छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 3)
छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 3)
कौशाम्बी नगरी में तीर्थंकर का अवतार
भरत क्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में असंख्य वर्षों पूर्व इक्ष्वाकुवंशी धरण महाराजा राज्य करते थे। उनकी महारानी थी सुसीमा देवी। वे रूप-गुण में तो महान् थी ही, एक तीर्थंकर की माता बनने का महान् सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त हुआ। भगवान पद्मप्रभ का जीव अहमिन्द्र पर्याय छोड़ कर माघ कृष्णा षष्ठी के दिन उनके उदर में अवतरित हुआ। रत्नकुक्षिधारिणी माता ने उनके गर्भागमन सूचक सोलह मंगल स्वप्न देखे।
तत्पश्चात् सवा नौ मास धर्मआराधना में व्यतीत हुए और कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के शुभ दिन माता सुसीमा देवी ने जगत्पूज्य तीर्थंकर को पुत्र रूप में जन्म दिया। इन्द्र-इन्द्राणी ने ठाठबाट से प्रभु के जन्मकल्याणक का महान उत्सव किया, उनके सम्मुख आनन्दपूर्वक नृत्य किया और भगवान के माता-पिता का सम्मान किया। उन्होंने बाल तीर्थंकर को ‘पद्मप्रभ’ नाम से सम्बोधित करके उनकी स्तुति की। पाँचवें तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ के मोक्षगमन के नब्बे हज़ार करोड़ सागरोपम वर्षों के अन्तर से छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ हुए। इनकी आयु तीस लाख वर्ष पूर्व थी और उनका चरण चिह्न ‘कमल’ था।
बाल तीर्थंकर के जन्म से केवल कौशाम्बी नगरी में ही नहीं, अपितु तीनों लोक में हर्ष छा गया। बाल तीर्थंकर की माता सुसीमा बालक पद्मकुमार की चेष्टाएं देख-देख कर अनुपम तृप्ति का अनुभव करती थी। माता कहती - बेटा! तू भले ही सारे जगत का नाथ है, पर मुझे तेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देने का अधिकार है। तू छोटा है, पर तेरी चेष्टाएँ स्वानुभूति से भरी हुई महागम्भीर हैं। बाल तीर्थंकर की सेवा में रहने वाली दिग्कुमारी देवियाँ माता को कहती - अहो माता! आप को यह अधिकार क्यों न होगा? आप तो मोक्षगामी तीर्थंकर की माता हो। आप भी अवश्य मोक्ष को प्राप्त करेंगी।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।
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