जयसेन राजा की कथा
आराधना-कथा-कोश के आधार पर
जयसेन राजा की कथा
स्वर्गादि सुखों के देने वाले और मोक्षरूपी रमणी के स्वामी श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर जयसेन राजा की सुन्दर कथा लिखी जाती है।
सावस्ती के राजा जयसेन की रानी वीरसेना के एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था। वीरसेन बुद्धिमान और सच्चे हृदय का था। मायाचार-कपट उसे छू तक न गया था। यहाँ एक शिवगुप्त नाम का बौद्ध भिक्षुक रहता था। यह माँसभक्षी और निर्दयी था। ईर्ष्या और द्वेष इसके रोम-रोम में भरा था मानो वह इनका पुतला ही हो। यह शिवगुप्त राजगुरु भी था। ऐसे मिथ्यात्व को धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे मायावी और द्वेषी भी राजगुरु हो जाते हैं।
एक दिन यतिवृषभ मुनिराज अपने सारे संघ को साथ लिये सावस्ती में आये। राजा यद्यपि बौद्धधर्म का मानने वाला था, तथापि वह अन्य लोगों को मुनि दर्शन के लिये जाते देख स्वयं भी गया। उसने मुनिराज द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश चित्त लगाकर सुना। उपदेश उसे बहुत पसन्द आया। उसने मुनिराज से प्रार्थना कर श्रावकों के व्रत लिये। जैन धर्म पर अब उसकी दिनों-दिन श्रद्धा बढ़ती ही गई। उसने अपने सारे राज्यभर में कोई ऐसा स्थान न रहने दिया जहाँ जिन मन्दिर न हो। प्रत्येक शहर, प्रत्येक गाँव में इसने जिन मन्दिर बनवा दिया।
जिन धर्म के लिये राजा का यह प्रयत्न देख शिवगुप्त ईर्ष्या और द्वेष के मारे जल कर खाक हो गया। वह अब राजा को किसी प्रकार मार डालने के प्रयत्न में लगा और एक दिन खास इसी काम के लिये वह पृथ्वीपुरी गया और वहाँ के बौद्ध धर्म के अनुयायी राजा सुमित को उसने जयसेन के जैन धर्म धारण करने और जगह-जगह जिन मन्दिरों के बनवाने आदि का सब हाल कह सुनाया। यह सुनकर सुमित ने जयसेन को एक पत्र लिखा कि ‘‘तुमने बौद्धधर्म छोड़कर जो जैनधर्म ग्रहण किया, यह बहुत बुरा किया है। तुम्हें उचित है कि तुम वापिस बौद्ध धर्म स्वीकार कर लो।”
इसके उत्तर में जयसेन ने लिख भेजा कि ‘‘मेरा विश्वास है, निश्चय है कि जैन धर्म ही संसार में एक ऐसा सर्वोच्च धर्म है जो जीवमात्र का हित करने वाला है। जिस धर्म में जीवों का मांस खाया जाता है या जिनमें धर्म के नाम पर हिंसा वगैरह महापाप बड़ी खुशी के साथ किये जाते हैं, वे धर्म नहीं हो सकते। धर्म का अर्थ है जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रखे, सो यह बात सिवा जैन धर्म के और किसी धर्म में नहीं है। इसलिए इसे छोड़कर और सब अशुभ बन्ध के कारण हैं।” सच है, जिसने जैन धर्म का सच्चा स्वरूप जान लिया वह क्या फिर किसी से डिगाया जा सकता है? नहीं। प्रचण्ड से प्रचण्ड हवा भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु को हिला देगी? नहीं।
जयसेन के इस प्रकार विश्वास को देख सुमित को बड़ा गुस्सा आया। तब उसने दो आदमियों को इसलिए सावस्ती में भेजा कि वे जयसेन की हत्या कर आवें। वे दोनों आकर कुछ समय तक सावस्ती में ठहरे और जयसेन को मार डालने के उपाय की खोज में लगे रहे, पर उन्हें ऐसा मौका ही न मिल पाया जो वे जयसेन को मार सकें। तब लाचार हो वे वापिस पृथ्वीपुरी आये और सब हाल उन्होंने राजा से कह सुनाया। इससे सुमित का क्रोध और भी बढ़ गया। उसने तब अपने सब नौकरों को इकट्ठा कर कहा - क्या कोई मेरे आदमियों में ऐसा भी हिम्मती बहादुर है जो सावस्ती जाकर किसी तरह जयसेन को मार आवे? उनमें से एक हिमारक नाम के दुष्ट ने कहा - हाँ महाराज, मैं इस काम को कर सकता हूँ। आप मुझे आज्ञा दें।
