सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा
आराधना-कथा-कोश के आधार पर
सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा
सनत्कुमार चक्रवर्ती के पिता ‘अनन्तवीर्य’ भारतवर्ष के ‘वीतशोक’ नामक नगर के राजा थे। उनकी माता का नाम ‘सीता’ था। सनत्कुमार चक्रवर्ती पृथ्वी के 6 खण्डों के स्वामी थे। वे नवनिधि, चौदह रत्न, 84 लाख हाथी, 84 लाख रथ, 18 करोड़ घोड़े, 84 करोड़ यौद्धा, 96 करोड़ धान्य से भरे हुए ग्राम, 96 हज़ार रानियाँ, सदा सेवा में तत्पर 32 हज़ार मुकुटबद्ध राजा इत्यादि की श्रेष्ठ सम्पत्ति के स्वामी थे। वे कामदेव के समान सुन्दर थे और देव व विद्याधर उनकी सेवा किया करते थे। वे अपने विशाल राज्य का कुशलनीति से संचालन करते थे। जिनधर्म के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। इस प्रकार वे सुख से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
उनका वैभव तो बेजोड़ था ही, उनका सौन्दर्य भी इंद्रों को लज्जित करने वाला था। एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इंद्र अपनी सभा में पुरुषों के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहा था पर किसी देव को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी हाड़ मांस के बने मनुष्य का सौन्दर्य भी देवराज इंद्र से बढ़ कर हो सकता है। इंद्र ने कहा - इस समय भारतवर्ष में एक ऐसा पुरुष है जिसके रूप की मनुष्य तो क्या, देव भी तुलना नहीं कर सकते और उसका नाम है सनत्कुमार चक्रवर्ती। इंद्र की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था। अतः मणिमाल और रत्नचूल नाम के दो देवों ने उसे प्रत्यक्ष देख कर ही समाधान प्राप्त करने का निर्णय लिया।
दोनों देवों ने उसी समय गुप्त वेष में मनुष्यों का रूप बनाया और सनत्कुमार चक्रवर्ती की व्यायामशाला में पहुँच गए। उस समय चक्रवर्ती व्यायाम कर रहे थे लेकिन उनके धूल धूसरित, वस्त्रालंकार रहित शरीर में भी सौन्दर्य की आभा छिप नहीं पा रही थी। वे दोनों देव उस अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य चकित हो रहे थे और परस्पर उस रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे। उन्हें मानना ही पड़ा कि चक्रवर्ती का रूप वैसा ही सुन्दर है, जैसा सौधर्म स्वर्ग के इंद्र ने बताया था।
दोनों देवों ने अपना असली वेष बनाया और पहरेदार से कहा - तुम जाकर अपने महाराज से कहो कि आपके रूप की प्रशंसा सुनकर उसको देखने के लिए स्वर्ग से दो देव आए हैं और आपका दर्शन करना चाहते हैं। पहरेदार ने उनका संदेश महाराज को दिया। दोनों देवों का सनत्कुमार चक्रवर्ती ने स्वागत किया और पूछा कि आप दोनों कौन हैं और किसलिए आए हैं? देवों ने कहा कि हम दोनों स्वर्ग से केवल आपके दर्शन करने के लिए आए हैं। हमने आप के रूप-सौन्दर्य की जैसी प्रशंसा सुनी थी, आप में उससे भी कहीं अधिक सौन्दर्य पाया है।
तभी चक्रवर्ती ने कहा कि सौन्दर्य देखना हो तो राजसभा में आइए, सुसज्जित सौन्दर्य तो आपको वहां देखने को मिलेगा। कुछ देर बाद वे देवगण राजसभा में पहुँचे, जहां चक्रवर्ती रत्नजड़ित सिंहासन पर बहुमूल्य वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर बैठे थे। जब देवों ने उन्हें वहाँ देखा तो वे आपस में अफ़सोस प्रगट करने लगे। उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आई थी। वे एक दूसरे को अन्यमनस्क होकर देख रहे थे। चक्रवर्ती की दृष्टि उन पर पड़ी। उनसे पूछा कि यहां आकर आप परेशान से क्यों दिखाई दे रहे हैं? व्यायामशाला में तो बहुत प्रसन्न लग रहे थे। मेरे सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे। कहो, अब आपकी मनोदशा में यह परिवर्तन क्यों?
