पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 4)
पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 4)
केवलज्ञान प्राप्ति
मुनिराज सुमतिनाथ ने 20 वर्ष तक आत्मध्यान किया और अन्त में अयोध्या के जिस वन में और जिस दिन दीक्षा ली थी, उसी वन में और उसी दिन चैत्र शुक्ला एकादशी को केवलज्ञान प्रगट हुआ। प्रभु अंतरात्मा से परमात्मा बने, साधु परमेष्ठी से अरिहन्त परमेष्ठी बन गए।
उसी समय तीर्थंकर प्रकृति के उदय से देवों ने आकर दिव्य समवशरण की रचना की और उनके ज्ञानकल्याणक की व अर्हत्पद की पूजा की। उनकी धर्मसभा में अमर आदि 116 गणधर विराजमान थे। उनके समवशरण में केवलज्ञान के धारी तेरह हज़ार अरिहन्त भगवन्त विराजते थे। तीन लाख बीस हज़ार अवधिज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी, द्वादशांगधारी और ऋद्धिधारी मुनिराज थे। तीन लाख तीस हज़ार आर्यिकाएं और तीन लाख श्रावक एवं पाँच लाख श्राविकाएं संयमपूर्वक धर्मसाधना करते थे।
ऐसे महान धर्मवैभव सहित उन पंचम तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी ने भरतक्षेत्र के प्रत्येक देश में मंगल विहार किया और जीवों में ‘सुमति’ के ज्ञान का सिंचन करके ‘सुमतिनाथ’ बने। भरतक्षेत्र के भव्य जीवों ने उनकी सेवा से सुमति प्राप्त करके अपने भव का अन्त किया। लाखों वर्षों तक भगवान सुमतिनाथ जी ने अनेकान्तमय सुमति का उपदेश देकर अनेक जीवों का कल्याण किया और वे जीव सम्यग्ज्ञान रूपी सुमति पाकर मोक्षमार्ग में लग गए।
जब उनकी आयु एक मास शेष रह गई, तब प्रभु की वाणी और विहार रुक गए। वे सम्मेदशिखर जी की ‘अविचल टोंक’ पर जाकर स्थिर हो गए। चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन प्रभु ने निर्वाणपद प्राप्त किया।
भगवान सुमतिनाथ जी का जन्म, दीक्षा, ज्ञान व मोक्ष कल्याणक एक ही तिथी को हुए। इन्द्रों ने आकर भगवान का मोक्षकल्याणक का मंगल महोत्सव मनाया।
जो पूर्वभव में विदेह की पुण्डरगिरी नगरी के राजा रतिषेण थे, तत्पश्चात् मुनि होकर अहमिन्द्र बने और अन्त में अनन्त मोक्ष लक्ष्मी के धारक तीर्थंकर होकर मोक्षसुख को प्राप्त किया, उन भगवान सुमतिनाथ जी के पथ पर चल कर भव्यजीव भी सम्यक् मति को धारण करके मोक्ष पथ पर अग्रसर होगा।
।।ओऽम् श्री सुमतिनाथाय नमः।।
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