सती मृगांक लेखा (भाग - 1)

सती मृगांक लेखा (भाग - 1)

अवंती सेन उज्जयिनी नगरी का राजा था। उसी नगर में धनसार नामक एक सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम रम्भा था और पुत्री मृगांक लेखा थी। वह बचपन से ही दृढ़ धार्मिक थी। उसका सम्यक्त्व विशेष निर्मल था। वह 64 कलाओं में उत्तीर्ण थी और धर्म में निपुण थी। वह माता-पिता की लाडली थी।

धनसार सेठ ने अपने उद्यान में एक शिखर बंध जिन मंदिर बना रखा था। सेठ व मृगांक लेखा पूजा के निमित्त निश्चित समय पर वहीं जाते थे।

एक दिन कुमारी मृगांक लेखा ने नैवेद्य आदि सामग्री से द्रव्य पूजा की और उसके अनन्तर भाव पूजा के निमित्त कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हो गई।

इसी शहर में रहने वाले सेठ सागर दत्त का पुत्र सागर चंद्र भी अपने मित्र के साथ इस मंदिर में पूजा करने आया। देव पूजा के अनन्तर कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन मृगांक लेखा को मूर्ति समझकर उसने उसके भी चरण छुए।

साथी मित्र ने उसे हाथ से हल्का-सा धक्का दिया और हंस पड़ा। कुमार उसकी हंसी का कारण न जान सका।

मित्र ने स्पष्ट करते हुए कहा कि तूने जिसके चरण छुए हैं, वह प्रतिमा नहीं वह मृगांक लेखा है।

कुमार मृगांक लेखा से आकर्षित हुआ और उसे पाने की इच्छा लेकर घर आया। उसकी पूर्ति न होने से वह प्रतिदिन कृश होने लगा।

माता-पिता को चिंता हुई। मित्र ने सारी घटना कह सुनाई।

अपने उद्यान में सागर दत्त ने भी भगवान ऋषभदेव का एक मंदिर बनाया। उसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर 10 दिन का महोत्सव किया गया। दसवें दिन बड़ा जीमनवार था। उसमें धनसार सेठ को भी सपरिवार आमंत्रित किया था। सभी बड़े-बड़े सेठ एक मंडप में बैठे। सागर दत्त ने ज्योतिषी से कुछ कहा और तभी ज्योतिषी ने खड़े होकर कहा कि विवाह के लिए आज का दिन बहुत शुभ है। ऐसे महत्वपूर्ण दिन बहुत समय बाद आते हैं। यदि धनसार सेठ की पुत्री मृगांक लेखा और सागर दत्त के पुत्र सागर चंद्र का विवाह आज ही हो जाए, तो दोनों के नाम से सर्वोत्तम योग है। उनका दांपत्य जीवन सुखमय होगा।

धनसार सेठ को यह प्रस्ताव बहुत सुंदर लगा। वह भी सागर चंद्र के व्यक्तित्व से प्रभावित था। उसने इस प्रस्ताव का सहर्ष अनुमोदन किया, तो सागर दत्त ने भी उसे स्वीकार कर लिया। दोनों ओर से विवाह की तैयारी शुरू हुई।

सागर चंद्र ने अपने सखा धन मित्र से विवाह से पहले एक बार मृगांक लेखा को जी भर कर देखने की इच्छा प्रकट की।

धन मित्र ने इसका विरोध करते हुए कहा कि तुम्हें तेल चढ़ चुका है। तुम बाहर कैसे जा सकते हो?

सागर चंद्र ने कहा - मैं रात में वेश बदल कर जाने की बात सोच रहा हूं।

धन मित्र को उसकी बात माननी पड़ी।

सागर चंद्र ने वस्त्र बदले, हाथ में खड़्ग लिया और मित्र के साथ चल दिया।

मृगांक लेखा उस समय चित्रलेखा, पत्रलेखा आदि सखियों के साथ हंसी-मजाक की बातें कर रही थी। सागर चंद्र उसके सौंदर्य को देखकर खुशी से उछलने लगा, किंतु जब उसने उन सब की बातों को ध्यान से सुना तो उसकी प्रसन्नता विषाद में बदल गई।

चित्रलेखा ने मृगांक लेखा से कहा कि बहिन! तुम सौभाग्यवती हो कि तुम्हें सागर चंद्र जैसा जीवनसाथी मिलेगा।

दूसरी सखी पत्रलेखा ने कहा - एक धन श्रेष्ठि का पुत्र अनंग देव भी बहुत सुंदर है।

चित्रलेखा ने कहा - हाँ! संवर नाम के नैमित्तिक ज्योतिषी से भी अनंग देव के बारे में पूछा था, तो उसने बताया कि अनंग देव रूप, संपत्ति आदि में भी श्रेष्ठ है, किंतु उसकी आयु केवल 20 वर्ष शेष है।

पत्रलेखा ने विरोध करते हुए कहा - तो क्या हुआ? अमृत तो थोड़ा भी श्रेष्ठ होता है और वह विष किस काम का, जो अधिक मात्रा में मिल रहा हो?

