प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 18)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी (भाग - 18)
ऋषभदेव मुनि का वर्षीतप के पश्चात् हस्तिनापुर में प्रथम पारणा
ऋषभदेव मुनि का 6 माह का ध्यान योग समाप्त हुआ। तब उन्होंने विचार किया कि मोक्षमार्ग क्या है, सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि कैसे होती है और संयम की साधना के लिए आहार लेने की विधि क्या है, वह प्रगट करने के लिए निर्दोष आहार चर्या का ज्ञान होना आवश्यक है। अन्यथा उन नवदीक्षित साधुओं के समान कोई भी मुनि क्षुधा-पिपासा से दुःख से भयभीत होकर मार्ग-भ्रष्ट हो सकता है। ऐसा विचार कर योग पूर्ण होने पर आप आहार के लिए निकले।
भगवान जहाँ-जहाँ पधारते, वहाँ के लोग प्रसन्नता से आश्चर्यचकित होकर नमन करते और पूछते कि हे देव! कहिए, क्या आज्ञा है? आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?
कोई भगवान को अर्पण करने के लिए हाथी, रथ, वस्त्राभूषण, रत्न आदि सामग्री लाते, तो कोई अपनी रूपवती कन्या भगवान के चरणों की सेवा करने को अर्पित करते। भगवान चुपचाप आगे बढ़ते रहते।
भगवान किसलिए पधारे हैं और क्या करना चाहिए, यह न समझ पाने के कारण लोग दिग्मूढ़ बन गए थे। कुछ तो अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान के चरणों से लिपट रहे थे। इस प्रकार आहार-विधि जानने वालों के अभाव में अगले 7 माह 8 दिन तक अर्थात् कुल 13 माह 8 दिन तक अनेक नगरों तथा गाँवों में विहार करते-करते बीत गए, पर आहार नहीं हुआ।
तत्पश्चात् एक दिन वे विहार करते हुए कुरुदेश के हस्तिनापुर नगर में आ पहुँचे। उस समय वहाँ के राजा सोमप्रभ और उनके लघु भ्राता श्रेयांस कुमार थे। पूर्व के आठवें भव में राजा सोमप्रभ ने वज्रजंघ की पर्याय में और श्रेयांस राजा ने श्रीमती की पर्याय में मुनिराज को आहार करवाया था।
जिस दिन भगवान हस्तिनापुर पधारने वाले थे, उसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में श्रेयांस कुमार ने पूर्व संस्कार के बल से पूर्व सूचनारूप सात उत्तम स्वप्न देखे - ऊँचा सुमेरु पर्वत, सुशोभित कल्पवृक्ष, केसरी सिंह, वृषभ, सूर्य-चन्द्र, रत्नों से भरा समुद्र और अष्ट मंगल सहित देव। जिनका मुख्य फल है - अपने आँगन में भगवान का पदार्पण। ऐसे सात मंगल स्वप्न देख कर श्रेयांस कुमार का चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ।
प्रभात होते ही दोनों भाई उस स्वप्न के विषय में बात कर रहे थे और भगवान ऋषभदेव का गुणगान कर रहे थे। तभी मुनिराज ऋषभदेव ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। भगवान के आगमन से आनन्दित होकर चारों ओर से नगरजनों के समूह भोजन आदि सभी कार्य छोड़ कर भगवान के दर्शन करने उमड़ पड़े। नगर में हर्षमय कोलाहल हो रहा था और भगवान अपने संयम और वैराग्य की सिद्धि के लिए वैराग्य भावनाओं का चिन्तन करते-करते अपनी आत्मा में लीन होकर चले आ रहे थे। वास्तव में ऐसी राग-द्वेष रहित समतावृत्ति को धारण करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है।
‘भगवान ऋषभदेव मुनिराज राजमहल के सामने पधार रहे हैं’, यह जानकर ‘सिद्धार्थ’ नामक द्वारपाल ने तुरन्त राजा सोमप्रभ और उनके लघु भ्राता श्रेयांस कुमार को बधाई दी कि भगवान अपने आँगन में पदार्पण कर रहे हैं।