देवों ने कहा - राजन्! क्षमा कीजिए लेकिन सत्य तो यह है कि अब आपमें वह सौन्दर्य दिखाई नहीं दे रहा जो उस धूल धूसरित शरीर में प्रगट हो रहा था क्योंकि अब यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि आप के शरीर के परमाणु वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे हैं। देवों की विस्मित करने वाली वाणी सुनकर सभी राजकर्मचारी व दरबार में उपस्थित लोग पूछने लगे कि हमें तो महाराज के रूप-सौन्दर्य में पहले से कोई कमी दिखाई नहीं दे रही। इतने थोड़े से समय में इतना बड़ा परिवर्तन कैसे हो सकता है?
तब देवों ने पानी से भरा हुआ घड़ा मंगाया और उसमें से एक तिनके की सहायता से पानी की एक छोटी-सी बूंद अलग करके पूछा कि इसमें से कुछ पानी कम हुआ है? सबके सामने हुई इस क्रिया को कोई नहीं जान सका। सभी ने कहा कि इसमें तो पानी ज्यों का त्यों है। कुछ भी कम नहीं हुआ है। तब देवों ने कहा कि आपके चर्म-चक्षु इस सूक्ष्म परिणमन को नहीं देख सकते किंतु हम अवधि ज्ञान के चक्षुओं से इस सूक्ष्म परिवर्तन को देख रहे हैं। हम सामान्य मनुष्य नहीं, देवगति के देव हैं। जैसे जल की एक बूंद निकाल लेने से भी कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता, उसी प्रकार आयु के पल-पल क्षीण होने से शरीर में आए परिवर्तन को देखा नहीं जा सकता।
यह कह कर वे दोनों देव स्वर्ग की ओर चले गए।
यह सुनते ही सनत्कुमार चक्रवर्ती को शरीर की अस्थिरता का बोध हो गया। वह सोचने लगा कि एक दिन यह शरीर नष्ट हो जाएगा। स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु, धन-धान्य, सोना-चाँदी, दासी-दास आदि सारी सम्पत्ति बिजली की चमकार की तरह क्षण भर में देखते ही देखते नष्ट हो जाएगी। यह संसार दुःखों का सागर है। तब इस नश्वर शरीर के साथ कौन बुद्धिमान प्रेम करेगा? अतः क्यों न समय रहते इसका उपयोग आत्म-कल्याण में कर लिया जाए। मैं आज ही इस मोह माया का नाश करके अपने हित के लिए तत्पर होता हूँ। बस! फिर तो वे बिना एक पल भी नष्ट किए अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का सम्पूर्ण भार उतार कर वन की ओर चल पड़े। वहाँ चारित्रगुप्त मुनिराज से दीक्षा लेकर आत्म साधना करने के लिए एकांत वन-प्रांत में चले गए।
वास्तव में सुख तो ज्ञान-मात्र का अनुभवन है। इसके अतिरिक्त सब विकल्प आकुलतामय होने के कारण दुःख ही है।
धन यौवन स्थिर नहीं, नहीं स्थिर परिणाम।
करना है सो कर चलो, समय चले अविराम।
एक दिन वे आहार लेने के लिए नगर में आए और आहार में कोई प्रकृति विरुद्ध वस्तु उनके भोजन में आ गई। उसके फलस्वरूप उनके शरीर में अनेक भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न हो गई और सारे शरीर में कोढ़ फूट निकला। रुधिर-मवाद बहने लगा और दुर्गन्ध आने लगी। लेकिन सनत्कुमार के मन पर ये व्याधियाँ कोई प्रभाव न डाल सकी।
वे शरीर से निर्मोही होकर सावधानी से अपनी तपश्चर्या में लीन रहे। एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इंद्र अपनी सभा में मुनियों के 5 प्रकार के चारित्र का वर्णन कर रहा था। उस समय मदनकेतु नामक देव ने उनसे पूछा - प्रभो! जिस चारित्र का आपने अभी वर्णन किया है, ऐसी चर्या पालन करने वाला कोई इस समय भारतवर्ष में है क्या?