सखियों के इस वाद-विवाद में मृगांक लेखा ने कुछ भी नहीं कहा। इस से सागर चंद्र को बहुत क्रोध आया। वह खड़्ग निकालकर उसे मारने के लिए भागा।

तभी धन मित्र ने उसे रोका और उसे बहुत समझाया कि इसमें मृगांक लेखा की कोई गलती नहीं है। किंतु सागर चंद्र नहीं माना और गुस्से से घर लौट आया।

निश्चित मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया। सागर दत्त ने वर-वधू के रहने के लिए एक विशाल भव्य महल दिया। मृगांक लेखा उसमें रहने लगी, किंतु सागर चंद्र ने उस महल की ओर कभी आंख उठाकर भी नहीं देखा। मृगांक लेखा की उसके सामने कोई चर्चा भी कर दे, तो वह क्रोधित होने लगता। वह मृगांक लेखा के पास कभी नहीं आया, तो उसे भी दुःख तो होना ही था। उसने बहुत सोचा किंतु उसकी कोई भी कमी समझ में नहीं आई।

मृगांक लेखा ने धर्म का सहारा लिया। वह अपने दुःख के दिनों में महामंत्र का स्मरण करने लगी।

एक बार अवंती सेन राजा ने लाट देश के राजा पर चढ़ाई की। उसने सागर दत्त को बुलाकर कहा - अपने पुत्र को तुम मेरे साथ भेजो। मेरी सेना के अन्न, वस्त्र की व्यवस्था का पूर्णतः भार उस पर ही है।

सेठ सागर दत्त ने इस आदेश को स्वीकार कर लिया।

सागर चंद्र पिता के निर्देशानुसार माता-पिता से आशीर्वाद लेकर सेना के साथ चल पड़ा। वह मृगांक लेखा के महल के आगे से निकला। स्वागत में मृगांक लेखा खड़ी थी। उसने मृगांक लेखा को देखा। मृगांक लेखा ने पति के चरण स्पर्श किए और आरती उतारी, लेकिन सागर चंद्र ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गया।

मृगांक लेखा का हृदय टूक-टूक हो गया। मृगांक लेखा ने अपने पूर्व जन्म के कर्मों का योग समझकर जैसे-तैसे धीरज रखा।

सेना का काफिला आगे बढ़ा। सायं काल एक नदी के तट पर शिविर लगा। सागर चंद्र पलंग पर लेटा हुआ था। किसी किन्नरी के रोने की आवाज ने उसे बेचैन कर दिया। वह सो नहीं सका। अपनी तलवार संभाल कर रोने के स्वर की दिशा में चल पड़ा। बहुत दूर जाने पर जंगल में एक कुंज में एक युवती को रोते हुए देखा। उसके हृदय में सहानुभूति जगी। उससे पूछा - बहिन! क्यों रो रही हो?

सुबकते हुए उस महिला ने उत्तर दिया - मेरा दुख दूर करने वाला कोई नहीं है। बंधु! तुम भी व्यर्थ ही मेरे दुःख से क्यों पीड़ित होते हो?

सागर चंद्र ने कहा - एक बार अपने मन की बात तो कहो।

कुछ धैर्य बटोरते हुए उस महिला ने एक लंबा श्वास खींचा और छोड़ा। उसने कहा - बात मेरे घर की है। मेरा पति हरिप्रभ नामक किन्नर है। मेरा नाम हारावली है। हम दोनों विमान में बैठकर क्रीड़ा के लिए जा रहे थे। मेरे पति ने कहा कि चलो! इस कुंज के क्रीड़ा गृह में आमोद-प्रमोद करेंगे। मैंने उसका विरोध करते हुए कहा कि मेरु पर्वत के शिखर पर जो रमणीय उद्यान है, वहां क्रीड़ा करेंगे। मेरे पति उससे कुपित हो गए और यहीं रुक गए। वह मुझसे रूठ कर अलग जा बैठे। आगे नहीं चल रहे हैं। दोपहर बीत गई है। मैंने उनके चरणों में बहुत मिन्नत की, किंतु वे तो वज्र हृदय हो गए हैं। आप यदि हमारा यह मन-मुटाव मिटा दें, तो मैं आपका उपकार जन्म-जन्म नहीं भूलूंगी।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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