इसके बाद ही वह राजाज्ञा पाकर सावस्ती आया और यतिवृषभ मुनिराज के पास मायाचारी से जिन दीक्षा लेकर मुनि हो गया। एक दिन जयसेन मुनिराज के दर्शन करने को आया और अपने नौकर-चाकरों को मन्दिर के बाहर ठहरा कर स्वयं मन्दिर में गया। मुनि को नमस्कार कर वह कुछ समय के लिए उनके पास बैठा और उसने कुशल समाचार पूछकर कुछ धर्म-सम्बन्धी बातचीत की। इसके बाद जब वह चलने से पहले मुनिराज को धोक देने के लिए झुका कि इतने में वह दुष्ट हिमारक जयसेन को मार कर भाग गया। सच है कुछ लोग बड़े ही दुष्ट हुआ करते हैं। यह देख मुनि यतिवृषभ को बड़ी चिंता हुई। उन्होंने सोचा - कहीं सारे संघ पर विपत्ति न आये, इसलिए पास ही की भीत पर उन्होंने यह लिखकर कि ‘‘दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा काम किया गया है”, छुरी से अपना पेट चीर लिया और स्थिरता से संन्यास द्वारा मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग गये।
वीरसेन को जब अपने पिता की मृत्यु का हाल मालूम हुआ तो वह उसी समय दौड़ा हुआ मन्दिर आया। उसे इस प्रकार दिन-दहाड़े किसी साधारण आदमी की नहीं, किंतु खास राजा साहब की हत्या हो जाने और हत्याकारी का कुछ पता न चलने का बड़ा ही आश्चर्य हुआ और जब उसने अपने पिता के पास मुनि को भी मरा पाया तब तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना ही न रहा। वह बड़े विचार में पड़ गया। ये हत्याएँ क्यों हुई? और कैसे हुई? इसका कारण कुछ भी उसकी समझ में न आया। उसे यह भी संदेह हुआ कि कहीं इन मुनि ने तो यह काम न किया हो? पर दूसरे ही क्षण में उसने सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता। इनका और पिताजी का कोई बैर-विरोध नहीं, लेना-देना नहीं, फिर वे क्यों ऐसा करने चले? और पिताजी तो इनके इतने बड़े भक्त थे। और न केवल यह बात थी कि पिताजी ही इनके भक्त हों, ये साधुजी भी तो उनसे बड़ा प्रेम करते थे। घण्टों तक उनके साथ इनकी धर्म चर्चा हुआ करती थी। फिर इस संदेह को जगह नहीं रहती कि एक निस्पृह और शांत योगी द्वारा यह अनर्थ घटित हो सके। तब हुआ क्या?
बेचारा वीरसेन बड़ी कठिन समस्या में फँसा। वह इस प्रकार चिंतातुर हो कुछ सोच-विचार कर ही रहा था कि उसकी नज़र सामने की भीत पर जा पड़ी।
उस पर यह लिखा हुआ कि ‘‘दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा हुआ है”, देखते ही उसकी समझ में उसी समय सब बातें बराबर आ गईं। उसके मन का अब रहा-सहा संदेह भी दूर हो गया। उसकी अब मुनिराज पर अत्यन्त ही श्रद्धा हो गई। उसने मुनिराज के धैर्य और सहनपने की बड़ी प्रशंसा की। जैन धर्म के विषय में उसका पूरा-पूरा विश्वास हो गया।
जिनका दुष्ट स्वभाव है, जिनसे दूसरों के धर्म का अभ्युदय-उन्नति नहीं सही जाती, ऐसे लोग जिनधर्म सरीखे पवित्र धर्म पर चाहे कितना ही दोष क्यों न लगावें, पर जिनधर्म तो बादलों से न ढके हुए सूरज की तरह सदा ही निर्दोष रहता है।
जिस धर्म को चारों प्रकार के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा-महाराजा आदि सभी महापुरुष भक्ति से पूजते-मानते हैं, जो संसार के दुःखों का नाश कर स्वर्ग या मोक्ष का देने वाला है, सुख का स्थान है, संसार के जीव मात्र का हित करने वाला है और जिसका उपदेश सर्वज्ञ भगवान् ने किया है और इसीलिए सबसे अधिक प्रमाण या विश्वास करने योग्य है, वह धर्म-वह आत्मा की एक खास शक्ति मुझे प्राप्त होकर मोक्ष सुख दें।
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