सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 1)
सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 1)
सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी के पूर्व भव
भगवान सुपार्श्वनाथ राजा नन्दिषेण व अहमिन्द्र की पर्याय में
भगवान सुपार्श्वनाथ पूर्व भव में घातकी खण्ड द्वीप में क्षेमपुरी नगरी के राजा नन्दिषेण थे। धर्म के प्रताप से उनकी व उनके राज्य की रक्षा पुण्योदय ही करता था। वैद्य और सेना उनके शरीर व उनके राज्य की रक्षा के लिए नहीं, मात्र शोभा के लिए ही थे। राजा नन्दिषेण ने अपनी आत्मा को जान लिया था और वे केवल इस लोक को ही नहीं, परलोक को भी जीतना चाहते थे। इसलिए वे धर्म उपासना में सदा तत्पर रहते थे।
उन्होंने दर्शनमोह रूपी शत्रु का नाश कर दिया था, परन्तु अभी चारित्रमोह को जीतना बाकी था। इसलिए उनका चित्त राजभोगों में नहीं लगता था। वे सोचते थे कि जो चारित्रमोह मुझे धन, स्त्री आदि की आसक्ति के कारण पापकर्म करवाता है, ऐसी मोहदशा को धिक्कार है। इस मोह से छूट कर मोक्ष प्राप्ति हेतु रत्नत्रय की आराधना करना ही मेरा कर्त्तव्य है।
ऐसे वैराग्यपूर्ण विचारों के कारण राजा नन्दिषेण राजभोगों से अत्यन्त विरक्त हुए और अर्हत्नन्दन जिनेश्वर के शिष्य बन गए। ज्ञान-ध्यान में लीन मुनिराज नन्दिषेण को बारह अंग का ज्ञान प्रगट हुआ और दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ।
इससे उनके जीवन में धर्म की महान् क्रान्ति हुई और संसार के प्रति वीतरागता का विकास हुआ।
अनेक वर्षों तक मुनिराज नन्दिषेण ने शुद्ध चारित्र का पालन किया। सल्लेखनापूर्वक मरण करके कषाय के लेशमात्र कण रह जाने के कारण उन्हें मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र का भव मिला। वहाँ वे असंख्य वर्षों तक दूसरे अहमिन्द्रों के साथ धर्मचर्चा करके महान आनन्द प्राप्त करते थे।
सत्ताइस हज़ार वर्ष में एक बार कण्ठ में अमृत बरसता था किन्तु धर्मरस का पान वे प्रतिदिन करते थे और आनन्द का अनुभव करते थे। अहमिन्द्र की पर्याय में वह सुख का समय कब बीत गया, इसका भान भी नहीं हुआ। जब मात्र 6 मास की आयु शेष रह गई, तब उन्हें ध्यान आया कि अब यहाँ से मनुष्यलोक में जाने का समय निकट आ गया है।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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