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Showing posts from April, 2022

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 20)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 20 ) केवलज्ञान कल्याणक और देवों द्वारा समवशरण की रचना जिस समय प्रभु को केवलज्ञान हुआ, उसी समय भरत महाराज के शस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और उसी समय उन्हें पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हुई। भरत महाराज को एक साथ तीन-तीन मंगल समाचार मिले। चारों ओर से बधाइयाँ मिलने लगी। चक्ररत्न व पुत्ररत्न की प्राप्ति की अपेक्षा उन्होंने धर्मकार्य को महान् पुण्यफल माना और भरत महाराज ने सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान का उत्सव मनाने की तैयारी की। वे अतिशय आनन्दपूर्वक धूमधाम से केवली प्रभु की पूजा करने समवसरण की ओर चले। कितना आनन्दकारी दृश्य होगा वह! हमारे मन में उसकी कल्पना करके ही आनन्द का सागर हिलोरें लेने लगा है। आओ! महाराज भरत की सवारी समवसरण में पहुँचने से पहले ही हम अपनी कल्पना शक्ति से उस दिव्य समवसरण में पहुँच जाएं और वहाँ की अद्भुत छटा का आनन्द लें। भगवान को केवलज्ञान होते ही इन्द्र का आसन डोलने लगा। सारे जगत का संताप नष्ट हो गया और सर्वत्र शांति छा गई। तीनों लोकों में आनन्द की सरिता बहने लगी। स्वर्ग में बजने वाले वाद्य सब को प्रभु के केवलज्ञान की सूचना देने ...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 19)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 19 ) भगवान ऋषभदेव मुनिराज का निरतिचार उत्कृष्ट चारित्र ऋषभदेव मुनिराज दीक्षा के 13 माह 8 दिन के पश्चात् आहार ग्रहण करने के पश्चात् वन में पहुँचे और निजगुणचिन्तन में लीन हो गए। भगवान को हेय और उपादेय का सम्पूर्ण ज्ञान था। इसलिए वे दोषों को सर्वथा छोड़ कर मात्र गुणों में ही लीन रहते थे। उनकी धैर्य, क्षमा, ध्यान में निरन्तर तत्परता रहती थी। जो साधु एकाकी रहे, आत्मचिन्तन में लीन हो, उपदेश आदि की भी प्रवृत्ति न करे, ऐसे ‘जिनकल्पी’ बन कर वे तपस्या में रत थे। इस प्रकार छद्मस्थ अवस्था के 1000 वर्ष तक भगवान ने उत्तम तप किया और कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा की। जिस प्रकार सूर्य स्वयं प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव ने धर्म रूपी सूर्य के प्रकाश को स्वयं धारण किया और समस्त जगत को प्रकाशित किया। इस प्रकार सृष्टि के आदि में भगवान ऋषभदेव ही धर्म के सृष्टिकर्ता थे। आज भी भव्य जन उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म के बारह अंगों का स्वाध्याय करके स्वयं को धन्य करते हैं। विनयपूर्वक स्वाध्याय में लीन मुनि को सुगमता से ध्यान की सिद्धि होती है और इन्द्रियाँ अपने वश म...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 18)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 18 ) ऋषभदेव मुनि का वर्षीतप के पश्चात् हस्तिनापुर में प्रथम पारणा ऋषभदेव मुनि का 6 माह का ध्यान योग समाप्त हुआ। तब उन्होंने विचार किया कि मोक्षमार्ग क्या है, सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि कैसे होती है और संयम की साधना के लिए आहार लेने की विधि क्या है, वह प्रगट करने के लिए निर्दोष आहार चर्या का ज्ञान होना आवश्यक है। अन्यथा उन नवदीक्षित साधुओं के समान कोई भी मुनि क्षुधा-पिपासा से दुःख से भयभीत होकर मार्ग-भ्रष्ट हो सकता है। ऐसा विचार कर योग पूर्ण होने पर आप आहार के लिए निकले। भगवान जहाँ-जहाँ पधारते, वहाँ के लोग प्रसन्नता से आश्चर्यचकित होकर नमन करते और पूछते कि हे देव! कहिए, क्या आज्ञा है ? आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? कोई भगवान को अर्पण करने के लिए हाथी, रथ, वस्त्राभूषण, रत्न आदि सामग्री लाते, तो कोई अपनी रूपवती कन्या भगवान के चरणों की सेवा करने को अर्पित करते। भगवान चुपचाप आगे बढ़ते रहते। भगवान किसलिए पधारे हैं और क्या करना चाहिए, यह न समझ पाने के कारण लोग दिग्मूढ़ बन गए थे। कुछ तो अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान के चरणों से लिपट रहे थे। इस प्रकार आहार-वि...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 17)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 17 ) तप कल्याणक भगवान ऋषभदेव मुनिराज शरीर का ममत्व त्याग कर मोक्ष को साधने के लिए 6 मास के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर मौनपूर्वक स्थिर हुए। वे ध्यान की सिद्धि के लिए प्रशमगुण की उत्कृष्ट मूर्ति के समान सुशोभित थे। तप की महिमा के कारण किसी अदृश्य छत्र द्वारा उनके ऊपर छाया हो गई थी। चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय) द्वारा भगवान ने गति-अगति को सम्पूर्णतः जान लिया था। भगवान तो मुनि होकर अडिग रूप से आत्मध्यान में स्थिर हो गए, परन्तु दूसरे राजाओं का धैर्य 2-3 महीने में ही टूटने लगा। भगवान के मार्ग पर चलने में असमर्थ वे मुनि विचार करने लगे - अरे! अब हमसे भूख-प्यास सहन नहीं होती। ऋषभदेव तो न जाने किस उद्देश्य से इस प्रकार अपनी रक्षा का विचार किए बिना ऐसे भयंकर वन में खड़े हैं। ऋषभदेव तो अपने प्राणों से विरक्त होकर तपस्या कर रहे हैं, पर हमें तो अपने प्राणों की रक्षा प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए। इसलिए जब तक ऋषभदेव अपना ध्यान पूर्ण करें, तब तक हम इस वन के फल-फूल और कन्दमूल खाकर अपना जीवन बचाएंगे। इस प्रकार वे दीन-हीन होकर भगवान के चारों ओर खड़े हो गए कि वे हमारी ...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 16)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 16 ) दीक्षा कल्याणक प्रजाजन इस बात से अनभिज्ञ थे कि महाराज कहाँ जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं ? दीक्षा का क्या अर्थ है ? वे अपने महाराज ऋषभदेव से प्रार्थना कर रहे थे - हे देव! आप अपना कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही हमें दर्शन देने पधारना। हे प्रभो! आप महान उपकारी हो। अब हमें छोड़ कर आप किसका उपकार करने के लिए जा रहे हो ? नगरजन एक-दूसरे से बात कर रहे थे कि ये देवगण भगवान को पालकी में बिठा कर कहीं दूर लिए जा रहे हैं, परन्तु क्यों लिए जा रहे हैं, वह हमें मालूम नहीं। सम्भवतः भगवान की कोई क्रीड़ा हो! जैसे पहले भगवान को जन्माभिषेक करने मेरु पर्वत पर ले गए थे और फिर वापिस ले आए थे, हो सकता है कि वैसा ही कोई प्रसंग अपने महाभाग्य से बन रहा हो! जब से भगवान पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, तब से समय-समय पर देवों का आगमन होता ही रहा है। ऐसे आश्चर्यजनक दृश्य तो हमने कभी नहीं देखे। पर यह कोई दुःख की बात नहीं है। अवश्य ही यह भगवान के किसी महान पुण्य का अवसर है। भगवान ऋषभदेव अब राजवैभव से विरक्त होकर, स्वतन्त्रता का सुख पाने और निज वैभव को प्राप्त करने के लिए वन में प्रवेश कर रह...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 15)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 15 ) भगवान ऋषभदेव को वैराग्य और दीक्षा अयोध्यानगरी और चैत्र कृष्णा नवमी भगवान ऋषभदेव ने 63 लाख वर्ष पूर्व तक कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन किया। अब उनकी आयु 83 लाख वर्ष पूर्व हो चुकी थी। आज भगवान ऋषभदेव का जन्म दिवस का उत्सव मनाया जा रहा था। उस उत्सव में इन्द्र भी स्वर्ग की अप्सराओं सहित सम्मिलित होने के लिए आया था। भगवान ऋषभदेव जन्म दिवस के उपलक्ष्य में किए गए अप्सराओं के अद्भुत नृत्य को देख रहे थे। उसी समय इन्द्र को विचार आया कि भगवान ऋषभदेव का अवतार तो तीर्थंकर बनने के लिए हुआ है और वे धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले हैं। इस राजवैभव का भोग करते हुए उन्हें 83 लाख वर्ष पूर्व हो चुके हैं। इस राज्य और संसार के भोगों से भगवान कब विरक्त होंगे ? ऐसा विचार कर उसने नीलांजना नाम की अप्सरा को नृत्य करने के लिए बुलाया जिसकी आयु कुछ ही क्षणों में पूर्ण होने वाली थी। वह नीलांजना देवी मनोहारी हाव-भाव सहित नृत्य कर रही थी। नीलांजना देवी की नृत्य करते-करते आयु पूर्ण हो गई और वह क्षणभर में ही विलुप्त हो गई। बिजली की चमक के समान उसके अदृश्य होते ही इन्द्र ने उसके समान...

