पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 3)

पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 3)

भगवान सुमतिनाथ जी का दीक्षा कल्याणक व केवलज्ञान प्राप्ति

इस प्रकार मन में चारित्रदशा अंगीकार करने का निश्चय करके वैराग्य की भावना भायी। लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना की - हे प्रभो! आपका वैराग्य चिन्तन उत्तम है, प्रशंसनीय है। मुक्तिसुन्दरी आपकी प्रतीक्षा कर रही है।

तभी इन्द्रादिक देव भी प्रभु के दीक्षा कल्याणक का महोत्सव मनाने आ पहुँचे। वे ‘अभया’ नामक देव-शिविका में प्रभु को विराजमान करके दीक्षावन ले गए। वहाँ एक हज़ार राजाओं सहित प्रभु ने स्वयं जिनदीक्षा धारण की। उसी समय सिद्धों को वंदन करके आत्मध्यान में स्थिर होने पर शुद्धोपयोग, मनःपर्यय ज्ञान तथा आकाशगामित्व आदि अनेक महान ऋद्धियाँ प्रगट हुई।

मुनिराज सुमतिनाथ के जीवन में संयम, तप, ध्यान की प्रधानता थी। उनके सर्व पाप शान्त हो गए और वे मौनरूप से आत्मसाधना में लीन हो गए। मुनिदीक्षा के उपरान्त उन्हें सौमनस नगरी के पद्मराजा ने सर्व प्रथम आहारदान दिया। उस समय देवों ने हर्षित होकर रत्नवृष्टि करके उनका सम्मान किया।

क्रमशः

।।ओऽम् श्री सुमतिनाथाय नमः।।

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