छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 6)
छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 6)
तप एवं मोक्ष कल्याणक
पद्मप्रभ महाराज के ऐसे उत्कृष्ट वैराग्य की भावना से प्रभावित होकर अनेक भव्य जीवों ने उनके साथ महाव्रत या अणुव्रत धारण किए। वन के तिर्यंच सिंह और खरगोश, सर्प और मोर - शांति से चित्त लगाकर प्रभु की शरण में बैठ कर आत्महित करने लगे। मुनियों में श्रेष्ठ पद्मप्रभ स्वामी को तुरन्त ही मनःपर्यय ज्ञान तथा अनेक लब्धियाँ प्रगट हुई।
शुद्ध रत्नत्रयधारी पद्मप्रभ मुनिराज को वर्धमान नगरी के सोमदत्त राजा ने सर्वप्रथम आहारदान दिया। उस उत्तमदान के फलस्वरूप पंच आश्चर्य घटित हुए। भगवान को मुनिदशा में उत्तम गुप्ति-समिति-क्षमा आदि धर्म व वैराग्यचिंतन, परिषहजय तथा आत्मध्यान आदि तप के द्वारा अति विशेष कर्मों की निर्जरा हो रही थी।
ऐसी उग्र आत्मसाधना सहित वे मुनिदशा में छद्मस्थ रूप से मात्र 6 मास तक रहे। 6 मास के पश्चात् क्षपक श्रेणी द्वारा चारों घाति कर्मों का सर्वथा क्षय करके चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन पूर्ण ज्ञान प्रगट करके प्रभु सर्वज्ञ परमात्मा हुए … अरिहन्त हुए, तीर्थंकर हुए।
इन्द्रों और नरेन्द्रों ने प्रभु के केवलज्ञान की पूजा की। तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ के समवशरण में चामरसेन आदि 110 गणधर थे। एक साथ बारह हज़ार सर्वज्ञ परमात्मा वहाँ विद्यमान थे। लाखों मुनि-आर्यिकाएँ तथा लाखों श्रावक-श्राविकाएँ वहाँ मोक्ष की साधना कर रहे थे। लाखों की संख्या में तिर्यंच जीव भी वहाँ धर्मसाधना के द्वारा अपने जीवन को धन्य बना कर मोक्ष मार्ग में चल रहे थे।
इस प्रकार तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ ने धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाया। उन्होंने करोड़ों वर्षों तक भरतक्षेत्र में मंगल विहार करके सर्वत्र धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। अन्त में सम्मेदशिखर की ‘मोहन टोंक’ पर पधार कर मोह रहित भगवान पद्मप्रभ फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी के दिन सर्व कर्मों से मुक्त होकर सिद्धपद को प्राप्त हुए और उसी क्षण लोकग्र भाग में जाकर विराजमान हो गए।
प्रभु के मोक्षकल्याणक द्वारा इन्द्रों ने भी उत्सव मनाया। वास्तव में जिनपद की उपासना ही परमपद की प्राप्ति का उपाय है। हे भव्य जीवों! आओ हम भी ऐसा समझ कर परम भक्तिपूर्वक जिनमार्ग की उपासना करें।
।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।
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