सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)
सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)
पिता का पत्र पाकर ऋषिदत्ता को अपार दुःख हुआ। उसने भी निश्चय किया कि जैसे भी हैं, अब तो वह मेरे पति हैं। उनके साथ ही मुझे अपना जीवन काटना है। वैसे भी माता-पिता का साथ विवाह तक ही होता है। भाग्य के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता।
ऋषिदत्ता के बड़े भाई सहदेव की पत्नी सुंदरी ने गर्भधारण के 2 महीने बाद अपने मन की बात पति से कही कि मुझे नर्मदा नदी में नहाने की इच्छा हुई है। अपनी पत्नी को लेकर सहदेव नर्मदा पर गया। वहां दोनों ने स्नान किया और तट पर ही भोजन किया।
भोजन करते-करते सहदेव के मन में विचार आया कि मुनियों के ठहरने के लिए और भक्तों की साधना के लिए एक आश्रम बनवा दूँ तो बहुत अच्छा रहे।
सहदेव ने अपनी पत्नी सुंदरी से विचार विमर्श किया। इस पुण्य कार्य को करने की सहमति पाकर सहदेव ने एक भव्य उपाश्रय बनवाया। उसने सोचा कि इस उपाश्रय में विहार करते हुए मुनि ठहरेंगे तो यात्री जन उनकी देशना भी सुनने के लिए आएंगे। विचार बढ़ा तो सहदेव ने वहाँ एक नगर बसाने की योजना ही बना ली। फिर तो एक नया नगर ही बस गया। इस नगर का नाम नर्मदापुर रखा गया।
सहदेव का पिता ऋषभ सेन और भाई वीर दास का परिवार वहीं आकर बस गए।
सुंदरी ने 9 महीने के बाद एक कन्या को जन्म दिया। सुंदरी को नर्मदा में स्नान का दोहद हुआ था, इसलिए सहदेव ने कन्या का नाम नर्मदा सुंदरी रख दिया। नर्मदा सुंदरी बचपन से ही सुंदर थी। वह बड़ी होकर साक्षात शचि और रति जैसी लगने लगी। उसके रूप सौन्दर्य की चर्चा दूर-दूर के नगरों तक पहुंच गई।
इधर ऋषिदत्ता ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम था महेश्वरदत्त। महेश्वरदत्त 72 कलाओं में निपुण था और सर्वांग सुंदर युवक था।
एक बार रूपचंद अपना व्यापार करने के लिए वर्धमान नगर गया तो पता चला कि सेठ ऋषभ सेन तो अपने पुत्र के बसाए हुए नगर नर्मदा पुर में उसी के साथ रहते हैं। वह यदि वहां होते तो भी रूपचंद उनके यहां नहीं जाता, क्योंकि उनसे उसका संबंध विच्छेद हो गया था। रूपचंद अपने व्यापार के काम से गया था। उसने अपने मित्र से ससुर का हाल-चाल पूछा तो पता चला कि ऋषभ सेन की पौत्री और सहदेव की पुत्री नर्मदा सुंदरी अपूर्व सुंदर है।
रूपचंद ने ऋषिदत्ता को उसके पीहर के हाल-चाल सुनाए, तो उसे सबसे अच्छी बात लगी नर्मदा सुंदरी से संबंधित। उसने अपने मन में सोचा कि मेरा महेश्वरदत्त नर्मदा सुंदरी से हर बात में बराबर है। इन दोनों की जोड़ी कितनी अच्छी रहती, लेकिन मेरे पति विधर्मी हैं, इसलिए मेरे माता-पिता ने मुझसे संबंध तोड़ लिया है। यदि संबंध अच्छे होते तो मैं भाई सहदेव से विवाह की बात करती।
पुराने समय में मौसी और मामा की लड़की के साथ विवाह संबंध हो जाते थे। उस युग में इन संबंधों में किसी भी प्रकार की बुराई नहीं मानी जाती थी। इसलिए ऋषिदत्ता भी चाहती थी कि नर्मदा सुंदरी की शादी महेश्वरदत्त से हो जाए। लेकिन कैसे हो? ऋषिदत्ता इसी चिंता में रहने लगी।
माँ को चिंतित देखकर एक दिन महेश्वर दत्त ने उन से चिंता का कारण पूछा, तो ऋषिदत्ता ने उसे सब कुछ बता दिया।
इस पर महेश्वर दत्त बोला - मां! तुम चिंता मत करो। मैं नर्मदा सुंदरी को तुम्हारी पुत्रवधू बनाकर ले आऊंगा।
ऋषिदत्ता ने पूछा - कैसे? क्या उसका हरण करेगा?