इंद्र ने उत्तर दिया - हाँ! भारतवर्ष में सनत्कुमार चक्रवर्ती 6 खण्ड के सामाज्य को तृणवत् त्याग कर संसार व उसके समस्त भोगों का त्याग करके दृढ़ता से तपश्चर्या में लीन हैं और पंच प्रकार के चारित्र का पालन करते हैं। यह सुनते ही मदनकेतु नामक देव मुनि सनत्कुमार के दर्शन करने भारतवर्ष में पहुँच गया। उसने देखा कि उनका सारा शरीर, जो अपने अप्रतिम सौन्दर्य के कारण चर्चा में था, वह रोगों का घर बन गया था। फिर भी सनत्कुमार अपने मुनि-चारित्र का पवित्रता से, धीरता से पालन करके पृथ्वी को पावन बना रहे थे।
देव ने एक वैद्य का रूप बनाया और ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाता हुआ वन से गुज़रने लगा कि मैं एक प्रसिद्ध वैद्य हूँ। मैं शरीर की हर भयंकर व्याधि को पल भर में दूर कर सकता हूँ और काया को कंचन के समान कमनीय व सुगन्धित बना सकता हूँ जिससे शरीर में दुर्गन्ध का नामोनिशान भी शेष नहीं रहता।
सनत्कुमार मुनिराज ने उसे बुलाया और उसके इस प्रकार वन में विचरण करने का कारण पूछा। उत्तर में देव ने कहा - मैं एक प्रसिद्ध वैद्य हूँ। मेरे पास हर रोग की अच्छी से अच्छी दवा है। आपको देखकर लगता है कि आपको व्याधियों ने घेर रखा है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपको क्षणमात्र में सब व्याधियों से रहित सोने के समान बना सकता हूँ जिससे आप फिर से दमकने लगेंगे।
सनत्कुमार मुनिराज बोले - अच्छा! तुम प्रसिद्ध वैद्य हो! यह तो बहुत अच्छा हुआ कि तुम इधर आ निकले। मुझे एक बहुत भारी महा भयंकर रोग हो रहा है। मैं उसे समाप्त करने का बहुत प्रयत्न कर रहा हूँ, पर सफलता नहीं मिल रही। क्या तुम उसे दूर कर दोगे?
देव ने कहा - निःसन्देह! मैं आपके रोग को जड़मूल से नष्ट कर दूँगा। मैंने बहुत लोगों का कोढ़ दूर किया है। बताइए कि यह रोग आपको कितने समय से है?
सनत्कुमार मुनिराज बोले - नहीं! नहीं!! यह तो एक तुच्छ-सा रोग है। इसकी तो मुझे परवाह नहीं है। जिस रोग की मैं बात कर रहा हूँ, वह तो इससे भी भयंकर है।
वैद्य बना हुआ देव आश्चर्य में पड़ गया कि ऐसा कौन-सा रोग है जो इससे भी भयंकर हो सकता है। वह बोला - ठीक है। आप बताइए कि इससे भी भयंकर कौन-सा रोग है आपको?
सनत्कुमार मुनिराज बोले - सुनो! वह रोग है संसार-परिभ्रमण का। यदि तुम उससे छुटकारा दिला सकते हो तो बहुत अच्छा होगा।
यह सुनकर देव बहुत लज्जित हुआ और बोला - मुनिनाथ! इस रोग को तो आप ही नष्ट कर सकते हैं। यह तो आप जैसे निःस्पृह शूरवीरों के वश की ही बात है।
सनत्कुमार मुनिराज बोले - भाई! जब तुम मेरे इस रोग को नष्ट नहीं कर सकते, तो मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। शरीर का कुष्ठ रोग तो मेरे वमन के स्पर्श से भी ठीक हो सकता है। उसके लिए बड़े-बड़े वैद्य और दवाओं की क्या आवश्यकता है?
ऐसा कहकर मुनिराज ने अपने वमन के स्पर्श से एक हाथ के रोग को नष्ट करके उसे निर्मल व सोने के समान दीप्तिमान बना दिया। मुनिराज की इस अतुल्य शक्ति को देखकर देव हैरान रह गया। अपने वास्तविक स्वरूप में आकर वह बोला - भगवन्! मैं कोई वैद्य नहीं, देव हूँ। मैं स्वर्गलोक से आपके मुनिधर्म की प्रशंसा सुनकर आपके दर्शन के लिए आया था। आप धन्य हैं जो शरीर की नश्वरता के प्रति जागृत होकर मनुष्य जन्म को सफल करने में प्रयत्नशील हो।
देव उन्हें बारम्बार प्रणाम करके स्वर्ग को लौट गया।
सनत्कुमार मुनिराज अपने पल-प्रतिपल बढ़ते हुए वैराग्य को धारण करते हुए अपने चारित्र को क्रमशः उन्नत करने में लगे रहे और अंत में अष्टकर्मों का नाश करके सिद्धालय को प्राप्त हुए।
यह कथा हमें प्रेरणा देती है कि हम भी संसार की चंचला लक्ष्मी के प्रति अपनी मोहमाया को त्याग कर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने का प्रयत्न करें और अपने मनुष्य जीवन को सफल बनाएँ।
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