पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 2)
पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 2)
अयोध्या में सुमतिनाथ अवतार और वैराग्य भावना
उस समय अयोध्यानगरी में भगवान ऋषभदेव के वंशज महाराजा मेघरथ राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम मंगलावती था। उनके आंगन में 6 मास से प्रतिदिन दिव्य रत्नों की वृष्टि हो रही थी। महान आनन्द की सूचक वह रत्नवृष्टि देख कर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे। 6 मास पश्चात् श्रावण शुक्ला दूज को महारानी मंगलावती ने सोलह उत्तम स्वप्न देखे। उसी समय तीर्थंकर सुमतिनाथ का जीव देवलोक से उनकी कुक्षि में अवतरित हुआ। ऐसी तीर्थंकर की मंगल आत्मा का स्पर्श करके माता मंगला वास्तव में मंगल हो गई।
चैत्र शुक्ला एकादशी को अयोध्यानगरी में तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म हुआ। मात्र अयोध्या ही नहीं, तीनों लोक उनके जन्मकल्याणक से आनन्दित हो गए। इन्द्रों ने आकर भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्रों द्वारा अभिषेक किए जाने से ही तीनों लोकों में उनकी श्रेष्ठता सिद्ध हो जाती है।
चौथे तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ के पश्चात् नौ लाख करोड़ सागरोपम के अंतर से पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ हुए। उनकी आयु 40 लाख वर्ष पूर्व थी। उनका चिह्न ‘चकवा’ था। बाल्यकाल में उनके लिए सारी सामग्री स्वर्गलोक से आती थी। वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी होने से तीन जगत के गुरु थे। जिस प्रकार समवशरण में आकर रत्नत्रय से मुग्ध हुआ जीव संसार की किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं करता, उसी प्रकार उनकी प्रसन्न मुद्रा तथा प्रशान्त दृष्टि दर्शकों को ऐसा सन्तुष्ट कर देती थी कि उनके पास आए हुए याचक कुछ माँगना ही भूल जाते थे।
उनकी जिह्वा में सरस्वती का वास था। बाल तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ के मुख से निकलने वाली वाणी को सुन कर सब मुग्ध हो जाते थे क्योंकि उसमें परमात्मा के नाद की ध्वनि थी। जगत के सभी सुन्दर व श्रेष्ठ परमाणु प्रभु के शरीर में आकर बस गए थे और सभी उत्तम गुण उनकी आत्मा में निवास करने लगे थे।
बाल्यावस्था में ही उनके रूप-गुण अद्भुत थे, तो फिर युवावस्था के रूप का तो कहना ही क्या!! जब उनके जीवन में हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप ही नहीं थे तो उनको आर्तरौद्र ध्यान तो हो ही नहीं सकते। उनको कभी इष्ट-वियोग या अनिष्ट-संयोग नहीं होता था। सभी लौकिक व आत्मिक सुख उन्हें प्राप्त थे। इस प्रकार महाराजा सुमतिनाथ ने आयु का अधिकांश भाग सुखपूर्वक राजभोग में व्यतीत किया।
एक बार चैत्र शुक्ला एकादशी को महाराजा सुमतिनाथ का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। अद्भुत शृंगार से सुसज्जित अयोध्यानगरी की शोभा को महाराज देख रहे थे। उस काल में ज्ञान की विचारधारा स्थिर होने से उन्हें अपने पूर्वभव का ज्ञान हुआ। जातिस्मरण होने पर उन्होंने देखा कि ‘अरे! पूर्वभव में मैं अनुत्तर विमान में देव था। वहाँ का वैभव तो यहाँ के वैभव से अधिक अद्भुत और आश्चर्यकारी था। जब उसका भी अन्त में वियोग होना निश्चित था, तो इस क्षणभंगुर वैभव का वियोग होना तो अवश्यम्भावी है। इस प्रकार जातिस्मरण होने पर महाराजा सुमतिनाथ का चित्त संसार से एकदम विरक्त हो गया। वे शीघ्र ही चारित्रदशा प्रगट करके सम्पूर्ण वीतरागता और केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए उद्यत हुए। उन्होंने निश्चय कर लिया कि मैं तो तीन ज्ञान का धारी हूँ। मैं इन अहितकारी विषयों में लीन क्यों रहूँ? मैं आज ही उन्हें छोड़ कर जिनदीक्षा धारण करूँगा और निज आत्मा में स्थिर होऊँगा।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री सुमतिनाथाय नमः।।
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