प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 16)

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 16)

दीक्षा कल्याणक

प्रजाजन इस बात से अनभिज्ञ थे कि महाराज कहाँ जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं? दीक्षा का क्या अर्थ है? वे अपने महाराज ऋषभदेव से प्रार्थना कर रहे थे - हे देव! आप अपना कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही हमें दर्शन देने पधारना। हे प्रभो! आप महान उपकारी हो। अब हमें छोड़ कर आप किसका उपकार करने के लिए जा रहे हो?

नगरजन एक-दूसरे से बात कर रहे थे कि ये देवगण भगवान को पालकी में बिठा कर कहीं दूर लिए जा रहे हैं, परन्तु क्यों लिए जा रहे हैं, वह हमें मालूम नहीं। सम्भवतः भगवान की कोई क्रीड़ा हो! जैसे पहले भगवान को जन्माभिषेक करने मेरु पर्वत पर ले गए थे और फिर वापिस ले आए थे, हो सकता है कि वैसा ही कोई प्रसंग अपने महाभाग्य से बन रहा हो! जब से भगवान पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं, तब से समय-समय पर देवों का आगमन होता ही रहा है। ऐसे आश्चर्यजनक दृश्य तो हमने कभी नहीं देखे।

पर यह कोई दुःख की बात नहीं है। अवश्य ही यह भगवान के किसी महान पुण्य का अवसर है। भगवान ऋषभदेव अब राजवैभव से विरक्त होकर, स्वतन्त्रता का सुख पाने और निज वैभव को प्राप्त करने के लिए वन में प्रवेश कर रहे हैं। भगवान की जय हो! ... और वे पुनः यहाँ पधार कर हमारी रक्षा करें … । इस प्रकार दीक्षा का प्रसंग जान कर सब प्रजाजन भगवान की स्तुति करने लगे।

महाराज भरत सबको इच्छित वस्तु का दान कर रहे थे। पिता नाभिराय और माता मरुदेवी, यशस्वती, सुनन्दा आदि के साथ मंत्रीगण व हज़ारों राजाओं सहित उनके तपकल्याणक का उत्सव देखने के लिए पीछे-पीछे चल रहे थे और उनके नेत्रों से आँसू बह रहे थे।

अयोध्या से थोड़ी दूर सिद्धार्थ नामक वन में आकर भगवान एक पवित्र शिला पर विराजे। चन्द्रकान्त मणि की वह शिला ऐसी शोभायमान हो रही थी, मानो सिद्धशिला ही पृथ्वी पर उतर आई हो। उस पर अद्भुत मण्डप और रत्नों की रंगोली सजी हुई थी। पर भगवान सारे जगत के बन्धु होने पर भी स्नेहबंधन से रहित थे। दीक्षा से पूर्व भगवान ने देवों व मनुष्यों की सभा को योग्य उपदेश द्वारा सम्बोधित किया और अपनी प्रशान्त दृष्टि से प्रसन्न करके विदा किया।

कोलाहल दूर हुआ और नीरव शान्ति छा गई। गंभीर मंगलनाद के बीच भगवान ने आत्मा की, देवों की एवं सिद्धों की साक्षीपूर्वक अपने अंतरंग व बहिरंग समस्त परिग्रह का त्याग किया। पूर्व दिशा की ओर मुख करके पद्मासन लगा कर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करके पंचमुष्टि से केशलुंचन किया। दिगम्बर दीक्षा धारण करके भगवान समस्त पापों से विरक्त हुए और समभाव रूप चारित्र (सामायिक) भाव धारण किया। उनका जन्म दिवस ही उनका दीक्षा दिवस बन गया।

ऐसे श्री ऋषभदेव मुनिराज की जय हो!!!

भगवान के पवित्र केशों को रत्नमंजूषा में भर कर इन्द्र ने विचार किया कि ‘ये केश धन्य हैं जो भगवान के मस्तक के स्पर्श से पवित्र हुए हैं और वह क्षीर समुद्र भी धन्य है, जिसे इन केशों की भेंट मिलेगी।’ ऐसा विचार कर क्षीर समुद्र में उन केशों का क्षेपण किया।

भगवान के साथ अन्य चार हज़ार राजाओं ने भी, यह जान कर कि ‘हमारे स्वामी को जो अच्छा लग रहा है, वह हमारे लिए भी अच्छा है’ उनके साथ दीक्षा ले ली, यद्यपि वे भगवान के अंतरंग अभिप्राय से अनभिज्ञ थे। उन राजाओं ने मूढ़ता से मात्र द्रव्यलिंग धारण किया था, निर्ग्रन्थ होकर भी वे भावलिंगी नहीं थे। उन चार हज़ार द्रव्यलिंगी मुनियों के परिकर में भावलिंगी भगवान ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे छोटे-छोटे वृक्षों के बीच विशाल कल्प-वृक्ष सुशोभित हो रहा हो। भगवान के प्रति अनन्य भक्ति के कारण वे द्रव्यलिंगी साधु भी अन्त में कल्याण को प्राप्त होंगे।

देवों ने अत्यन्त भक्ति पूर्वक भगवान की स्तुति की। महाराज भरत ने भी अपने छोटे भाइयों तथा पुत्रों सहित भक्ति वश नम्रीभूत होकर आत्मध्यान में लीन और मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य को साधने में तत्पर, मोह-विजेता, अपने पिता श्री ऋषभदेव मुनिराज की स्तुति-पूजा की।

इस प्रकार भगवान का दीक्षा कल्याणक मना कर सब अयोध्या की ओर लौटे।

दीक्षा के पश्चात् ऋषभदेव मुनिराज आत्मध्यान में लीन हुए। तुरन्त ही उनका शुद्धोपयोग में सातवाँ गुणस्थान प्रगट हुआ तथा उसके साथ ही मनःपर्ययज्ञान तथा अनेक लब्धियाँ प्रगट हुई। उनका आत्मसाक्षात्कार मोक्षमार्ग रूप परिणमित हुआ।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।

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