प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 15)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 15)
भगवान ऋषभदेव को वैराग्य और दीक्षा
अयोध्यानगरी और चैत्र कृष्णा नवमी
भगवान ऋषभदेव ने 63 लाख वर्ष पूर्व तक कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन किया। अब उनकी आयु 83 लाख वर्ष पूर्व हो चुकी थी।
आज भगवान ऋषभदेव का जन्म दिवस का उत्सव मनाया जा रहा था। उस उत्सव में इन्द्र भी स्वर्ग की अप्सराओं सहित सम्मिलित होने के लिए आया था। भगवान ऋषभदेव जन्म दिवस के उपलक्ष्य में किए गए अप्सराओं के अद्भुत नृत्य को देख रहे थे।
उसी समय इन्द्र को विचार आया कि भगवान ऋषभदेव का अवतार तो तीर्थंकर बनने के लिए हुआ है और वे धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले हैं। इस राजवैभव का भोग करते हुए उन्हें 83 लाख वर्ष पूर्व हो चुके हैं। इस राज्य और संसार के भोगों से भगवान कब विरक्त होंगे? ऐसा विचार कर उसने नीलांजना नाम की अप्सरा को नृत्य करने के लिए बुलाया जिसकी आयु कुछ ही क्षणों में पूर्ण होने वाली थी।
वह नीलांजना देवी मनोहारी हाव-भाव सहित नृत्य कर रही थी। नीलांजना देवी की नृत्य करते-करते आयु पूर्ण हो गई और वह क्षणभर में ही विलुप्त हो गई। बिजली की चमक के समान उसके अदृश्य होते ही इन्द्र ने उसके समान दूसरी देवी को नृत्यमंच पर उतार दिया ताकि किसी के रंग में भंग न हो। जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी भगवान ऋषभदेव के ज्ञान से यह बात छिपी न रह सकी। संसार की ऐसी क्षणभंगुरता को देख कर तत्क्षण उन्हें संसार के भोगों से वैराग्य हो गया और वे बारह भावनाओं का चिन्तन करने लगे।
वास्तव में यह नाटक तो मात्र इन्द्र द्वारा ही किया गया था भगवान ऋषभदेव को प्रतिबोध देने के लिए कि ऐसे असार संसार के क्षणिक राजभोगों से बस करो। भगवान ऋषभदेव चिन्तन करने लगे कि मेरा जन्म इन राजभोगों के हेतु नहीं हुआ। अपनी आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने की साधना करने के लिए, मोक्ष-प्राप्ति के लिए हुआ है।
इस प्रकार वैराग्य का चिन्तन करके भगवान ऋषभदेव इस असार संसार से विरक्त हुए और उनकी आत्मा में ऐसी विशुद्धि प्रगट हुई, मानो मुक्ति की सहेली मिल गई हो। भगवान के अंतःकरण की समस्त चेष्टाओं को इन्द्र ने अवधिज्ञान से जान लिया कि भगवान अब संसार से विरक्त होकर मुनिदीक्षा के हेतु तत्पर हुए हैं।
तुरन्त ब्रह्मस्वर्ग से लौकान्तिक देव भगवान ऋषभदेव के तपकल्याणक की पूजा करने पृथ्वीलोक पर आए और स्तुति पूर्वक उनके वैराग्य की अनुमोदना की। वे आठ प्रकार के देव अपने पूर्वभव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के अभ्यासी (श्रुतकेवली) होते हैं और एक भवावतारी होते हैं। लोक का अन्त प्राप्त होने से अथवा ब्रह्मलोक के अंत में रहने के कारण वे लौकान्तिक देव कहलाते हैं। वे मुक्ति-सरोवर के किनारे रहने वाले हंस के समान होते हैं।
उन्होंने कल्पवृक्ष के पुष्पों की पुष्पांजलि भगवान के चरणों में अर्पित की और उनकी स्तुति करने लगे - हे भगवन्! मोह रूपी शत्रु को जीतने के लिए आप उद्यमी हुए हो और भव्य जनों का कल्याण करने के लिय तत्पर हो। हे प्रभो! आप केवलज्ञान के प्रकाश द्वारा अज्ञान के अन्धकार में डूबे हुए संसार का उद्धार करेंगे। आप के द्वारा बनाए गए धर्मतीर्थ की नाव पर सवार होकर इस दुष्कर संसार को प्राणी क्षणमात्र में पार कर लेंगे। हे प्रभो! आप स्वयंभू हो। आपने मोक्ष का मार्ग स्वयं जान लिया है और आप ही हमें मोक्ष का मार्ग दिखाएंगे।
