प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 19)

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 19)

भगवान ऋषभदेव मुनिराज का निरतिचार उत्कृष्ट चारित्र

ऋषभदेव मुनिराज दीक्षा के 13 माह 8 दिन के पश्चात् आहार ग्रहण करने के पश्चात् वन में पहुँचे और निजगुणचिन्तन में लीन हो गए। भगवान को हेय और उपादेय का सम्पूर्ण ज्ञान था। इसलिए वे दोषों को सर्वथा छोड़ कर मात्र गुणों में ही लीन रहते थे। उनकी धैर्य, क्षमा, ध्यान में निरन्तर तत्परता रहती थी। जो साधु एकाकी रहे, आत्मचिन्तन में लीन हो, उपदेश आदि की भी प्रवृत्ति न करे, ऐसे ‘जिनकल्पी’ बन कर वे तपस्या में रत थे।

इस प्रकार छद्मस्थ अवस्था के 1000 वर्ष तक भगवान ने उत्तम तप किया और कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा की। जिस प्रकार सूर्य स्वयं प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव ने धर्म रूपी सूर्य के प्रकाश को स्वयं धारण किया और समस्त जगत को प्रकाशित किया। इस प्रकार सृष्टि के आदि में भगवान ऋषभदेव ही धर्म के सृष्टिकर्ता थे। आज भी भव्य जन उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म के बारह अंगों का स्वाध्याय करके स्वयं को धन्य करते हैं। विनयपूर्वक स्वाध्याय में लीन मुनि को सुगमता से ध्यान की सिद्धि होती है और इन्द्रियाँ अपने वश में रहती हैं। भगवान शरीर से भिन्न आत्मा को देखते थे, तीन गुप्ति का पालन करते थे और शरीर से निःस्पृह होकर शरीर का ममत्व त्याग कर आत्मा की विशुद्धि का ध्यान करते थे। ध्यानरूपी उत्तम सम्पदा के स्वामी भगवान ध्यानाभ्यासरूप तप द्वारा कृतकृत्य हो गए थे, क्योंकि ध्यान ही उत्तम तप है। दूसरे अंतरंग व बहिरंग तप उसके परिकर हैं। वे ध्यान की सिद्धि के लिए अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का सेवन करते थे और अध्यात्म की शुद्धि के लिए गिरी-गुफा आदि में ध्यान में बैठ जाते थे।

क्षपकश्रेणी और केवलज्ञान की उत्पत्ति

मौनी, ध्यानी, निरभिमानी तथा अतिशय बुद्धिमान उन भगवान ऋषभदेव ने एक हज़ार वर्ष तक अनेक स्थानों पर विहार किया। तत्पश्चात् आप ‘पुरिमताल’ नगर के समीप ‘शकट’ नामक उद्यान में पधारे, जो वर्तमान में प्रयाग तीर्थ कहलाता है। वे ध्यान की उत्कृष्ट सिद्धि हेतु एक वटवृक्ष के नीचे ‘तेला’ का नियम लेकर पूर्वाभिमुख होकर एक शिला पर ध्यानस्थ हुए और लेश्या की उत्कृष्ट शुद्धिपूर्वक चित्त को एकाग्र करके ध्यान लगाया। धर्मध्यान में तत्पर उन वीतरागी भगवान को ज्ञान शक्ति के कारण किंचित भी प्रमाद नहीं रहा था। उन अप्रमत्त भगवान को ज्ञानादि परिणामों में परम विशुद्धि के साथ शुक्ल लेश्या प्रगट हुई। उस समय दीप्तिमान भगवान को समस्त मोह का क्षय करके ध्यान की ऐसी शक्ति स्फुरित हुई, मानो कोई बिजली-सी कौंध गई हो। भयरहित भगवान ने समस्त संकल्प-विकल्प हटा कर, ‘मोहरूपी शत्रु’ को जीतने के लिए अपने विशुद्ध परिणामों की समस्त ‘सेना’ को सुसज्जित कर लिया। भगवान ने ‘संयमरूपी कवच’ बनाया, उत्तम ‘ध्यान रूपी अजेय अस्त्र’ धारण किया, ‘आत्मज्ञान’ को ‘मंत्री पद’ से सुशोभित किया और ‘विशुद्ध परिणामों’ को ‘सेनापति’ का कार्यभार सौंपा। आत्मा के ‘अनन्त गुणों’ को ‘सैनिक’ बनाया और ‘रागादि’ प्रतिपक्षों को ‘शत्रुपक्ष’ में रखा, जिन पर विजय प्राप्त करनी थी।

