छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 1)

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 1)

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ के पूर्व भव

राजा ‘अपराजित’ की पर्याय में

घातकी खण्ड के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर वत्स देश में सुन्दर सुसीमा नगरी है। भगवान पद्मप्रभ भी पूर्वभव में सुसीमा नगरी के महाराजा थे। उनका नाम था ‘अपराजित’। वे वास्तव में अ-पराजित थे, क्योंकि वे न तो बाहर के किसी शत्रु द्वारा पराजित होते थे और न अन्दर का मोह रूपी शत्रु उन्हें पराजित कर सकता था।

वे राजा के रूप में इतने सदाचारी और सत्यनिष्ठ थे कि कृषकों की इच्छानुसार सुसमय वर्षा होने से उनके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था। दान की उदारता के कारण उनके राज्य में कोई दरिद्र नहीं था। कोई कुमार्गगमन नहीं करता था और न ही कोई दुर्व्यसनी था। वैभव की वृद्धि के साथ-साथ प्रजा के सदाचार में भी वृद्धि होती थी।

ज्ञानचेतना से युक्त वे महाराजा अपराजित सदा मन में विचारते थे कि जो इन्द्रिय सुख शरीर के द्वारा भोगे जाते हैं, वे क्षणभंगुर हैं। शरीर के वियोग से इन्द्रियविषयों का भी वियोग हो जाता है। अतः उनका चित्त ऐसे क्षणभंगुर विषयों से सदा विरक्त रहता था और अतीन्द्रिय आत्मसाधना में तत्पर रहता था।

एक बार महाराजा अपराजित विशेष वैराग्यचिंतन कर रहे थे। उसी समय उनकी नगरी में पिहितास्रव जिनराज का आगमन हुआ। जिन्होंने आस्रव को सर्वथा पेल डाला है - ऐसे उन जिनेन्द्र भगवान के चरणकमल में आकर अपराजित महाराज ने सकल संसार का त्याग कर दिया और मुनिदीक्षा ग्रहण की। मुनि बन कर वे रत्नत्रय सहित तीव्र आत्मसाधना करने लगे। उन्हें द्वादशांग का ज्ञान प्रगट हुआ और इतना ही नहीं, दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ। अब यह निश्चित हो गया कि वे एक भव के पश्चात् तीर्थंकर होंगे और मोक्ष प्राप्त करेंगे।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।

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