यह सुनते ही दोनों भाई मंत्री आदि सहित खड़े हो गए और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक राजमहल के प्रांगण में आकर दूर से ही भगवान के चरणों में भक्तिभाव पूर्वक नमस्कार किया। भगवान के पधारते ही सम्मान सहित पाद प्रक्षालन करके अर्घ चढ़ा कर पूजा की और प्रदक्षिणा दी। भगवान के दर्शन से दोनों भाई हर्षोल्लास से रोमांचित हो गए। भगवान का रूप देखते ही श्रेयांस कुमार को जातिस्मरण हुआ और पूर्वभव के संस्कार के कारण भगवान को आहार दान देने की बुद्धि प्रगट हुई, जब उन्होंने वज्रजंघ और श्रीमती की पर्याय में सरोवर के किनारे दो मुनिवरों को आहारदान दिया था।
उन्होंने विधिपूर्वक नवधा भक्ति से मुनिराज ऋषभदेव का पड़गाहन किया और उनके यहाँ ‘वैशाख शुक्ल तृतीया’ की तिथि को ‘इक्षुरस’ द्वारा उनकी प्रथम पारणा हुई। भगवान ऋषभदेव मुनिराज खड़े-खड़े ही ‘करपात्र’ में आहार ले रहे थे।
तब से राजा श्रेयांस ‘दान तीर्थ प्रवर्तक’ घोषित हुए और तभी से यह तिथि ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय देवगण आकाश से रत्नवृष्टि व पुष्पवृष्टि कर रहे थे। देवदुन्दुभि का नाद होने लगा, सुगन्धित वायु बह रही थी और देवगण हर्षित होकर ‘धन्य दान, धन्य पात्र, धन्य दाता’ ऐसी आकाशवाणी कर रहे थे। जैसे पुण्य के साधनरूप में जीवों के शुभ परिणाम ही प्रधान कारण है, उसी प्रकार पुण्यकार्य की अनुमोदना करने वाले जीवों को भी उस पुण्यफल की प्राप्ति अवश्य होती है।
मुनियों को आहार दान देने की विधि सिखा कर भगवान पुनः वन की ओर चल दिए। दोनों भाई कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे गए और लौटते समय भी मुड़-मुड़ कर वन की ओर जाते हुए भगवान को पुनः-पुनः देखते रहे। वे बारम्बार उनके गुणों की स्तुति कर रहे थे और धरती पर पड़े हुए उनके चरण-चिह्नों को नमस्कार करते रहे। नगरजन आँगन में बिछे हुए रत्नों को एकत्रित करने लगे।
आहारदान की इस घटना का विवरण राजा भरत आदि अन्य राजाओं को भी प्राप्त हुआ और उन्हें यह जान कर आश्चर्य हुआ कि मौन धारण किए होने पर भी उन्होंने भगवान के अभिप्राय को कैसे जान लिया? महाराजा भरत ने स्वयं अयोध्या से हस्तिनापुर आकर श्रेयांस कुमार का सम्मान किया और अतिशय हर्ष व्यक्त करते हुए पूछा कि हे महादानी! इस भरत क्षेत्र में यह आहारदान की विधि कभी नहीं देखी गई। यदि आपने यह क्रिया करके न दिखाई होती तो मुनिराज को आहारदान की विधि कोई नहीं जान पाता। आज आप हमारे लिए भगवान के समान पूजनीय हैं, दानतीर्थ के प्रवर्तक हैं। कृपया बताइए कि आपने यह विधि कैसे जान ली?
श्रेयांस कुमार कहने लगे कि यह सब मैंने उस पूर्वभव के स्मरण से जाना, जब मैं भगवान के साथ ही था। जैसे रोग दूर करने वाली उत्तम औषधि प्राप्त करके मनुष्य प्रसन्न होता है और तृषातुर व्यक्ति जल से भरा हुआ सरोवर देख कर आनन्दित होता है, उसी प्रकार भगवान का यह उत्कृष्ट वीतराग रूप देखकर मैं अत्यन्त हर्ष-विभोर हो गया था और उसी समय मुझे जातिस्मरण होने से मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया। पूर्व के आठवें भव में भगवान ऋषभदेव वज्रजंघ की पर्याय में थे और मैं उनकी रानी श्रीमती की पर्याय में था। तब हम दोनों ने दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों को आहारदान दिया था। उन संस्कारों का स्मरण होते ही मैंने उसी विधि से भगवान को आहारदान दिया। वास्तव में विशुद्धिपूर्वक मुनिवरों को दिया गया आहारदान का संस्कार जन्म-जन्मांतरों में भी पुण्यफल देने में सहायक होता है।
इस प्रकार श्रेयांस कुमार ने दानतीर्थ का प्रवर्तन किया। महाराजा भरत भी भगवान ऋषभदेव के गुणों का चिन्तन करते हुए अयोध्या नगरी को लौट गए।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री आदिनाथाय नमः।।
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