचता रहा। उसे पता नहीं था कि यह लगाम ढीली करने पर रुकेगा।
उसने लगाम खींचे रखी, जिससे घोड़ा रुका नहीं। वह और भी अधिक तेज गति से भागता रहा। राजा अपनी जान बचाने के लिए घोड़े की पीठ पर चिपक गया। रास्ते में एक वटवृक्ष आया, जिसकी जटाएं नीचे झुकी हुई थी। राजा ने उन जटाओं को पकड़ लिया और घोड़ा नीचे से निकल गया। अब राजा की जान में जान आई और वह उसी पेड़ के नीचे सो गया।
जब उसकी आंख खुली, तो उसने देखा कि एक स्थान से खून टपक रहा है। वह उस स्थान पर गया। वहां उसने एक घायल मनुष्य को देखा, जो पेड़ से बंधा हुआ था। उसने बंधन खोले, उसके घाव पर औषधि लगाई। जब वह स्वस्थ हो गया तो उससे पूछा - ‘आप कौन हैं?’
उसने कहा - ‘मैं ललितांग विद्याधर हूं। एक विद्याधर ने मेरी पत्नी का कपट से अपहरण किया है और मेरी यह दुर्दशा की है। तुमने मुझे बचाया क्यों?’
नयनसार और ललितांग दोनों विद्युतप्रभ के पास गए। उन्होंने देखा कि वह लीलाकृत के शव के पास बैठा रो रहा था। अपनी मृत पत्नी को देखकर ललितांग और भी क्रोधित हो गया। उसने विद्युतप्रभ की खूब पिटाई की।
राजा नयनसार ने कहा - ‘धैर्य धरो और अब इसे छोड़ दो व इसे अभय दान दे दो। इसे मारने से तुम्हारी पत्नी लौट कर नहीं आएगी।’
फिर ललितांग से विद्युतप्रभ ने क्षमा मांगी। तीनों ने मिलकर उस वन में लीलाकृत का दाह-संस्कार किया।
जब वे तीनों बैठे थे, तब एक ऋद्धिधारी मुनि आकाश में विचरण कर रहे थे। उन्होंने अवधि ज्ञान से जान लिया और वह उनके पास नीचे आए।
उन तीनों ने मुनिराज की वंदना की।
मुनिराज ने उन्हें कल्याणकारी उपदेश दिया।
राजा ने मुनिराज से पूछा - ‘हे महा मुनिराज! विद्युतप्रभ लीलाकृत से इतना मोहित क्यों हुआ और उसके मरने पर इतना क्यों रोने लगा?’
मुनिराज बोले - सुनो! जो जैसा कर्म बांधता है, वैसा ही फल पता है।
लीलाकृत और विद्युतप्रभ के पूर्व भव की कहानी सुनो। वैतालपुर नगर में एक वणिक रहता था। उसकी सेठानी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता थी। एक बार एक अज्ञानी साधक सेठ के घर भिक्षा लेने गया। सेठानी उसे भोजन देने के लिए सामने आई। वह मुनि उस पर मोहित हो गया और कहने लगा कि भिक्षा ही देनी है, तो अपने भोग की भिक्षा दो।
सेठानी ने मुनि को समझाया कि हे मुनिराज! तुमने इतने वर्षों तक साधना की है। तुम अज्ञान के कारण उस साधना को क्यों धूल में मिलाना चाहते हो? अब तुम लोक-परलोक क्यों बिगाड़ना चाहते हो? ऐसा कह कर तुम अपने साथ मेरा भी धर्म बिगाड़ोगे।
तब भी मुनि नहीं माना, तो सेठानी ने उसके सिर के ऊपर डंडा मारा। मुनि ने प्राण छोड़ते हुए यह निदान बांधा कि मैं अगले जन्म में इसे अपनी पत्नी बनाऊंगा। इसे अवश्य प्राप्त करूंगा।
वह मुनि मर कर विद्युतप्रभ विद्याधर हुआ। सेठानी का पति ललितांग विद्याधर हुआ। इसके कारण ही विद्युतप्रभ लीलाकृत पर मोहित हुआ और उसकी यह दुर्गति हुई। कर्मों की गति बहुत विचित्र है। कर्म तो महापुरुषों और तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ते, फिर हमारी तो बात ही क्या है?