हे प्रभो! हम आपको प्रेरणा देने वाले कौन हैं? यह तो मात्र हमारा शिष्टाचार है। भव्य चातक मेघ बरसने की भांति आपके धर्मामृत के बरसने की राह देख रहे हैं। हे प्रभो! यह काल धर्मरूपी अमृत की वर्षा के योग्य मेघों को उत्पन्न करने के लिए उपयुक्त है। इसलिए हे विधाता! धर्म की सृष्टि करो और उसके अमृत का पान कराओ। अब आप अनेक बार भोगे गए भोगों का त्याग करो और मोक्ष मार्ग पर चलने की तैयारी करो। अपने अतुल्य बल से मोह रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करो।
इस प्रकार ब्रह्मर्षि लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति किए जाने पर भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा धारण करने के संकल्प को दृढ़ किया। लौकान्तिक देव भी कृतार्थ होकर श्वेत हंसों की भांति आकाशमार्ग से अपने स्वर्ग में चले गए। उसी समय इन्द्रादि देवों का आसन कंपायमान होने से उन्हें भगवान के तपकल्याणक का ज्ञान हुआ और सभी उत्सव मनाने हेतु अयोध्यानगरी में आ पहुँचे। क्षीरसमुद्र के जल से भगवान का दीक्षाभिषेक किया गया।
अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर तथा बाहुबली को युवराज का पद देकर आप माता-पिता की आज्ञा लेकर ‘सुदर्शन’ नामक शिविका (पालकी) में आरूढ़ होकर अपने नगर के निकट सिद्धार्थ वन में गए तथा चैत्र कृष्ण नवमी के दिन अपराह्नकाल में 4000 राजाओं के साथ निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की।
एक ओर भगवान का दीक्षा महोत्सव और दूसरी ओर भरत का राज्याभिषेक का महोत्सव - ऐसे दो महान उत्सवों से स्वर्गलोक व पृथ्वीलोक दोनों आनन्दविभोर हो गए। एक ओर भगवान दृढ़ संकल्प सहित राजपाट के त्याग का तप-साम्राज्य के लिए कटिबद्ध हुए तथा दूसरी ओर राजकुमारों को पृथ्वी का राज्य-भार सौंपा जा रहा था। दिग्कुमारी देवियाँ मंगल द्रव्य लेकर खड़ी थी। चारों ओर मंगल नौबत बाजे बज रहे थे। अयोध्यानगरी में चारों ओर आनन्द ही आनन्द छाया हुआ था। करोड़ों देवी-देवता और करोड़ों नर-नारी, बाल-वृद्ध एक साथ उत्सव मना रहे थे।
भरत को अयोध्या का व बाहुबलि को पोदनपुर का राज्य सौंप कर, शेष 99 पुत्रों को भी राज्य के भिन्न-भिन्न भाग देकर भगवान निश्चिन्त हो गए थे। भगवान पहले तो आत्मा की परम विशुद्धता पर आरूढ़ हुए और तत्पश्चात् शिविका पर। उस समय ऐसा लग रहा था, जैसे वे गुणस्थानों की श्रेणी पर चढ़ रहे हों।
भक्तिपूर्वक भगवान की पालकी लेकर सात कदम तक भूमिगोचरी राजा चले, फिर विद्याधर राजा आकाशमार्ग से सात कदम चले और फिर इन्द्र अति हर्षपूर्वक अपने कंधे पर पालकी को रख कर आकाश मार्ग से चले। जब भगवान पालकी पर आरूढ़ हुए, उस समय करोड़ों दुन्दुभि बाजे बज रहे थे। अद्भुत वैराग्य वैभव से सुशोभित भगवान ऋषभदेव समस्त जगत को आनन्दित करते हुए, सब का कल्याण करने के लिए अयोध्यानगरी से बाहर निकले। उस समय उनके नेत्रों व अंगोपांग की चेष्टा अति प्रशान्त व असंग वैराग्य दशा को सुशोभित कर रही थी।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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