इस प्रकार सेना से सुसज्जित होकर जगतगुरु भगवान ज्यों ही विजय-युद्ध के लिए उद्यमी हुए, त्यों ही कर्म-सेना में खलबली मच गई। उनकी स्थिति टूटने लगी और कर्म-शक्ति नष्ट होने लगी। प्रकृतियां एक-दूसरे में संक्रमित होकर बिखरने लगी। कर्म-सेना की प्रतिसमय असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगी। जिस प्रकार विजयाभिलाषी राजा शत्रु-सेना में खलबली मचा कर उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार उन योगीराज ने अपने योगबल से पहले तो कर्म-सेना में खलबली मचा दी और उनकी शक्ति कम होने पर उसे समूल नष्ट करने का उद्यम प्रारम्भ कर दिया।

उत्कृष्ट विशुद्धि की भावना करते हुए अप्रमत्त होकर भगवान ने मोक्षमहल की सीढ़ी के समान क्षपक श्रेणी पर आरोहण किया। सातवें गुणस्थान में ‘अधःकरण’ करके, ‘अपूर्वकरण’ नामक आठवें गुणस्थान में आए और उसके बाद ‘अनिवृत्तिकरण’ नामक नौवें गुणस्थान पर चढ़ गए।

वहाँ ‘पृथकत्ववितर्क’ नाम के शुक्लध्यान रूपी चक्र को धारण करके उसके प्रभाव से अत्यन्त शुद्धि को प्राप्त करके निर्भीक होकर मोहराजा के समस्त बल को नष्ट कर दिया और उसकी सारी सेना को धराशायी कर दिया। पहले ही आक्रमण में मोह के अंगरक्षक बने हुए ‘कषाय और नोकषाय’ रूपी योद्धाओं को मार गिराया।

फिर भी जो शेष रह गए थे, उनमें से संज्वलनक्रोध का अंत किया, उसके बाद ‘मान’ का हनन किया और अंत में ‘माया’ और ‘बादरलोभ’ को भी समाप्त कर दिया। भगवान अन्य कर्मों की कड़ियों को कृष्टिकरण आदि विधियों से नष्ट करके दसवें गुणस्थान में आए। उस ‘सूक्ष्मसाम्पराय’ गुणस्थान में रहे हुए अतिसूक्ष्म लोभ को भी जीत कर ‘उपशांत मोह’ पर विजय प्राप्त की और ग्यारहवें गुणस्थान में भगवान ऋषभदेव आ गए। वे निर्मोही विजेता भगवान ऋषभदेव ‘मोहशत्रु’ का सम्पूर्ण विनाश करके तेजस्वी रूप से एकत्व भावना में अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे। तत्पश्चात् अविनाशी गुणों का संग्रह करने वाले भगवान ‘क्षीणकषाय’ नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच गए। वहाँ मोहकर्म को समूल नष्ट करके ‘स्नातक’ हुए। पश्चात् ज्ञान, दर्शन और वीर्य में विघ्नकर्त्ता उद्धत प्रकृतियों को ‘एकत्ववितर्क’ नामक दूसरे शुक्लध्यान द्वारा नष्ट कर दिया।

इस प्रकार उन्होंने अत्यन्त दुःखदायी चारों घातिया कर्मों को ध्यानाग्नि द्वारा भस्म कर दिया। फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन पूर्वाह्नकाल में चार घातिया कर्मों का नाश होने से उन्हें ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हुई और वे तेरहवें गुणस्थान में विराजमान हो गए।

अहो! भगवान सर्वज्ञ हो गए। अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शुद्ध सम्यक्त्व, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य - ऐसी नव क्षायिक लब्धि रूप किरणों द्वारा प्रकाशमान ऋषभ जिनेन्द्र रूपी सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता हुआ और भव्यजीवों रूपी कमलों को विकसित करता हुआ उदित हो गया।

केवलज्ञान प्राप्त भगवान ऋषभ जिनेन्द्र को नमस्कार हो।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।

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