मुनि के द्वारा पूर्व भव सुनकर विद्युतप्रभ को वैराग्य हो गया और वह मुनि बन गया। ललितांग और राजा नयनसार ने श्रावक व्रत अंगीकार कर लिए, क्योंकि उनके कर्मभोग अभी शेष थे।
ललितांग ने नयनसार राजा से कहा - ‘आपने मेरे ऊपर बहुत उपकार किया है। मुझे मरने से बचाया है और शत्रु पर विजय प्राप्त करवाई है। मैं आपको कुछ देना चाहता हूं। आप मना मत करना।’
राजा नयनसार ने कहा - ‘मैंने जो कुछ किया, वह तो मेरा कर्तव्य था। फिर भी आप जो देना चाहोगे, मैं उसे ले लूंगा।’
ललितांग विद्याधर ने राजा को दो विद्याएं सिद्ध करा दी। गगन गामिनी और इंद्रजाल विद्या सिद्ध करके नयनसार अपने नगर आकाश मार्ग से आया और पूर्ववत् राज्य करने लगा।
जैसा कि पहले बताया गया था कि रत्नपुरी के राजा और कनकशालपुर के राजा हरिकेशरी के पुत्र वीरसेन की दिव्या शैया और घोड़े का अपहरण हो गया था। एक वर्ष बीत गया था। एक वर्ष के बाद कुसुमपुर की रक्षक देवी ने सोचा कि अब मुझे वीरसेन की सहायता करनी चाहिए। सही समय आने पर देवी-देवता भी सहायक बन जाते हैं।
देवी वीरसेन की सहायता के लिए गई।
एक दिन राजा वीरसेन राजा नयनसार की सभा में गया। उसने देखा कि नयनसार बंधन में जकड़ा हुआ असहाय अवस्था में तड़प रहा है। सभा में कोई नहीं समझ पा रहा था कि राजा नयनसार को बंधन से मुक्त कैसे करें?
राजा नयनसार चारों तरफ़ देख रहा था। उसने कहा कि कोई मुझे पानी पिला दो।
वीरसेन पानी पिलाने के लिए नयनसार के पास गया। तभी एक देवी प्रकट हुई और कहने लगी कि अपने शत्रु को पानी पिलाते हो? इसे मरने दो।
वीरसेन ने कहा - ‘मातेश्वरी! यह मेरा शत्रु कैसे हो गया? इसने मेरा क्या बिगाड़ा है?’
देवी अपने सौम्य रूप में आई।
वीरसेन ने उन्हें प्रणाम करके कहा - ‘हे देवी! तुम तो कुसुमपुर की देवी हो न! मेरे लिए क्या आज्ञा है?’
देवी ने कहा - ‘वत्स! राजा नयनसार ने ललितांग विद्याधर से इंद्रजाल और गगनगामिनी विद्या सिद्ध कर ली है। इसी ने शैया और घोड़े का हरण किया है। मैंने तुम्हें वचन दिया था कि समय आने पर मैं तुम्हारी सहायता करूंगी। तुम्हारी दोनों चीजें तुम्हें दिलाऊंगी।’
यह कहकर देवी नयनसार पर झपटी, पर वीरसेन ने देवी के पैर पकड़कर कहा - ‘अंबे! इसे प्राणदान दो। जो गुड़ से मर सकता हो, उसे विष देकर क्या मारना? अब तो यह वैसे ही अच्छी राह पर आ गया है। मैंने जो कष्ट सहे, वे मेरे कर्मों का फल था। देवी! नयनसार को क्षमा कर दो।’
देवी ने नयनसार को छोड़ दिया।
वीरसेन ने देवी से कहा - ‘इसके बंधन खोल दो। मेरी तरह यह भी आपका भक्त बन जाएगा।’
देवी ने सोच कर कहा - ‘वत्स! इसके बंधन खोलना मेरी शक्ति से बाहर है। चाह कर भी मैं इसके बंधन नहीं खोल सकती।’
वीरसेन ने कहा - ‘देवी! क्या आपसे भी शक्तिशाली कोई देवी है?’
