छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 5)
छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 5)
भगवान पद्मप्रभ - वैराग्य और दीक्षा
कौशाम्बी नगरी एक तीर्थरूप ही थी। प्रतिदिन देश-विदेश कितने ही मुमुक्षु वहाँ उस जीवन्त तीर्थ के दर्शन के लिए आते थे और पद्मप्रभ महाराज के दर्शन करके तीर्थयात्रा जैसा आनन्द प्राप्त करते थे।
इस प्रकार महाराज पद्मप्रभ को राज्य करते हुए दीर्घकाल व्यतीत हो गया। जब एक लाख वर्ष पूर्व की आयु शेष रह गई, तब एक वैराग्य प्रेरक घटना हुई।
एक बार पद्मप्रभ महाराज राजमहल में बैठे थे। महल के प्रांगण में एक भव्य विशालकाय अति सुन्दर हाथी था। हज़ारों हाथियों में वह ‘पट्टहस्ती’ था। महाराज उस पर सवारी करते थे और वह उन्हें अत्यन्त प्रिय था। अचानक उस हाथी का शरीर शिथिल हो गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। वह आँखें बंद करके लेट गया और उसका प्राणान्त हो गया।
प्रिय हाथी की अचानक मृत्यु हो जाने से महाराज को बहुत आश्चर्य हुआ। जीवन की क्षणभंगुरता को देख कर वे वैराग्य चितन में डूब गए। उन्होंने अवधिज्ञान से हाथी के पूर्वभवों को जाना और जातिस्मरण होने से अपने पूर्वभवों का भी उनको ज्ञान हुआ। तुरन्त ही उनका चित्त संसार से विरक्त हो गया।
महाराज पद्मप्रभ तत्त्वज्ञानी थे। वे दुःखमय संसार का और सुखमय आत्मा का स्वरूप जानते थे। भेदज्ञानी भगवान संसार से विरक्त होकर विचारने लगे - अरे! इस संसार में इन्द्रियविषय रूप ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसे मैंने पूर्वकाल में न देखा हो, जिसका मैंने स्पर्श न किया हो, जिसे सूँघा न हो, जिसे सुना न हो और जिसके खाने का स्वाद न लिया हो। समस्त इन्द्रियविषयों को जीव पूर्वकाल में अनन्त बार भोग चुका है और उन उच्छिष्ट पदार्थों को ही वह बार-बार भोग रहा है।
अरे! इच्छा के समुद्र में पड़े हुए इस जीव का उद्धार कैसे होगा? अब तो रत्नत्रय-नौका में बैठ कर वह केवलज्ञान प्राप्त करे और अपने उपयोग में विश्व के समस्त पदार्थों का एकसाथ ग्रहण हो, तभी जीव की इच्छाएं शांत हो सकती हैं। तभी वह दूषित इन्द्रियविषयों से छूट कर पूर्ण वीतराग सुख को प्राप्त करेगा। इसलिए अब शीघ्र ही केवलज्ञान का उद्यम करना ही मेरा कर्त्तव्य है।
वैराग्य से युक्त प्रभु विचारते हैं कि यह शरीर तो रोग और मृत्यु का घर है। जीव प्रत्यक्ष रूप से देखता है कि रोगरूपी सर्प द्वारा इष्टजन मरण को प्राप्त हो रहे हैं, तथापि यह अविनाशी आत्मा इस विनाशक शरीर में क्यों मोहित हो रहा है? यह एक आश्चर्य की बात है। क्या आज तक कोई जीव इस शरीर के साथ सदा के लिए निवास कर सकता है? नहीं! तो फिर शरीर का मोह तोड़ कर अशरीरी सिद्धपद में शाश्वत निवास करना ही श्रेष्ठ है।
जो हिंसा आदि पापों में ही धर्म मानते हैं और इन्द्रियविषयों में जो सुख की कल्पना करते हैं, ऐसे विपरीतदर्शी मूर्ख जीवों को ही यह संसार रुचिकर प्रतीत होता है। बुद्धिमान जीव तो उसे असार जानकर चैतन्यसुख की ही साधना करते हैं। जिन शुद्ध भावों से पाप और पुण्य दोनों प्रकार के कर्मलेप का नाश हो, धर्मात्मा जीव उसी की निरन्तर उपासना करते हैं।
इस प्रकार भवरूप संसार, शरीर और विषयभोग तीनों का अनित्य, अशरण और असाररूप चिन्तवन करके प्रभु उनसे सर्वथा विरक्त हो गए और जिनदीक्षा हेतु तत्पर हुए।
उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर स्तुति पूर्वक प्रभु के वैराग्य की अनुमोदना की। इन्द्रादि देव भी प्रभु के दीक्षा कल्याणक का उत्सव मनाने आ पहुँचे। जिस तिथि को जन्म हुआ था, उसी तिथि कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर वे आत्मध्यान में लीन हो गए।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।
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