प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 17)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 17)
तप कल्याणक
भगवान ऋषभदेव मुनिराज शरीर का ममत्व त्याग कर मोक्ष को साधने के लिए 6 मास के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर मौनपूर्वक स्थिर हुए। वे ध्यान की सिद्धि के लिए प्रशमगुण की उत्कृष्ट मूर्ति के समान सुशोभित थे। तप की महिमा के कारण किसी अदृश्य छत्र द्वारा उनके ऊपर छाया हो गई थी। चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय) द्वारा भगवान ने गति-अगति को सम्पूर्णतः जान लिया था।
भगवान तो मुनि होकर अडिग रूप से आत्मध्यान में स्थिर हो गए, परन्तु दूसरे राजाओं का धैर्य 2-3 महीने में ही टूटने लगा। भगवान के मार्ग पर चलने में असमर्थ वे मुनि विचार करने लगे - अरे! अब हमसे भूख-प्यास सहन नहीं होती। ऋषभदेव तो न जाने किस उद्देश्य से इस प्रकार अपनी रक्षा का विचार किए बिना ऐसे भयंकर वन में खड़े हैं। ऋषभदेव तो अपने प्राणों से विरक्त होकर तपस्या कर रहे हैं, पर हमें तो अपने प्राणों की रक्षा प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए। इसलिए जब तक ऋषभदेव अपना ध्यान पूर्ण करें, तब तक हम इस वन के फल-फूल और कन्दमूल खाकर अपना जीवन बचाएंगे।
इस प्रकार वे दीन-हीन होकर भगवान के चारों ओर खड़े हो गए कि वे हमारी ओर दृष्टि डालेंगे और हमें कुछ आदेश देंगे। कुछ मुनि अपने माता-पिता, स्त्री-पुत्र व राजपाट आदि का स्मरण करके घर जाने की आतुरता से भगवान के चरणों में नमन कर रहे थे, परन्तु उन्हें यह भय सता रहा था कि यदि हम अब भगवान का साथ छोड़ कर अपने घर चले गए तो जब भगवान अपना यह कार्य पूर्ण करके पुनः अपना राजपाट संभालेंगे, तब हमें अपमानित करके वहाँ से भगा देंगे। भरत महाराज भी हमें कष्ट पहुँचा सकते हैं, अतः हमें यहाँ रह कर ही कष्ट सहन करने चाहिएं। कुछ मुनि भगवान की प्रदक्षिणा देकर प्राण रक्षा के लिए वन में अन्यत्र चले गए और व्रत छोड़ कर शिथिलाचार का व्यवहार करने लगे। अकेले ऋषभदेव मुनिराज ही अपनी आत्म-साधना में लीन थे।
खेद है कि जिन भगवान का मनुष्य स्पर्श भी नहीं कर सकते, ऐसे भगवान के चरण स्पर्श करके भी उनके मार्ग पर चलने में असमर्थ होकर बनावटी मुनि मोक्ष के सीधे मार्ग से भ्रष्ट होकर इधर-उधर भटकने लगे। क्या एक विशाल हाथी का बोझ उसका बच्चा कभी उठा सकता है? भूख-प्यास से व्याकुल वे भ्रष्ट मुनि स्वयं ही वृक्षों से फल तोड़ कर खाने लगे और तालाब का पानी पीने लगे। दिगम्बर मुनिवेष में ऐसी अनुचित प्रवृत्ति देख कर वनदेवता ने उन्हें रोका कि ऐसे मुनिवेष में ऐसे अयोग्य कार्य न करो। ऐसा वेष तो महापुरुष मोक्ष की साधना के लिए धारण करते हैं। उसे धारण करके तुम इन सचित्त फलों और अप्रासुक जल का सेवन मत करो। तुम्हारे बाह्य आचरण भी उत्तम ही होने चाहिएं।
वनदेवता के ऐसे वचन सुन कर वे राजा भयभीत हो गए और नग्न वेश छोड़ कर वल्कल आदि धारण करके स्वच्छन्दता पूर्वक रहने लगे। राजा भरत के भय से वे नगर में न जाकर वहीं वन में झोंपड़ी आदि बना कर रहने लगे। वे जल-फल के द्वारा भगवान ऋषभदेव मुनिराज के चरणों की पूजा करने लगे क्योंकि उस समय उनके सिवा अन्य कोई देव उनकी सहायता नहीं कर सकता था।
भगवान ऋषभदेव मुनिराज का पौत्र मरीचिकुमार भी उनके साथ साधु बन गया था। उसने सबको मिथ्या उपदेश देकर इस झूठे पंथ का प्रवर्तन किया था।