देवी ने कहा - ‘वत्स! इसके बंधन को खोलने की शक्ति किसी देवी में नहीं है। कोई मन-वचन-कर्म से शील का पालन करने वाली सती ही इसके बंधन खोल सकती है। वह सती कच्चे सूत की छलनी से पानी खींचे और उस पानी को इस पर छिड़क दे, तो इसके बंधन खुल जाएंगे।’
तभी रनिवास में खबर की गई। रनिवास से सब रानियाँ आई। जो स्वप्न में भी पर पुरुष का चिंतन नहीं करती, वही सच्ची सती होती है।
देवी ने कहा - ‘तुम्हारे नगर में पुष्पा वेश्या के यहां एक सती रहती है। उसे ले आओ और उसके शील का प्रताप देखो।’
सभा के सदस्य कुसुम श्री से मिले और कहा कि राजा नयनसार का जीवन अब आपके हाथ में है। आप देवी के कथनानुसार उन पर जल छिड़कोगी, तो नयनसार के सारे बंधन खुल जाएंगे।
एक गुण के साथ और गुण भी जुड़ जाते हैं। धर्म निष्ठा जहां होगी, वही सती होगी और वही दयालु, परोपकारी व धर्मवती होगी।
कुसुम श्री उनके साथ कुएं के पास पहुंची। वहां पर हजारों लोगों की भीड़ थी। उसने कच्चे सूत से छलनी को बांध कर जल खींचा। फिर कुसुम श्री रथ पर बैठ कर राजसभा में पहुंची। कुसुम श्री ने राजा पर जल के छींटे दिए और राजा नयनसार के बंधन चट-चट करके टूट गए।
देवी ने कुसुम श्री का स्तवन किया। लोगों ने पुष्प बरसाए। देवों ने भी पुष्प वृष्टि की। जब सबके मन में आश्चर्य की लहर उठी, तब देवी ने कुसुम श्री और वीरसेन को सारा वृतांत बताया।
देवी ने बताया कि कुसुम श्री ने किस प्रकार पुष्पा वेश्या के यहां अपने शील को बचाया है।
वीरसेन अपनी सोच पर बहुत पछताया और कुसुम श्री से क्षमा याचना की। कुसुम श्री ने कहा कि यह सब दोष मेरे कर्मों का था और उसने वीरसेन से पैरों में पड़कर क्षमा मांगी।
देवी ने कहा - ‘तुम दोनों के अशुभ कर्मों का अंत हो गया है। पिछली बातें छोड़ो और नया जीवन शुरू करो।’ देवी यह कहकर अंतर्ध्यान हो गई।
राजा नयनसार ने वीरसेन का परिचय पाकर उसे अपने साथ राजसिंहासन पर बिठाया। राजा नयनसार की रानी कुसुम श्री को अपने महल में ले गई। श्रीपुर के राजा नयनसार ने जो शैया और घोड़ा चुराया था, वह उसने वीरसेन को वापिस सौंप दिया। चूड़ामणि तोता कुसुम श्री के पास रनिवास में रहने लगा। अब वीरसेन भी नयनसार का अतिथि बनकर महल में रहने लगा।
कुसुम पुरी नगरी की देवी ने नगरी को पुनः बसाया। वहाँ राजमार्ग बनाया। सूखे पेड़-पौधों पर फिर से फल-फूल आ गए। सुखे सरोवरों और बावड़ियों में जल भर गया। नगरी भव्य और सुंदर बन गई। किसान खेती करने लगे। ग्वाले दूध दोहने लगे। दूध की नदियां बहने लगी। व्यापारी अपने व्यापार में लग गए।
देवी ने प्रजा से कहा कि तुम्हारी नगरी का राजा वीरसेन है, जो श्रीपुर के राजा नयनसार का अतिथि है। उसकी रानी कुसुम श्री है। रानी कुसुम श्री के नाम पर ही यह नगरी कुसुम पुरी है। अब तुम श्रीपुर जाओ और राजा-रानी को लेकर आओ, जिससे यहां की शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके।
देवी ने पांच नागरिकों को वीरसेन को बुलाने के लिए श्रीपुर भेजा। उन्होंने देवी का संदेश वीरसेन को दिया।
वीरसेन ने राजा नयनसार से जाने की अनुमति मांगी। राजा नयनसार की आंखें भर आई। राजा नयनसार ने भरे कंठ से वीरसेन और कुसुम श्री की विदाई की। वीरसेन को गगन गामिनी और इंद्रजाल विद्याएं वापस कर दी। वीरसेन ने दोनों विद्याएं ग्रहण कर ली।
वीरसेन और कुसुम श्री तोते, घोड़े, दिव्य शैया और दोनों विद्याओं के साथ कुसुमपुर में आ गए। वहां राजा वीरसेन का राज्याभिषेक हुआ। सभा सांसद व अमात्यों की नियुक्ति हुई और न्याय नीति से राजा अपनी प्रजा का पालन करने लगा। राजा वीरसेन और कुसुम श्री वहां दान-पुण्य करते हुए चैन से रहने लगे।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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