महेश्वर दत्त बोला - मां! हर काम के बिगड़ने-बनने का जोड़ा है। यदि संबंध बिगड़ता है, तो बनता भी है। मैं मामा सहदेव के पास जाऊंगा। मामा सहदेव, मामा वीर दास और नाना ऋषभ सेन को मैं अपने व्यवहार से खुश करूंगा। आपकी कृपा से विवाह करके ही लौटूंगा।
ऋषिदत्ता बोली - फिर ठीक है। तू नर्मदा पुर चला जा और अपने पिता से भी आज्ञा ले ले।
महेश्वर दत्त ने अपने पिता रूपचंद से आज्ञा ली और नर्मदापुर पहुंच गया। सचमुच उसके विनम्र और मधुरभाषी स्वभाव से सभी प्रभावित हो गए। नर्मदा सुंदरी उसकी सुंदरता को देखकर मोहित हो गई। सेठ ऋषभ सेन भी उसे चाहने लगे और सोचने लगे कि यदि वह विधर्मी पिता का पुत्र न होता, तो मैं इसका विवाह नर्मदा सुंदरी से कर देता।
एक दिन महेश्वर दत्त ने अपने नाना ऋषभ सेन से कहा - नाना जी! अब मेरे परिवार में मुझ से जैन धर्म की परंपरा चलेगी। माना कि मेरे पिता की जैन धर्म में रुचि नहीं है, पर माँ तो जैन धर्म को मानती है। मैंने तो पूरी तरह जैन धर्म मान लिया है।
महेश्वर दत्त ने यह बात सच्चे हृदय से कही थी। अतः ऋषभ सेन सेठ व सहदेव आदि सभी उसकी बात से प्रभावित हुए। अतः महेश्वर दत्त के साथ नर्मदा सुंदरी का विवाह हो गया।
महेश्वर दत्त अपनी पत्नी के साथ दहेज का धन लेकर अपने घर आया। ऋषिदत्ता और रूपचंद दोनों ही सर्वगुण संपन्न नर्मदा सुंदरी को पुत्रवधू के रूप में पाकर बहुत प्रसन्न हुए। महेश्वर दत्त का दांपत्य जीवन सुख से बीतने लगा। नर्मदा सुंदरी परम शीलवती नारी थी। उसके प्रभाव से महेश्वर दत्त भी सच्चा धर्मनिष्ठ बन गया। उसके सास-ससुर आदि भी जैन धर्म का पालन करने लगे।
बाल-वृद्ध सबको सम्मोहित करने वाली वसंत ऋतु आई। नर्मदा सुंदरी शृंगार करके भवन की दूसरी मंजिल पर बैठी थी। उसके मुंह में पान था। उसने पान की पीक नीचे थूकी, जो संयोग से वहां से गुजरते हुए एक मुनि पर पड़ी। मुनि ने क्रोधित होकर कहा कि जिसने मुझ पर पान की पीक थूकी है, उसे पति का वियोग सहना पड़ेगा।
मुनि के ये शब्द सुनते ही नर्मदा सुंदरी को अपनी भूल ज्ञात हुई। वह घबराहट में कांपने लगी और तुरंत नीचे आकर मुनि के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा मांगने लगी - हे भगवन्! मुझे क्षमा करो। यह कार्य मुझसे अनजाने में हुआ है। पति वियोग के स्थान पर यदि आप मुझे मौत का श्राप देते तो मैं कृत्यकृत हो जाती। अब मैं क्या करूं?
मुनि बोले - हे श्राविका! मैंने तो तुम्हारे जीवन में घटने वाली घटना की सूचना भर दी है। मैं श्राप रूप में तुम्हें न कहता तो भी तुम्हें भविष्य में अपने जीवन में पति वियोग सहना ही पड़ता।
नर्मदा सुंदरी ने कहा कि अब मैं क्या करूं? आप जानते हैं कि शीलवती नारी के लिए पति वियोग से बड़ा कोई दुःख नहीं होता।
मुनि बोले - हे श्राविका! तुमने पूर्व भव में जो कर्म बंध किया है, उसे तो भोगना ही होगा। बिना भोगे कर्म नहीं कटते। धर्म चिंतन करते हुए तुम्हें सब कष्टों को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह कहकर मुनि आगे चल दिए।
नर्मदा सुंदरी ने यह बात अपने मन में रख ली। कुछ दिनों के बाद यह घटना नर्मदा सुंदरी भूल गई। इस तरह काफी दिन बीत गए।
एक दिन महेश्वर दत्त ने नर्मदा सुंदरी से कहा - प्रिये! मैं कुछ दिन के लिए व्यापार के कारण से मल्लेच्छखंड जा रहा हूं। व्यापार का काम ही ऐसा है। इसमें देश देशांतर में जाना ही पड़ता है। मुझे हर्षित होकर अनुमति दो।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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