भगवान ऋषभदेव अडोल रूप से आत्मध्यान में लीन थे। तीन गुप्ति उनकी रक्षक थी, संयम उनका कवच था और सम्यग्दर्शन आदि गुण उनके सैनिक थे। 28 मूलगुण उनके पैदल सिपाही थे। 6 मास तक आहार न लेने पर भी उनके शरीर में कोई शिथिलता नहीं थी। उनका शरीर ज्यों का त्यों दैदीप्यमान था। उनके केश जटा के समान हो गए थे और हवा में उड़ने पर ऐसे लगते थे, मानो ध्यानाग्नि द्वारा तपाए गए जीव रूपी सोने में से कालिमा बाहर उड़ रही हो।
भगवान के तेजस्वी तप के प्रभाव से उस तपोवन में दिन व रात्रि को समान रूप से प्रकाश रहता था। अहो! यह कैसा आश्चर्य है कि गाय झाड़ी में फंसी हुई अपनी पूँछ को छुड़ाने का प्रयत्न कर रही है और शेर अपने नाखूनों से उसकी सहायता कर रहा है। शेर और गाय एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। गाय का बछड़ा शेरनी का दूध पी रहा है और शेरनी का शावक गाय का दूध पी रहा है। साँप और नेवला एक साथ बैठे हैं। भगवान के इस आश्चर्यकारी तप से इन्द्रासन भी डोलने लगा।
भगवान ऐसे तप में लीन थे। उसी बीच कच्छ-महाकच्छ (भरत के मामा) के पुत्र नमि और विनमि राजकुमार आकर भगवान की सेवा में लग गए और प्रार्थना करने लगे कि हे भगवन्! आपने सबको राज्य बाँट दिया परन्तु हमें तो कुछ नहीं दिया। हमें भी कुछ भोगसामग्री प्रदान करो। इस प्रकार बार-बार प्रार्थना करके उनके ध्यान में विघ्न डालने लगे। इससे धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान होने लगा और अपने अवधिज्ञान से जानकर वह वेष बदल कर वहाँ आया और उन दोनों कुमारों को समझाने लगा कि ये भगवान तो भोगों से निःस्पृह हैं। तुम्हें भोग सामग्री चाहिए तो भरत राजा के पास जाओ।
यह सुनकर दोनों कुमार बोले कि तुम हमारे बीच में न पड़ो। हम तो भगवान को प्रसन्न करके ही कुछ पाना चाहते हैं। ऐसे विशाल समुद्र को छोड़ कर कोई कुएँ के पास क्यों जाए?
भगवान के प्रति अत्यन्त भक्ति भरे वचन सुन कर धरणेन्द्र प्रसन्न हुआ और प्रगट होकर कहने लगा कि हे कुमारों! मैं धरणेन्द्र हूँ और भगवान का सेवक हूँ। मेरे साथ चलो, मैं भगवान की आज्ञा से तुम्हें राजसम्पदा देता हूँ।
धरणेन्द्र उन्हें विजयार्द्ध पर्वत पर ले गया, जहाँ रहने वाले विद्याधर मनुष्य देवों के समान ही सुखी होते हैं। यहाँ चारणऋद्धिधारी मुनि भी विचरण करते हैं।
वहाँ रथनुपूर-चक्रवाल नगरी में प्रवेश करके धरणेन्द्र ने दोनों कुमारों का राज्याभिषेक किया। नमि को दक्षिण श्रेणी का और विनमि को उत्तर श्रेणी का राज्य सौंपा तथा वहाँ के विद्याधरों को सूचना दी कि भगवान ऋषभदेव ने इन दोनों को यहाँ भेजा है। ये तुम्हारे स्वामी हैं इसलिए इनकी आज्ञा का पालन करना। तत्पश्चात् धरणेन्द्र दोनों कुमारों को, जो जन्म से विद्याधर नहीं थे, उन्हें अनेक विद्याएँ देकर वहाँ से अपने स्थान पर चला गया।
भगवान ऋषभदेव के चरणों की सेवा करने से ही उन दोनों को विद्याधरों के समान सुख-समृद्धि प्राप्त हुई। इसलिए जो भव्य जीव मोक्ष रूपी अविनाशी सुख व जिनगुणों को प्राप्त करना चाहते हैं, वे आदिगुरु भगवान ऋषभदेव के चरणों में मस्तक झुका कर उन्हें नमस्कार करें और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-वन्दना करें।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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