सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 13)
सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ जी (भाग - 13)
भगवान शान्तिनाथ जी के पूर्वभव
भगवान शान्तिनाथ जी का चौथा पूर्वभव - ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिन्द्र
अपने पौत्र कनकशान्ति को केवलज्ञान प्राप्त होने के समाचार सुनते ही वज्रायुध चक्रवर्ती ने अति आनन्दित होकर ‘आनन्द’ नाम की भेरी बजवा कर उत्सव मनाया और वे धूमधाम से उन की वन्दना-पूजा के लिए गए। वहाँ अनेक देव, विद्याधर भी उत्सव में आए हुए थे। वह उपसर्ग करने वाला विद्याधर भी प्रभु की महिमा देख कर उनकी शरण में आया और वैरभाव छोड़ कर उसने धर्म की प्राप्ति की। वज्रायुध चक्रवर्ती ने स्तुतिपूर्वक प्रार्थना की - हे भगवन्! सांसारिक कषायों से डर कर मैं आपकी शरण में आया हूँ। मुझे धर्मोपदेश सुनाने की कृपा कीजिए।
श्री कनक केवली ने अपनी दिव्य ध्वनि में कहा - यह संसार अनादि-अनन्त है। अज्ञानी जीव उसका पार नहीं पा सकते। परन्तु भव्य जीव ऐसे अनादि-अनन्त संसार का भी अंत कर देते हैं। जो एक बार धर्म की नौका में बैठ जाते हैं, वे भवसमुद्र को पार करके मोक्षपुरी में पहुँच जाते हैं। धर्म का मार्ग माता-पिता के समान हितकारी है। वह जन्म-मरण के दुःखों से उबार कर जीव को उत्तम मोक्ष सुख में स्थापित करता है।
इस प्रकार केवली भगवान का उपदेश सुन कर धर्मात्मा वज्रायुध चक्रवर्ती का चित्त संसार के विषय-भोगों से विरक्त हो गया। वे विचार करने लगे - इस संसार में विषय-भोगों के प्रति अनुराग कितना प्रबल है! आत्मज्ञानी के लिए भी उसकी प्रीति छोड़ कर मुनिदीक्षा धारण करना दुर्लभ है। मेरे पौत्र ने अल्प आयु में ही अपने आत्मबल से केवलज्ञान सम्पदा प्राप्त कर ली और परमात्मा बन गए। वे धन्य हैं!!
वैरागी वज्रायुध चक्रवर्ती ने राजभवन में आकर रत्नपुरी के राज्य का भार अपने पुत्र सहस्रायुध को सौंप दिया और अपने पिता श्री क्षेमंकर तीर्थंकर के समवशरण में जाकर जिनदीक्षा धारण की। छः खण्ड का चक्रवर्ती सारा वैभव छोड़ कर दीक्षा के पश्चात् वज्रायुध मुनिराज बन गया और सिद्धाचल पर्वत पर एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर अचल मुद्रा में स्थित हो गया।
बाहुबलि भगचान की भांति उन्होंने एक वर्ष तक अडोल रूप से ऐसा आत्मध्यान लगाया कि लताएँ कण्ठ तक लिपट गई। सिंह, सर्प, हिरण, खरगोश आदि उनके चरणों में आकर शांतिपूर्वक रहने लगे। पूर्व के वैरी असुरदेव ने उन्हें ध्यान से डिगाने के लिए घोर उपसर्ग किया। फिर भी वे वज्र के समान ध्यान में स्थिर रहे। अंत में भक्त-देवियों ने आकर असुर देवों को भगा दिया।
वज्रायुध मुनिराज अनेक वर्षों तक रत्नत्रय की आराधना करते हुए विदेहक्षेत्र में विचरण करते रहे।
वज्रायुध मुनिराज के पुत्र सहस्रायुध ने कुछ काल तक रत्नपुरी का राज्य किया। फिर उनका चित्त भी संसार से विरक्त होने लगा। उन्होंने चिन्तन किया कि ये दुःखदायक और पापजनक विषयभोग मुझे शांति नहीं दे सकते। मैं तो मोक्ष की साधना के लिए आज ही मुनिदीक्षा लूँगा। ऐसा निश्चय करके वे भी जिनदीक्षा धारण करके वज्रायुध मुनिराज के साथ विचरण करने लगे। दोनों मुनिराजों ने अनेक वर्षों तक साथ-साथ विहार किया। अन्त में विदेहक्षेत्र के वैभार पर्वत पर उन्होंने रत्नत्रय की अखण्ड आराधना करते हुए समाधिमरण किया और ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए। वे दोनों तीन भव पश्चात् मोक्ष प्रात करेंगे।
क्रमशः
।।ओऽम् श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय नमः।।
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