सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 3)
सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 3)
राज्याभिषेक और वैराग्य भावना
राजकुमार सुपार्श्व जब 8 वर्ष के हुए, तब उन्होंने देशसंयम धारण किया। उन्होंने अप्रत्याख्यानरूप चार कषायों का नाश करके पंचम गुणस्थान प्रगट किया। प्रत्याख्यान तथा संज्वलनरूप कषाय अति मन्द रूप में शेष रहे। वे अमर्यादित भोग-सामग्री के बीच रह कर भी अपनी आत्मा की ही संयमपूर्वक साधना में लीन रहते थे।
उनकी बाह्य वृत्तियाँ अति मर्यादित थी और परिणाम विशुद्धि द्वारा प्रति समय उनके कर्मों की निर्जरा होती रहती थी। आत्मा के समान उनका शरीर भी स्वभावतः पवित्र था। उन्हें श्रम-खेद-शोक-प्रस्वेद या मल-मूत्र आदि किसी प्रकार की अशुचि नहीं थी। वे अतुल्य शारीरिक बल के धारी थे। उनके सान्निध्य में उनके मधुर वचनों को सुन कर सबके मुख पर सदा प्रसन्नता छायी रहती थी।
वे जन्म से ही मति-श्रुत-अवधि, तीन ज्ञान के धारी थे, अतः उन्हें किसी गुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वे आत्मज्ञान के साथ-साथ लौकिक विद्याओं में भी पारंगत थे। जब वे बोलते थे, तो उनके मुख से मोक्षमार्ग के ही पुष्प झरते थे।
राजकुमार सुपार्श्व धीरे-धीरे युवावस्था को प्राप्त हुए। जब वे पाँच लाख वर्ष पूर्व के हुए, तब काशी देश के राजसिंहासन पर उनका राज्याभिषेक हुआ। उनके पुण्य प्रताप से वैभव में वृद्धि होती जाती थी, परन्तु वे उस वैभव का प्रयोग उदारतापूर्वक दान आदि देने में ही उपयोग करते थे। इस प्रकार सुखपूर्वक राज्य करते हुए उन्हें 19 लाख वर्ष पूर्व व्यतीत हो गए।
एक बार महाराज सुपार्श्व अपने जन्म-दिवस का उत्सव मनाने हाथी पर बैठ कर वनविहार करने गए। वहाँ उन्होंने एक वृक्ष देखा जो कुछ समय पहले हरा-भरा व फल-फूल से युक्त था। परन्तु पतझड़ ऋतु आ जाने से उसके सब पत्ते झड़ चुके थे और वह पत्र-विहीन होकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी साधु ने केशलुंचन कर लिया हो। ऋतु-परिवर्तन के साथ वृक्ष की ऐसी दशा देख कर महाराज सुपार्श्वनाथ समस्त पदार्थों की क्षणभंगुरता का चिंतवन करने लगे - अरे! ऋतु-परिवर्तन की भांति इस संसार का प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील और अस्थिर है। ये राजभोग और शरीर आदि भी पुण्य समाप्त होने पर वृक्ष के पत्तों के समान विनश्वर और क्षणभंगुर हैं।
अहो! मेरी आयु का दीर्घकाल भी इन राजभोगों को भोगने में ही व्यतीत हो गया। अब अपनी आत्मसाधना पूर्ण करके परमात्मपद प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय रूपी बोधि को प्राप्त करने का समय आ गया है। मैं आज ही इन राजभोगों को छोड़ कर मुनिदीक्षा धारण करूँगा और शुद्धोपयोग द्वारा चिदानन्द स्वरूप में लीन होऊँगा।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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