प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी - युवावस्था (भाग - 14)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी - युवावस्था (भाग - 14)
ऋषभकुमार का विवाह और भरत आदि सौ पुत्र
जब ऋषभकुमार युवावस्था को प्राप्त हुए, तो उनका रूप-लावण्य अद्भुत शोभायमान हो उठा। उनका रक्त दूध के समान श्वेत था, उनका शरीर विष या शस्त्र से अभेद्य परम औदारिक था और मोक्ष का कारण था। उनके शरीर पर 1008 सु-लक्षण शोभायमान थे।
नाभिराजा ने ऋषभकुमार की सहमति से महाराज कच्छ, महाकच्छ की बहिनों यशस्वती और सुनन्दा से इनका विवाह सम्पन्न किया। इन्हें राजपद की प्राप्ति हुई। देवों ने भी प्रसन्नता से विवाहोत्सव में भाग लिया। दोनों रानियों के साथ राज्य के भोगोपभोग में दीर्घकाल आनन्दपूर्वक व्यतीत होने लगा।
एक दिन रात्रि को महारानी यशस्वती ने स्वप्न में ग्रास हो गई पृथ्वी, मेरुपर्वत, सूर्य, चन्द्र, हंसयुक्त सरोवर तथा तरंगायमान समुद्र देखे। ऋषभकुमार ने अवधिज्ञान रूपी दिव्यचक्षु द्वारा उन उत्तम स्वप्नों का फल जानकर कहा कि हे देवी! तुम्हें महाप्रतापी चक्रवर्ती पुत्र होगा। वह चरमशरीरी होकर संसार-समुद्र को पार करेगा तथा इक्ष्वाकुवंश को आनन्द देने वाले तुम्हारे सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र होगा।
अपने स्वामी के मुख से उन उत्तम स्वप्नों का फल जानकर यशस्वती देवी को महान् हर्ष हुआ।
जो जीव पूर्व भव में सिंह होकर सल्लेखना धारण करके स्वर्ग में गया, फिर मतिवर मंत्री हुआ। फिर देव हुआ, सुबाहु हुआ, फिर सवार्थसिद्धि में गया। वही जीव वहाँ से चयकर यशस्वती देवी की कोख से भरत चक्रवर्ती नाम का पुत्र हुआ। जिस दिन भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था, ठीक उसी दिन (चैत्र कृष्णा नवमी के दिन) यशस्वती देवी ने भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया।
जन्म लेते ही उन्होंने दोनों हाथों से पृथ्वी का आलिंगन किया, जिससे निमित्तज्ञानियों ने कहा कि वे समस्त पृथ्वी के अधिपति होंगे। सौभाग्यवती स्त्रियों ने यशस्वती देवी को शुभाशीष दिया कि ‘तुम ऐसे सौ पुत्रों की माता बनो।’
सारी अयोध्या नगरी में उत्सव का वातावरण था। इतिहासकार कहते हैं कि हिमवान पर्वत से लेकर समुद्र तक का क्षेत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से ‘भारतवर्ष’ कहलाया। उनकी हथेली चक्र आदि शुभचिह्नों से सुशोभित थी और उनके पाँव में भी चक्र, छत्र, तलवार आदि 14 रत्नों के चिह्न थे, जो उनके 6 खण्ड का अधिपति होने के द्योतक थे।
पूर्वभव के अन्य साथी भी सवार्थसिद्धि से चयकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र के रूप में यशस्वती देवी के पुत्र वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि के रूप में जन्मे। उनकी एक पुत्री ‘ब्राह्मी’ हुई।
आनन्द नाम का पुरोहित सवार्थसिद्धि से चयकर सुनन्दा रानी की कोख से ‘बाहुबलि’ नाम का पुत्र हुआ तथा एक पुत्री ‘सुन्दरी’ हुई।
इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के 101 पुत्र व दो पुत्रियाँ थी। उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों को अक्षरमाला व अंकविद्या, गणित, व्याकरण व काव्य आदि समस्त विद्याओं में स्वयं उनका गुरु बन कर पारंगत किया। उन्होंने भरत, बाहुबलि आदि सभी पुत्रों को चित्रकला, नाट्यकला, शस्त्रविद्या आदि के साथ-साथ अध्यात्म विद्या के उत्तम संस्कार भी दिए।
प्रजाजनों को मार्गदर्शन और राज्याभिषेक
भगवान ऋषभदेव की आयु 84 लाख वर्ष पूर्व थी। शरीर की ऊँचाई 500 धनुष थी एवं तपाए गए स्वर्ण के समान शरीर की कान्ति थी। आप इक्ष्वाकु वंश के शिरोमणि थे।
84 लाख वर्ष पूर्व में से कुमारावस्था के 20 लाख वर्ष पूर्व पूर्ण हुए। तीसरा आरा समाप्त होकर चौथा आरा अर्थात् चौथा काल निकट आ रहा था। काल के प्रभाव से कल्पवृक्ष सूखने लगे थे। उनकी फल देने की शक्ति कम हो गई थी। भोजन-वस्त्र आदि के अभाव से प्रजा भयभीत होने लगी तो राजा नाभिराय ने समाधान के लिए उन्हें भगवान ऋषभदेव के पास भेजा।
प्रजा की दीन अवस्था को देखकर भगवान ऋषभदेव ने उन्हें असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प - इन छः कार्यों के द्वारा आजिविका चलाने का उपदेश दिया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन तीन वर्णों की स्थापना भी इन्होंने की थी। प्रत्येक वर्ग अपने-अपने योग्य कार्यों द्वारा आजीविका का उपार्जन करे, ऐसे नियम भी बनाए। लोगों को ईख (इक्षु) के रस का उपयोग करना बताया, इसलिए वे इक्ष्वाकु कुल के कहलाए।
इस प्रकार कर्मयुग का प्रारम्भ हुआ और वे सृष्टि के कर्ता अर्थात् ब्रह्मा कहलाए। ये कार्य श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को आरम्भ हुए थे। इससे उन्होंने प्रजा का पालन किया, इसलिए वे ‘प्रजापति’ कहलाए। प्रजा को स्वयं कर्म करके भोगोपभोग की सामग्री मिलने लगी और वह सुखपूर्वक रहने लगी।
देवों द्वारा भगवान ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया गया और राजा नाभिराय ने अपने मस्तक का मुकुट उतार कर भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर पहनाया।
भगवान ऋषभदेव का का राज्यकाल 63 लाख वर्ष पूर्व था। उन्हें संसार की सारी पुण्य सामग्री प्राप्त थी। वास्तव में दान, संयम, क्षमा, सन्तोष आदि शुभ चेष्टा द्वारा ही पुण्य का संचय होता है। संसार में तीर्थंकर जैसे उत्तम पद की प्राप्ति भी पुण्य से ही होती है।
अपने पूर्व के तीसरे भव में जब आप ‘वज्रनाभि मुनिराज’ थे, तब ‘तीर्थंकर वज्रसेन’ के पादमूल में सोलहकारण भावना भा कर आपने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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