सुदृष्टि सुनार की कथा

आराधना-कथा-कोश के आधार पर

सुदृष्टि सुनार की कथा

देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किये जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, की कथा लिखी जाती है।

उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजा हितैषी, धर्मात्मा और भगवान् के सच्चे भक्त थे। इनकी रानी का नाम सुप्रभा था। सुप्रभा बड़ी सुन्दरी और सती थी। सच है संसार में वही रूप और वही सौन्दर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो।

यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था। जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाचारी और सरल-स्वभावी था। इसकी स्त्री का नाम विमला था। विमला दुराचारिणी थी।

अपने घर में रहने वाले एक वक्र नाम के विद्यार्थी से, जिसे कि सुदृष्टि अपने खर्च से लिखाता-पढ़ाता था, विमला का अनुचित सम्बन्ध था। विमला अपने स्वामी से बहुत नाखुश थी।

इसलिए उसने अपने प्रेमी वक्र को उकसा कर, उसे कुछ भली-बुरी सुझाकर सुदृष्टि का खून करवा दिया। खून उस समय किया गया जब कि सुदृष्टि विषय-सेवन में मस्त था। सो यह मरकर विमला के ही गर्भ में आया। विमला ने कुछ दिनों बाद पुत्र प्रसव किया। आचार्य कहते हैं कि संसार की स्थिति बड़ी ही विचित्र है जो पल भर में कर्मों की पराधीनता से जीवों का अजब परिवर्तन हो जाता है। वे नट की तरह क्षण-क्षण में रूप बदला ही करते हैं।

चैत का महीना था। वसन्त की शोभा ने सब ओर अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था। वन-उपवनों की शोभा मन को मोह लेती थी। इसी सुन्दर समय में एक दिन महारानी सुप्रभा अपने खास बगीचे में प्राणनाथ के साथ हँसी-विनोद कर रही थी। इसी हँसी-विनोद में उसका क्रीड़ा-विलास नाम का सुन्दर बहुमूल्य हार टूट पड़ा। उसके सब रत्न बिखर गये। राजा ने उसे फिर वैसा ही बनवाने का बहुत प्रयत्न किया। जगह-जगह से अच्छे सुनार बुलवाये, पर हार पहले सा किसी से नहीं बना। सच है, बिना पुण्य के कोई उत्तम कला का ज्ञानी नहीं होता।

इसी टूटे हुए हार को विमला के लड़के ने अर्थात् पूर्वभव के उसके पति सुदृष्टि ने देखा। देखते ही उसे जाति स्मरण पूर्व जन्म का हो गया। इसलिए उसने उस हार को पहले-सा ही बना दिया। इसका कारण यह था कि इस हार को पहले भी सुदृष्टि ने ही बनाया था और यह बात सच है कि इस जीव को पूर्व जन्म के संस्कारों के पुण्य से ही कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, दान-पूजा आदि सभी बातें प्राप्त हुआ करती हैं।

प्रजापाल उसकी यह होशियारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे पूछा भी कि भाई, यह हार जैसा सुदृष्टि का बनाया था वैसा ही तुमने कैसे बना दिया? तब वह विमला का लड़का मुँह नीचा कर बोला - राजाधिराज! मैं अपनी कथा आपसे क्या कहूँ? आप यह समझें कि वास्तव में मैं ही सुदृष्टि हूँ। इसके बाद उसने बीती हुई सब घटना राजा से कह सुनाई। वे संसार की इस विचित्रता को सुनकर विषय-भोगों से बड़े विरक्त हुए। उन्होंने उसी समय सब माया-जाल छोड़कर आत्महित का पथ जिन दीक्षा ग्रहण कर ली।

इधर विमला के लड़के को भी अत्यन्त वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग मोक्ष के सुखों को देने वाली जिनदीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह विशुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिये अनेक देशों और शहरों में घूम-फिर कर तपस्या करता हुआ और अनेक भव्यजनों को आत्महित के मार्ग पर लगाता हुआ सौरीपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अंत में मुक्ति लाभ किया। वे विमला-सुत मुनि मुझे शान्ति दें।

वे जिन भगवान् आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार-सिंधु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को देखने वाले हैं, कर्म-शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवल ज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों द्वारा पूजा किये जाते हैं।

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