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी - युवावस्था (भाग - 14)

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प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी - युवावस्था (भाग - 14 ) ऋषभकुमार का विवाह और भरत आदि सौ पुत्र जब ऋषभकुमार युवावस्था को प्राप्त हुए, तो उनका रूप-लावण्य अद्भुत शोभायमान हो उठा। उनका रक्त दूध के समान श्वेत था, उनका शरीर विष या शस्त्र से अभेद्य परम औदारिक था और मोक्ष का कारण था। उनके शरीर पर 1008 सु-लक्षण शोभायमान थे। नाभिराजा ने ऋषभकुमार की सहमति से महाराज कच्छ, महाकच्छ की बहिनों यशस्वती और सुनन्दा से इनका विवाह सम्पन्न किया। इन्हें राजपद की प्राप्ति हुई। देवों ने भी प्रसन्नता से विवाहोत्सव में भाग लिया। दोनों रानियों के साथ राज्य के भोगोपभोग में दीर्घकाल आनन्दपूर्वक व्यतीत होने लगा। एक दिन रात्रि को महारानी यशस्वती ने स्वप्न में ग्रास हो गई पृथ्वी, मेरुपर्वत, सूर्य, चन्द्र, हंसयुक्त सरोवर तथा तरंगायमान समुद्र देखे। ऋषभकुमार ने अवधिज्ञान रूपी दिव्यचक्षु द्वारा उन उत्तम स्वप्नों का फल जानकर कहा कि हे देवी! तुम्हें महाप्रतापी चक्रवर्ती पुत्र होगा। वह चरमशरीरी होकर संसार-समुद्र को पार करेगा तथा इक्ष्वाकुवंश को आनन्द देने वाले तुम्हारे सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र होगा। अपने स्वामी के मुख से उन उत्...